शिक्षक दिवस गुजर चुका है। गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश की पदवी देते हुए, उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए विद्यार्थियों की शुभाकांक्षाएँ भी बासी पड़ गई हैं। वैसे भी व्हाट्सऐप के ज़माने में हर अध्यापक को एक ही बना बनाया संदेश भेज दिया जाता है। विद्यार्थी प्रत्येक अध्यापक के लिए अलग से ख़ुद कुछ लिखने की ज़हमत अक्सर नहीं उठाते।आपको भी मालूम है कि यह एक वार्षिक औपचारिकता है। सभ्यता यही है कि आप इस शिष्टाचार को समझते हुए इसका जवाब धन्यवाद लिख कर दें।
इस बार लेकिन मुझसे यह न हुआ।अध्यापकों के लिए जो दुष्काल हो, उसमें अध्यापकों का गुणगान और श्रद्धा निवेदन, मालूम होता है, एक सड़ती लाश पर गुलाब जल छिड़का जा रहा हो। इस वक्त भारत में अध्यापक जितना दीन हीन है उतना पहले कभी नहीं था। मैं आर्थिक दीनता की बात नहीं कर रहा। उस मामले में पिछली पीढ़ियों के अध्यापकों के मुक़ाबले हमारी हालत बहुत अच्छी है। लेकिन यह भी हर तरह एक अध्यापक के बारे में नहीं कहा जा सकता। भारत में प्रायः हर जगह एक अच्छी ख़ासी तादाद वैसे अध्यापकों की है जो अस्थायी हैं।एक तरह के नहीं। अलग अलग तरह के अस्थायीत्व से वे पीड़ित हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में एक साथ दो तरह के अस्थायी अध्यापक हैं: एक श्रेणी अतिथि अध्यापकों की है और एक को “ऐड हॉक” कहा जाता है। दोनों को एक ही तरह का काम करने पर एक तरह का भुगतान नहीं होता। वैसे ही जैसे ऐड हॉक अध्यापकों को स्थायी अध्यापकों जैसी तनख़्वाह नहीं मिलती।
देश के दूसरे हिस्सों में हाल और बुरा है। इसी साल सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात सरकार को अस्थायी अध्यापकों को कम वेतन के लिए फटकारा।पटना, उत्तराखण्ड, पंजाब, केरल, हर जगह उच्च न्यायालयों ने कॉलेज और स्कूली स्तर पर अध्यापकों के साथ आर्थिक भेदभाव की आलोचना की है। इसका मतलब यही है कि पूरे भारत में प्रायः हर सरकार मानती है कि अध्यापन कोई सम्मानजनक पेशा नहीं। सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात सरकार को आलोचना करते हुए कहा कि ‘गुरु ब्रह्मा, विष्णु, महेश है’ का मंत्र जपने से उसका जीवन सम्मानजनक नहीं हो जाता।
आर्थिक असमानता का अन्याय अध्यापकों के बड़े हिस्से के जीवन की सच्चाई है। लेकिन इस लेख में हम उसकी बात नहीं कर रहे। स्कूली अध्यापकों की भी नहीं क्योंकि उन्हें तो सरकारी कर्मचारी की तरह ही माना जाता है। निजी विद्यालयों के अध्यापकों के जीवन का अध्ययन भी हमारे यहाँ कम ही हुआ है।इस लेख में हम विश्वविद्यालय के अध्यापकों की दयनीय अवस्था की बात करना कहते हैं। उनकी जो आर्थिक रूप से सुरक्षित हैं।
विश्वविद्यालय के अध्यापक को इस बात का अभिमान रहा करता था कि कक्षा और पाठ्यक्रम के मामले में वह स्वायत्त है।पिछले 11 सालों में धीरे धीरे दोनों ही उसके हाथ से जाते रहे हैं। शिक्षक दिवस के एक दिन पहले एक सहकर्मी से बात हो रही थीं। उन्होंने बतलाया कि विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने वह पर्चा ही पाठ्यक्रम से उड़ा दिया जिसे वे पढ़ा रही थीं।सत्र के एक महीना गुजर जाने के बाद उन्हें यह मालूम हुआ।अपने उन 100 विद्यार्थियों को वे क्या मुँह दिखलाएँगी जिन्हें वे यह पर्चा पढ़ा रही थीं? यह कितने अपमान की बात है कि अधिकारीगण इसकी ज़रूरत महसूस नहीं करते कि वे इसके बारे में उनसे राय मशविरा करें? पूछने पर कहा गया कि प्रस्तावित पाठ्य सामग्री का विषय से मेल नहीं समझ में आ रहा था। लेकिन अर्थशास्त्र के बारे में जंतुशास्त्र का अध्यापक कैसे फ़ैसला कर सकता है कि कौन सी पाठ्य सामग्री क्या पढ़ाने के लिए इस्तेमाल की सकती है?
जो अधिकारी है,वह भी अध्यापक है।लेकिन वह अध्यापक धर्म भूल कर अधिकारी हो गया है। उसका काम अपने ऊपर के लोगों के आदेश का पालन करवाना भर रह गया है। वह अब विश्वविद्यालय का बुनियादी सिद्धांत भूल गया है कि पाठ्यक्रम पर संबंधित विषय के अध्यापक की राय ही अंतिम होनी चाहिए। जो अधिकारी नहीं हैं, वे अध्यापक भी अपना अधिकार भूल गए हैं। विभागीय समितियों में अध्यक्ष और दूसरे अध्यापकों को कहते सुना है कि फ़लाँ चीज़ पढ़ाने का निर्देश ऊपर से आया है और उसमें हम कुछ नहीं कर सकते। जो कुलपति अभी भी भले आदमी हैं, उनसे पूछने पर वे भी कहते हैं कि ऊपर से कहा गया है। मसलन, भारतीय ज्ञान परंपरा को ही ले लीजिए। इसे हर विषय में घुसेड़ने का एक ही तर्क है कि यह राष्ट्रीय शिक्षा नीति में लिखा है।यह नहीं बतलाया जाता कि जो भी उस नीति के दस्तावेज में लिखा है,उसे मानना न मानना विश्वविद्यालयों का अपना निर्णय होगा।
यह तर्क भी दिया जाता है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने आदर्श पाठ्यक्रम प्रस्तावित किया है और उसे मानना हमारे लिए अनिवार्य है।यह भी ग़लत है।लेकिन प्रायः अध्यापक ख़ुद ही पाठ्यक्रम पर अपने अधिकार को किसी उच्चतर सत्ता के हवाले करने को तत्पर हैं। कुलपतियों ने तो मान ही लिया है कि उनका काम ऊपरी आदेश का पालन करवाना है। दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति ने कहा कि वे किसी भी तरह इक़बाल को पढ़ाने नहीं देंगे।वे भूल गए कि किसे और क्या पढ़ाया जाएगा,यह बताना उनका काम नहीं है, यह संबंधित विषय के अध्यापकों का फ़ैसला होता है।
पाठ्यक्रम पर अध्यापक का नियंत्रण ख़त्म करने के लिए सरकार ने एक और सुंदर तर्क खोजा है। वह यह कि वह अब विद्यार्थियों को अध्यापक की तानाशाही से आज़ाद करना चाहती है। इसलिए ऑनलाइन पाठ्यक्रमों को बढ़ावा दिया जा रहा है। भारत सरकार ने इसके लिए ‘स्वयम्’ नामक मंच बनाया है जिस पर रिकॉर्ड किए हुए व्याख्यान मौजूद हैं। विद्यार्थियों को प्रोत्साहित किया जा रहा है कि वे वहाँ जाकर अपना पाठ्यक्रम और व्याख्यान चुन लें। इसी उनकी सीधे कक्षा और अध्यापकों पर निर्भरता कम होगी और शिक्षा का जनतंत्रीकरण किया जा सकेगा। हममें से अनेक अध्यापक आगे बढ़कर ‘स्वयम्’ के लिए व्याख्यान रिकॉर्ड करवा रहे हैं। ‘स्वयम्’ के विस्तार का अर्थ है अध्यापकों का अप्रासंगिक होना। कक्षा का अर्थ है अध्यापक और विद्यार्थी का संवाद। वह स्थान अब धीरे धीरे ख़त्म किया जा रहा है।
अध्यापक इसे लेकर निश्चिंत रहे हैं कि वे अपनी कक्षा में पूर्णतया स्वतंत्र हैं।इसका मतलब यह नहीं कि कक्षा उनकी मिल्कियत है। वह ऐसी जगह है जहाँ उनके ऊपर किसी का नियंत्रण नहीं।लेकिन आज यह बात हम उतने यक़ीनी तरीक़े से नहीं कह सकते।अध्यापक पर अब निगरानी रखी जा रही है। कई जगह कैमरे के ज़रिए। पहले की कक्षा की अच्छी बात यह थी कि वह क्षणभंगुर थी। अध्यापक और विद्यार्थियों के बीच की बातचीत वहीं रह जाती थी। अब वह कैमरे और मोबाइल में क़ैद होकर स्थायी बन जाती है। वह कक्षा के बाहर भी जा सकती है। इसके नतीजे अध्यापक के लिए ख़तरनाक हो सकते हैं। पिछले 11 सालों में बीसियों अध्यापकों को कक्षा के अपने व्याख्यान के लिए तरह तरह की सजा भुगतनी पड़ी है।उनपर शारीरिक हमला हुआ है, उन्हें निलंबित भी किया गया है। प्रश्न पत्र में ऐसे सवाल तैयार करने के लिए जो राष्ट्रवादियों को या सरकार को पसंद नहीं, अध्यापकों को नौकरी से निकाला भी गया है।
अध्यापक इस वजह से आशंकित और भयभीत हैं। कक्षा उसके और विद्यार्थियों के बीच आपसी विश्वास के आधार पर ही चलती है। अब उसमें दरार आ गई है। अध्यापक को मालूम नहीं कि उसकी कौन सी बात रिकॉर्ड करके और संदर्भ से काटकर बाहर फैला दी जाएगी। इस वजह से अब वे बहुत सावधान होकर कक्षा में चर्चा करते हैं।इसका नुक़सान जितना उन्हें है, उससे कहीं ज़्यादा विद्यार्थियों को है क्योंकि उनकी कक्षा अब एक सेंसर की हुई कक्षा है। उनका अध्यापक उन्हीं से डरा हुआ है।
2016 में दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में विद्यार्थियों के एक तबके ने अध्यापकों पर हमला किया। परिसर में दूसरी जगह पर भी अध्यापकों पर हमला किया गया। इसने विद्यार्थियों पर अध्यापकों का भरोसा हिला दिया। लखनऊ विश्वविद्यालय में भी अध्यापकों पर हमला किया गया।
इन बातों को लेकर सारे अध्यापकों को चिंतित होना चाहिए। लेकिन पिछले 11 सालों के दौरान हमने अध्यापकों के एक तबके को इन सारी बातों को जायज़ ठहराते देखा है।बल्कि वे उन अध्यापकों के ख़िलाफ़ अभियान चलाते हैं जिन्हें आज की सत्ता का आलोचक माना जाता है।अध्यापक ही अपने पेशे के लोगों पर हमला होने पर, उनकी गिरफ़्तारी पर ख़ुशी मनाते देखे जाते हैं। तथाकथित राष्ट्रवादी अध्यापकों की एक फ़ौज हर जगह तैयार कर ली गई है। इनकी प्रतिबद्धता अपने ज्ञान के क्षेत्र से नहीं, एक विचारधारा से और सत्ता से है। कक्षा और विद्यार्थियों में भी इनकी रुचि नहीं है। इन्हें इससे भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि पाठ्यक्रम बनाने का अध्यापकों का अधिकार उनसे छीना जा रहा है।
दिल्ली विश्वविद्यालय हो या जामिया मिल्लिया इस्लामिया या जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय या दूसरे शिक्षा संस्थान, पिछले 10, 11 सालों से प्रायः अध्यापकों की नियुक्ति का आधार उनके विषय में उनकी दक्षता नहीं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से उनकी संबद्धता या निकटता है या दूसरी वजहें हैं जिनके बारे में बात करना भी बहुत शोभनीय नहीं है।इस प्रकार बहाल हुए अध्यापकों की संख्या अब उन अध्यापकों पर हावी हो रही है जिन्हें अपने विषय या विद्यार्थियों की चिंता है। कहा जा सकता है कि अब परिसरों में अध्यापकों की शक्ल में अ-अध्यापक अब कहीं अधिक हैं।
ये अपनी योग्यता कक्षा में या अपने ज्ञान के क्षेत्र में साबित नहीं करना चाहते। आर एस एस के पदाधिकारियों के समक्ष अपनी उपयोगिता और वफ़ादारी साबित करने में उनकी ऊर्जा खर्च होती है।
जो अध्यापक हैं, उन्हें तरह-तरह से अपमानित किया जाता है।जे एन यू में करके अध्यक्ष और डीन आदि की नियुक्ति में अध्यापकों की वरिष्ठता का उल्लंघन आम बात है।उन्हें पदोन्नति न देना, अध्ययन और शोध के लिए छुट्टी न देना, इसकी खबरें भी अक्सर आती रहती हैं। इससे अध्यापकों का मनोबल गिरता है। जब जे एन यू जैसे विश्वविद्यालय में यह हो रहा हो तो बाक़ी जगह
अध्यापक सिर्फ़ कक्षा तक सीमित नहीं रहते। वे शोध करते हैं, लिखते हैं, सार्वजनिक चर्चा में भाग लेते हैं। अब इन सब पर राष्ट्रवादी नियंत्रण बढ़ता जा रहा है। अध्ययन और शोध के अवसर और उनके लिए अनुमति अब राष्ट्रवादी शर्तों पर मिलती है। ऐसे नियम कई शिक्षा संस्थानों में लागू कर दिए गए हैं जिनके कारण अध्यापक अब अपने तरीक़े से सार्वजनिक विचार विमर्श में भाग नहीं ले सकते। उसके लिए उन्हें दंडित किया जा सकता है और अनेक अध्यापकों को इसके लिए सजा भुगतनी पड़ी है।
यह बात मात्र सार्वजनिक विश्वविद्यालयों के लिए नहीं, बल्कि खुद को प्रतिष्ठित कहलानेवाले अशोका यूनिवर्सिटी जैसे संस्थानों के अध्यापकों पर और भी लागू होती है। ऐसे अध्यापक नौकरी से निकाले गए हैं या उन्हें इस्तीफ़ा देने को बाध्य किया गया है जिन्होंने या तो कुछ ऐसा कहा या लिखा है जो आज की सरकार के लिए असुविधाजनक है। इसका असर बाक़ी अध्यापकों पर भी पड़ता है। वे ख़ुद को संयमित करके इससे संतोष कर लेते हैं कि कम से कम पाठ्यक्रम के मामले में तो कोई दखल नहीं है। लेकिन वे इस अहसास के साथ काम करते हैं कि उनपर नज़र रखी जा रही है।
इस शिक्षक दिवस पर अध्यापक की इस दयनीय अवस्था को याद कर लेना ठीक रहेगा। क्या इस दयनीयता से मुक्ति ख़ुद उसके हाथ है? या उसे शिक्षक दिवस पर बधाई देनेवालों का भी कोई दायित्व है?