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कौन सी नफरत नफरत नहीं है

क्या मुस्कुराते हुए गंभीर बात नहीं की जा सकती? मसलन, अगर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने 80 बनाम 20 की बात की तो उनके होठों पर मुस्कान थी या नहीं? जब वे ‘अब्बाजान राशन ले जाते थे’ की फब्ती कस रहे थे, तब वे मुस्कुरा रहे थे या नहीं? और जब प्रधानमंत्री मेरठ में मतदाताओं को बतला रहे थे कि मुख्यमंत्री जेल-जेल खेल रहे हैं तो उनका लहजा मजाकिया ही तो था!
क़मर वहीद नक़वी

देश के गद्दारों को गोली मारो सालों को, यह नारा नफ़रत और हिंसा भड़काता है या नहीं? दिल्ली उच्च न्यायालय के अनुसार यह इससे तय होगा कि इसका संदर्भ क्या है। 2020 में दिल्ली में की गई हिंसा के पहले एक सभा में संघीय सरकार के मंत्री अनुराग ठाकुर ने यह नारा अपने समर्थकों से लगवाया था। उन्होंने शुरू किया, ‘देश के गद्दारों को’ और जनता ने पूरा किया: ‘गोली मारो सालों को।’ यह एक से अधिक बार किया गया।

दिल्ली में उस वक्त विधान सभा के लिए चुनाव-प्रचार चल रहा था।मंत्री, जो भारतीय जनता पार्टी के नेता हैं, इस प्रचार के दौरान भाषण दे रहे थे जिसके बीच उन्होंने यह नारा लगवाया। कहा जा सकता है कि मंत्री और भाजपा नेता ने तो गोली मारने को नहीं कहा, उन्होंने पूछा कि देश के गद्दारों के साथ क्या करना चाहिए। यह तो जनता है जिसने स्वतःस्फूर्त तरीके से बतलाया कि गद्दारों के साथ क्या सलूक किया किया जाना चाहिए। लेकिन अगर आप इस वीडियो को देखें तो मंत्री दुबारा यह नारा लगवाते हैं। फिर और उत्साह से जनता गद्दारों को गोली मारने का इरादा जाहिर करती है। 

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क्या यह किसी एक धार्मिक समुदाय के लोगों के खिलाफ घृणा पैदा करता है या बढ़ाता है? लेकिन यहाँ तो गद्दारों की बात की जा रही है! देश के गद्दार! इससे अधिक धर्मनिरपेक्ष नारा क्या हो सकता है? क्या पाकिस्तान के लिए जासूसी करते ज्यादा हिंदू ही नहीं पकड़े गए हैं?तो गद्दार गद्दार है और उसे अधिकतम सज़ा देने की बात की जा रही है। 

इस नारे में अगर कुछ है तो देशभक्ति का उत्साह है और उसके चलते देश से गद्दारी करनेवालों के खिलाफ क्रोध! देश के गद्दारों से क्या नफरत नहीं होनी चाहिए? आप क्यों कहते हैं कि यह मुसलमानों के खिलाफ है? इसमें तो कहीं मुसलमान शब्द आया भी नहीं! क्या यह चोर की दाढ़ी में तिनका जैसी बात नहीं? क्या मुसलमान के मन में कोई चोर है? वह इस नारे को अपने खिलाफ मान ही क्यों रहा है?

अनुराग ठाकुर, परवेश वर्मा आदि के भाषणों को घृणापूर्ण वक्तव्य मनाकर उनके खिलाफ कार्रवाई की माँग करने वाली बृंदा करात की याचिका पर दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति चंद्रधारी सिंह की टिप्पणी को तार्किक ढंग से यों बढ़ाया जा सकता है। ठाकुर मंत्री हैं और परवेश वर्मा सांसद। जिस समय चुनाव की तैयारी चल रही थी उस वक्त दिल्ली में और दिल्ली के बाहर नागरिकता के नए कानून के खिलाफ आंदोलन चल रहा था।

शाहीन बाग का आंदोलन

दिल्ली में  22 जगहों पर धरने चल रहे थे जिनमें मुसलमान औरतों की बहुतायत थी।चूँकि पहला धरना शाहीन बाग़ से शुरू हुआ था, सारे धरना स्थलों ने खुद को शाहीन बाग का नाम दे दिया। भारत में करीब 200 जगहों पर शाहीन बाग़ बन गए थे। यह ठीक है कि इन धरनों में गैर मुसलमान भी थे लेकिन इनमें बहुलता मुसलमानों की ही थी। 

मुसलमानों की इस अतिदृश्यता के कारण इस धरने और विरोध के खिलाफ संदेह और घृणा पैदा करना आसान था। आखिर वे क्यों नागरिकता के उस कानून का विरोध कर रहे हैं जो पड़ोसी देशों में ‘प्रताड़ित अल्पसंख्यकों’ को नागरिकता देने की बात करता है? वे राष्ट्रीयता के रजिस्टर का विरोध क्यों कर रहे हैं? क्या यह देश विरोधी कृत्य नहीं?  

Hate speech against muslims in india - Satya Hindi

ठाकुर नागरिकता के कानून का विरोध करनेवालों को गद्दार कह रहे थे। परवेश वर्मा ने कहा कि शाहीन बाग़ में ‘आंदोलनकारियों’ के बीच बलात्कारी और आतंकवादी छिपे हुए हैं। उन्होंने अपने संभावित मतदाताओं को डराया कि ये जब उनके घर घुसकर बलात्कार करेंगे तब उन्हें समझ में आएगा कि उन्होंने किस खतरे को शहर में पलने दिया है। लेकिन उन्होंने भी बलात्कारी और आतंकवादी कहा; कहीं भी मुसलमान शब्द नहीं कहा। क्या आतंकवादियों और बलात्कारियों से सावधान रहने को कहना गलत है? 

ये प्रश्न कितने मासूम हैं! लेकिन कितने चतुर! वैसे ही जैसे जब प्रधानमंत्री और भाजपा के नेता नरेंद्र मोदी ने नागरिकता के कानून का विरोध करनेवालों को उनके कपड़ों के रंग से पहचानने की बात की तब वे तो किसी धार्मिक समुदाय का नाम नहीं ले रहे थे! फिर आप उन पर किसी एक समुदाय या साफ कहें तो मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने का आरोप कैसे लगा सकते हैं? खुद आप ही तो कहते हैं कि इस आंदोलन में सिर्फ मुसलमान नहीं थे? 

न्यायमूर्ति सिंह बृंदा करात की अर्जी पर फैसला क्या देंगे, यह तो मालूम नहीं लेकिन जिरह के दौरान उन्होंने जो कुछ पूछा और जो टिप्पणी की उसके चलते फिर से सार्वजनिक चर्चा शुरू हो गई है कि किसे घृणा प्रचार कहेंगे, किसे नहीं!

न्यायमूर्ति सिंह के मुताबिक़ अगर ये बातें चुनाव प्रचार के दौरान की गई हैं तो उनका मकसद अपने पक्ष में एक माहौल बनाने भर का है। यह नहीं कहा जा सकता कि वक्ता या नारा लगानेवाला वास्तव में किसी व्यक्ति या समुदाय के खिलाफ घृणा या हिंसा भड़काना चाहता है। दूसरी जो बात उन्होंने कही, उसने लोगों को अधिक सदमा पहुँचाया। उनके मुताबिक़ अगर ऐसे नारे मुस्कुरा कर लगाए जाएँ तो उन्हें आपराधिक नहीं कहा जा सकता। आपराधिकता उनमें तब आएगी जब उन्हें गंभीरता से कहा जाए।

क्या मुस्कुराते हुए गंभीर बात नहीं की जा सकती? मसलन, आप अगर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने 80 बनाम 20 की बात की तो उनके होठों पर मुस्कान थी या नहीं? जब वे ‘अब्बाजान राशन ले जाते थे’ की फब्ती कस रहे थे, तब वे मुस्कुरा रहे थे या नहीं? और जब प्रधानमंत्री मेरठ में मतदाताओं को बतला रहे थे कि मुख्यमंत्री जेल-जेल खेल रहे हैं तो उनका लहजा मजाकिया ही तो था!

प्रधानमंत्री जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब 2002 में बड़ी हिंसा में मुसलमान विस्थापित होकर राहत शिविरों में शरण लिए हुए थे। गुजरात सरकार ने इन शिविरों को तोड़ डालने का फैसला किया। मुख्यमंत्री ने अपनी जनता को कहा कि ‘हम 5 हमारे 25’ वालों को वे बढ़ावा नहीं दे सकते। क्या वे ‘आतंकवादी पैदा करनेवाली फैक्टरी’ चलने दें? 

इन भाषणों में कहीं भी किसी धार्मिक समुदाय का नाम नहीं लिया गया। फिर कैसे कह सकते हैं कि वे घृणा प्रचार कर रहे थे?

इन सारे भाषणों में अगर आप वक्ता की मुखमुद्रा और उसकी भाव भंगिमा पर ध्यान दें तो  एक हल्कापन दिखलाई पडेगा, लहजा उपहासात्मक है। उसके और उसके श्रोताओं में जैसे एक हँसी मजाक चल रहा हो!  

यह उपहास किसका उड़ाया जा रहा है? किसे चोट पहुँच रही है? किसे किसके खिलाफ उकसाया जा रहा है? जिसे ज़ख्म देना है वह घायल हो रहा है। और जो यह घाव दे रहा है उसने इतनी पोशीदगी रखी है कि कानून की जद में न आए।
कानून से बचने की चतुराई हमने और जगहों पर भी देखी है। एक बार आल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज में अनुसूचित जाति समूह के एक छात्र की प्रताड़ना की खबर मिलने पर हम उसकी पड़ताल करने छात्रावास गए। छात्र के कमरे के आस-पास की दीवारों पर गालियाँ लिखी हुई थीं। लेकिन उनमें कहीं जाति का उल्लेख नहीं था। यानी आप उन गालियों के आधार पर साबित करना चाहते कि उस छात्र की जाति के कारण उसका उत्पीड़न हो रहा है, तो इसके लिए सबूत नहीं पेश कर सकते थे।
Hate speech against muslims in india - Satya Hindi

यह चालाकी एक खास संगठन के एक खास तरह के प्रशिक्षण के चलते एक सामाजिक स्वभाव बन गई। 

यह चालाकी बाबरी मस्जिद के विध्वंस के मुक़दमे में भी दिखलाई पड़ी। कल्याण सिंह और दूसरे अभियुक्तों की तरफ़ से दलील दी गई कि उन्होंने मुसलमानों के खिलाफ किसी घृणा का प्रचार नहीं किया था। ‘बाबर की औलादों को...’ नारे के बारे में तर्क दिया गया कि यह तो मुसलमानों के खिलाफ है ही नहीं, यह उनके खिलाफ है जो खुद को बाबर की औलाद मानते हैं! जाहिर है, अदालत इस तर्क से असहमत कैसे होती?

या इसी नारे को लीजिए: मंदिर वहीं बनाएँगे। यह तो मंदिर बनाने का इरादा है, इससे यह निष्कर्ष कैसे निकाला जा सकता है कि वह मसजिद ढाह देने का उकसावा था? लेकिन क्या हम नहीं जानते कि इस कूट भाषा का अर्थ नेता और उसकी जनता के लिए स्पष्ट है?
दूसरे, भारत के राज्य तंत्र में यह समझ बैठी हुई है कि हिंदुओं का एक तबका जब हिंसा की बात करता है तो उसका आशय वह नहीं होता। वह मात्र भावोच्छ्वास है। हिंदू स्वभावतया हिंसक नहीं होता। बोलकर अपने मन की भड़ास वह भले निकाल ले लेकिन घृणा और हिंसा तो उसके स्वभाव में है ही नहीं! इसी समझ के कारण दिल्ली में 2020 की हिंसा के पहले सार्वजनिक रूप से पुलिस की उपस्थिति में औरतों के धरने को जबरन उठा देने की भाजपा के एक नेता की धमकी को पुलिस उनसे हुए वार्तालाप की तरह पेश कर रही है।उसके मुताबिक़ वे धमकी नहीं दे रहे, चर्चा कर रहे हैं।

इन्हीं नेता से जब ‘वायर’ के पत्रकारों ने पूछा कि ‘देश के गद्दारों को गोली मारो सालों को’ नारा जब वे लगवा रहे थे तो क्या यह हिंसा का उकसावा नहीं था तो उन्होंने जवाब दिया कि वह तो बात कहने का एक तरीका था। मान लीजिए, तुकबंदी थी। उन्होंने देश के गद्दारों के अलावा जामिया के गद्दारों, ए एम यू के गद्दारों को भी गोली मारने के नारे लगवाए थे। वह सब तुकबंदी थी। घृणा और हिंसा की तुक इन नारों से नहीं मिलती। 

अदालत, जैसा हमने कहा, हिंदुओं के एक तबके की तरफ से की गई गाली-गलौज और घृणा प्रचार में हिंसा या घृणा का इरादा नहीं देखती। वरना जंतर मंतर पर खुलेआम ‘मुल्ले काटे जाएँगे’ का नारा लगानेवालों को पहले मौके पर जमानत न मिल जाती! 

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इसी वजह से हर्ष मंदर की उस याचिका का पुलिस ने जमकर विरोध किया जिसके जरिए भाजपा के उन नेताओं पर, जिन्होंने हिंसा की धमकी दी थी, कार्रवाई की माँग की गई थी। उस उकसावे के फौरन बाद हिंसा हुई लेकिन न तो पुलिस और न अदालत ने यह माना कि दोनों के बीच कोई रिश्ता हो सकता है।अपवादस्वरूप एक न्यायाधीश ने जब पुलिस को कार्रवाई का आदेश दिया तो उनका उसी रात तबादला कर दिया गया।

उसके बाद दो साल गुजर चुके हैं।अब ‘मुल्ले काटे जाएँगे’ भारत के राष्ट्रीय नारों में से एक बन गया लगता है। संसद से लेकर सड़क तक घृणा का ज़हर फैल गया है।हम ऐसे समाज में बदल गए हैं जिसमें संस्थाओं को इस नफ़रत के जहर में मज़े का नशा मिल रहा है।जिन होठों से गाली दी जा रही है, वे उन पर खेल रही मुस्कान को देखकर निहाल हैं। 

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