क्या भारतीय राज्य किसी मंदिर या मस्जिद का निर्माण कर सकता है? शायद यह सवाल इस तरह नहीं पूछा जाना चाहिए। भारत में इसकी कल्पना करना ही हास्यास्पद है कि राज्य मस्जिद बनवाएगा। 1992 के 6 दिसंबर को तय हो गया था कि भारतीय राज्य मस्जिद को ध्वस्त करने में ज़रूर मदद कर सकता है। 2025 आते आते हमें मालूम हो गया है कि भारतीय राज्य अलग-अलग बहानों से मस्जिदों को विवादग्रस्त करने और मस्जिदों या मज़ारों को  तोड़ने में ज़रूर आगे आगे रहा है। इसलिए पहले वाक्य से मस्जिद को हटा देना चाहिए। हमें सिर्फ़ यह पूछना चाहिए कि क्या भारतीय राज्य मंदिर का निर्माण कर सकता है? क्या उसे ऐसा करने का अधिकार है?


राज्य को या सरकार को अधिकार संविधान के तहत मिलते हैं। क्या भारत के संविधान के अनुसार राज्य किसी धार्मिक स्थल का निर्माण कर सकता है? उत्तर स्पष्ट है: नहीं। भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है।वह किसी एक धर्म का पोषण नहीं कर सकता। वह स्वयं धार्मिक कार्यों में शामिल नहीं हो सकता।लेकिन धर्म की सार्वजनिक अभिव्यक्ति में सामाजिक व्यवस्था बनाए रखना उसका काम है।इसलिए अमरनाथ यात्रा के आयोजन या राम नवमी के जुलूस की व्यवस्था में उसका शामिल होना स्वाभाविक है। वह ऐसे अवसरों पर श्रद्धालुओं के लिए आवागमन, या आवास आदि की व्यवस्था में मदद करता है। तीर्थस्थलों को जानेवाली सड़कों को ठीक करना या यात्रियों को सुरक्षा प्रदान करना भी उसके दायित्वों में शामिल है।लेकिन इसके आगे उसे नहीं जाना चाहिए।

इसके बावजूद हम जानते हैं कि राम लीला में प्रधानमंत्री रावण पर तीर चलाते है। जगन्नाथ रथ यात्रा में भी मुख्यमंत्री शामिल होते हैं। भारतीय धर्मनिरपेक्षता शुष्क नहीं है। धार्मिकता की वह कद्र करती है। इसलिए  रथयात्रा में मुख्यमंत्री या मंत्रीगण शामिल हों अथवा वे ईद की नमाज़ में हिस्सा लें, किसी को एतराज नहीं होना चाहिए। माना जाता है कि इससे सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा मिलता है। आख़िर व्हाइट हाउस में या 10, डाउनिंग स्ट्रीट में दीवाली मनाए जाने पर भारत के हिंदुओं को भी आनंद ही होता है।फिर भी यह सवाल बना हुआ है कि क्या इससे आगे बढ़कर राज्य कोई धार्मिक स्थल बनवा सकता है? 

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यह सवाल उठा था जब सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद की ज़मीन पर  राम मंदिर बनाने का आदेश दिया था। फिर भी उसमें एक आड़ थी। वह यह कि मंदिर निर्माण का काम एक ट्रस्ट को दिया गया था। सरकार सीधे उसमें शामिल न थी। मंदिर बनाने के लिए पैसा भी सरकार ने नहीं दिया था। हालाँकि मंदिर निर्माण और उसके उद्घाटन का श्रेय भारतीय जनता पार्टी ने लिया। राम मंदिर बनाने के अदालत के फ़ैसले के लिए भी भाजपा ने प्रधानमंत्री को धन्यवाद दिया। फिर उद्घाटन में प्रधानमंत्री ने मुख्य यजमान की भूमिका निभाई। मंदिर के उद्घाटन को राजकीय कार्यक्रम बना दिया गया। उस समय उसकी चतुर्दिक आलोचना हुई। कहा गया कि यह मंदिर का उद्घाटन नहीं, भारत में हिंदू राष्ट्र का उद्घाटन है। 


चूँकि उस समय हम इस सवाल पर टिके नहीं रहे आज फिर हमें वही सवाल करना पड़ रहा है। अभी कुछ रोज़ पहले बिहार में सीतामढ़ी में बिहार सरकार ने एक ‘भव्य’ सीता मंदिर के निर्माण की शुरुआत की है।बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और भारत सरकार के गृह मंत्री अमित शाह ने  पुनौराधाम में जानकी जन्मस्थली के लिए भूमि पूजन किया। ये दोनों इस धार्मिक अवसर पर मुख्य यजमान थे। उसके पहले तीन दिनों तक लगभग सभी अख़बारों में बिहार सरकार ने पूरे पूरे पृष्ठ का विज्ञापन प्रकाशित किया। वह जनता को सूचित करना चाहती थी कि ‘माता सीता की जन्मस्थली पुनौराधाम मंदिर और  परिसर के समग्र विकास’ के लिए वह क्या क्या कर रही है।मंदिर परिसर के समग्र विकास के लिए उसने 165 करोड़ 57 लाख रुपए खर्च करके 50 एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया है।कुल मिला कर वह इस मंदिर के निर्माण के लिए 882 करोड़ 87 लाख रुपया खर्च कर रही है। आनेवाले दिनों में यह राशि निश्चय ही और बढ़ेगी। इस बीच वह बीच बीच में विज्ञापन देती रहेगी जिसपर लाखों या करोड़ों खर्च होंगे। 

क्या बिहार सरकार यह कर सकती है? क्या एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में सरकार किसी एक धर्म को इस प्रकार प्रश्रय दे सकती है? यह सवाल क़ायदे से अख़बारों को पूछना चाहिए था। या बिहार के राजनीतिक दलों को। लेकिन अख़बार के मुँह एक तो विज्ञापन से बंद कर दिए गए है और दूसरे राज्य सरकार या भाजपा की तरह वे भी हिंदू धर्म के प्रचारक बन गए हैं। वरना वे यह पूछ सकते थे कि राज्य के करदाताओं के पैसे का इस्तेमाल एक धर्म विशेष  के लिए क्यों किया जा रहा है। यह किसी ने नहीं कहा कि अमित शाह या नीतीश कुमार इस आयोजन में शामिल हो सकते थे लेकिन वे इसके मुख्य यजमान कैसे हो सकते हैं? राज्य सरकार कोई मंदिर कैसे बना सकती है? 

अब भारत की राजनीति इतनी हिंदुत्वमुखी हो चुकी है कि कोई धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल यह सवाल उठाने का साहस नहीं कर सकता।लेकिन दुख की बात यह है कि समाज भी अब ऐसे सवाल को ग़ैर ज़रूरी मानने लगा है। अब कोई याद नहीं दिलाता कि आज़ादी के तुरत बाद सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार के समय महात्मा गाँधी ने राजकीय कोष से किसी प्रकार की सहायता को ग़लत बतलाया था और प्रधानमंत्री नेहरू ने राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को मंदिर के कार्यक्रम में बतौर राष्ट्रपति शामिल होने पर अपना एतराज जतलाया था।

सीतामढ़ी के इस मंदिर निर्माण की शुरुआत के मौक़े पर सैकड़ों साधु मौजूद थे। क्या उनके आने जाने और ठहरने का इंतज़ाम भी राज्य सरकार ने किया था? क़ायदे से इस तरह के सवाल में मीडिया की रुचि होनी चाहिए थी। लेकिन वह ऐसा कर पाए इसके लिए ज़रूरी है कि वह इस बुनियादी सिद्धांत को याद करे कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है।  

नीतीश कुमार बीच बीच में ‘मुसलमानी’ टोपी लगा लेते रहे हैं, इससे उनके इस कृत्य का बचाव नहीं होता। और यह उनका इस तरह का अकेला काम भी  नहीं है।बिहार सरकार के पथ परिवहन विभाग ने घोषणा  की है कि वह ‘त्योहारी सीजन’ में तीन महीने के लिए बिहार आने-जाने के लिए यात्रियों के किराए में मदद करेगी। वह बस मालिकों को प्रति सीट या प्रति यात्री प्रोत्साहन राशि देगी। यह दुर्गा पूजा, दीवाली,  छठ और होली के लिए बिहार के बाहर से अपने अपने घर आने वालों के लिए सरकारी मदद है। अव्वल तो दुर्गा पूजा से होली तक 3 नहीं, लगभग 6 महीने होते हैं। दूसरे, राज्य सरकार सिर्फ़ हिंदुओं को उनके धार्मिक अवसरों पर यात्रा करने में क्यों अपना पैसा खर्च कर रही है? यह विज्ञापन भी लगभग हर अख़बार में पूरे पूरे पृष्ठ का है। इसका ख़र्च भी जोड़ लीजिए।


आम तौर पर सरकारें इस तरह के खर्च को ‘धार्मिक पर्यटन’ के नाम पर जायज़ ठहराने के लिए करती रही हैं।उनका तर्क होता है कि इससे राज्य को और आय होती है। यानी धार्मिक कार्यों में राजकीय शिरकत को वे धर्मनिरपेक्ष कारण से उचित ठहराती हैं। श्रद्धालु को पुण्य मिलेगा और राज्य को धनराशि! इससे बढ़िया सौदा क्या हो सकता है? लेकिन सरकार क्या यही उदारता ईद-बक़रीद के वक्त दिखला सकती है?

नीतीश कुमार के सरकार बनाने के कुछ बाद एक विज्ञापन देखा था। बिहार सरकार गया में पिंड दान करने के लिए लोगों को आमंत्रित कर रही थी। उन्हें बतलाया जा रहा था कि गया में पिंड दान करने से उनके पूर्वजों की आत्माओं को मुक्ति मिलेगी। ज़ाहिर है वह बनारस और दूसरी जगह जाने वाले हिंदुओं को यह आध्यात्मिक प्रलोभन दे रही थी। जैसे आत्मा-मुक्ति के लिए काशी और गया में प्रतियोगिता चल रही हो। बिहार सरकार का दावा है कि गया में पिंड दान से मुक्ति की गारंटी है। 

बिहार सरकार यह कर पा रही है तो इसका कारण यह है कि समाज में अब इसकी चेतना लुप्त होती जा रही है कि धर्मनिरपेक्ष राज्य का अर्थ क्या होता है।पिछले 11 सालों में अब इतनी बार सरकारें हिंदू धार्मिक कार्यक्रमों में सीधे हिस्सा लेने लगी हैं कि यह सब कुछ स्वाभाविक लगने लगा है। मसलन अभी बंगाल सरकार ने दुर्गा पूजा समितियों को अनुदान देने की घोषणा की है। अगर हिंदू ख़ुद अपने पैसे से देवी की पूजा नहीं कर सकते तो पुण्य उन्हें मिलेगा या सरकार को? 

अयोध्या में राम मंदिर की घोषणा होते ही बिहार में विपक्षी दलों ने शोर किया कि सीता की उपेक्षा की जा रही है। राम मंदिर में राम के साथ सीता को समान सम्मान नहीं दिया गया। उसी समय से सीतामढ़ी में सीता मंदिर बनाए जाने की भूमिका बनने लगी थी। अब बिहार सरकार ने सीता का सम्मान शुरू कर दिया है।

भारत सरकार के गृहमंत्री ने मंदिर उद्घाटन के अवसर पर जनता को संबोधित करते हुए कहा कि यह मात्र मंदिर का शुभारंभ नहीं,  मिथिला और बिहार के लोगों  के  भाग्योदय का शुभारंभ है। अगर बिहार की बेचारी जनता का भाग्य सीता माता के मंदिर से जुड़ा था तो पिछले 18 साल से वह नीतीश सरकार को और पिछले 11 साल से भाजपा सरकार को क्यों ढो रही थी? अगर राम और सीता ही भाग्य का निर्णय करनेवाले हैं तो सरकारों का क्या मतलब? 

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सीता मंदिर का आध्यात्मिक उद्देश्य है या सांसारिक? गृहमंत्री ने स्पष्ट कर दिया कि उनके लिए यह शुद्ध सांसारिक मामला है। सीता माता के मंदिर के उद्घाटन के मौक़े पर उन्होंने सीता की महिमा के बारे में बोलने की जगह विपक्षी दलों पर हमला किया। बिहार में मतदाता सूची को लेकर चल रहे विरोध की उन्होंने निंदा की, घुसपैठियों को वोट न देने देने के संकल्प को दुहराया। यह भाषण इसका संकेत था कि यह मंदिर निर्माण एक हिंदुत्ववादी राजनीतिक परियोजना का हिस्सा है जैसे अयोध्या का राम मंदिर। इसका राम और सीता के प्रति श्रद्धा से कोई लेना देना नहीं।भाजपा के इस हिंदुत्ववादी अभियान में नीतीश कुमार भी उत्साह से शामिल हो गए है, मात्र यही एक नई सूचना है।