एक ऑनलाइन हिंदी पत्र के संपादक से बात हो रही थी। बहुत दुख के साथ बता रहे थे कि उनके पत्र में छपनेवाली रपटें प्रायः बिना पढ़े रह जाती हैं। आर्थिक तंगी के बीच इन पर काम करना और उन्हें छापना कितना मुश्किल है, वही जानते हैं। रिपोर्ट लिखनेवालों को सिर्फ़ लिखना नहीं होता, उसके पहले खोज-बीन, जाँच-पड़ताल की मशक़्क़त करनी होती है।उन्हें इसके लिए पर्याप्त मेहनताना नहीं मिलता। लिखे जाने के बाद संपादन का काम होता है। संपादकों की टीम भी छोटी है। फिर भी वे नियमित रूप से ऐसी रपटें छापते रहे हैं जो साधन संपन्न अख़बारों में भी नहीं छपतीं। इनके न पढ़े जाने से निराशा होती है। लेकिन अंग्रेज़ी तर्जुमे में इन्हीं खबरों को पढ़ने वालों की तादाद कई गुना बढ़ जाती है। इससे मूल भाषा के लेखक या संपादक तकलीफ़ और बढ़ जाती है।
संपादक मित्र के मुताबिक़ रिपोर्ट या लेख पढ़ने की जगह अब लोग वीडियो देखना पसंद करने लगे हैं। इसका तजुर्बा हम जैसे लोगों का भी है। अलग-अलग मौक़ों पर और अलग-अलग जगहों पर अक्सर लोगों से मुलाक़ात होती है जो कहते हैं कि हमने आपको देखा है।शायद ही कोई यह कहता हो कि हमने आपको पढ़ा है।यह क़तई अलग मसला है कि शायद आप पढ़े जाने के काबिल ही न हों लेकिन यह अनुभव किसी एक का होता तो कोई बात थी। एक बार एक पुस्तकालय में एक युवक से भेंट हुई। उसने बतलाया कि वह अक्सर वीडियो में मुझे देखता रहा है।परिचय पूछने पर हमारा विद्यार्थी निकला। लेकिन वह क्लास में कभी कभार ही आता है। वक्त का इस्तेमाल वह पुस्तकालय में आकर करता है।इसकी वजह क्या है?वह अलग-अलग प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी में लगा है। उसके लिए ख़ास तरह की किताबें लिखी जाती हैं। वह पुस्तकालय में आकर उन्हें पढ़ता है।क्लास में व्याख्यान या संवाद से क्या होता है? प्रतियोगिता परीक्षा में कोई मदद तो नहीं मिलती।
क्लास में न आने का एक कारण ख़ुद विश्वविद्यालयों ने पैदा किया है। या उच्च शिक्षा के नियामकों ने।एम ए हो या पीएच डी, सबकी प्रवेश परीक्षाओं में सूचनापरक प्रश्न पूछे जाते हैं। अब वह भी इतना अटपटा हो गया कि विद्यार्थियों को यह भी याद रखना पड़ता है कि फ़लाँ पात्र ने किस रंग की टोपी लगा रखी थी या किस रंग की जूती पहन रखी थी, या चक्की चलाने पर किस तरह की आवाज़ आ रही थी। उपन्यास हो या कविता, अब इस तरह की सूचनाओं के भंडार भर हैं। क्या क्लास में उन्हें ये सारी चीज़ें याद करवाई जाती हैं? अगर नहीं तो वे क्लास में क्यों आएँ? एम ए के इम्तहान में नंबर देना अब परीक्षकों की मजबूरी है।इसलिए स्नातक या एम ए की क्लासों में आने की कोई बाध्यता नहीं रह गई है।
यह समस्या स्कूल से ही शुरू हो जाती है। यह सच्चाई है कि क्लास पर परीक्षा का दबाव रहता है। ज़्यादातर परीक्षाओं में कुछ अधिक लिखने की ज़रूरत नहीं पड़ती। अधिकतर में कुछ शब्द ही लिखने पड़ते हैं। वह इसलिए कि माध्यमिक परीक्षाओं में भी अधिकतर सूचनापरक प्रश्न पूछे जाते हैं। इसलिए अध्यापक प्रायः पूरे पाठ की जगह ‘महत्त्वपूर्ण’ अंशों को पढ़ने पर ज़ोर देते हैं। नतीजा यह है कि विद्यार्थी मात्र ‘ज़रूरी’ या ‘अनिवार्य’ हिस्से ही पढ़ते हैं। पूरी कहानी, पूरा निबंध या पूरी किताब पढ़ने का अनुभव अब घटता जाता है।
पढ़ना सिर्फ़ साहित्य की कक्षा से तो सीखा नहीं जाता। विज्ञान हो या इतिहास या राजनीति विज्ञान, सबमें भाषा के अलग-अलग प्रयोग हैं। उनकी कक्षाओं में भी पूरा अध्याय शायद ही पढ़ा जाता हो। ‘वस्तुपरक’ प्रश्नों ने पढ़ने की ज़रूरत ही ख़त्म कर दी है।
मैं अपने संपादक मित्र का दुख इस वजह से समझ सकता हूँ कि अध्यापन के दौरान हम इस समस्या से जूझते रहते हैं। हरेक सत्र में विद्यार्थियों के साथ किताब साथ रखने के मसले पर संघर्ष करना पड़ता है। विद्यार्थी किताब ख़रीदना या पढ़ना ज़रूरी नहीं समझते। विचारात्मक लेखन तो दूर की बात है, वे उपन्यास तक पूरा नहीं पढ़ते। मैं उनसे कहता रहता हूँ कि शेष जन जो काम शौक़िया करते हैं, वह उनका पेशा है और इससे बेहतर और क्या हो सकता है! फिर भी कहानी या उपन्यास पहले पृष्ठ से आख़िरी पृष्ठ तक पढ़ने का धीरज उनमें नहीं होता।
हर सत्र के अंत में अफ़सोस रह जाता है कि इस बार भी अज्ञेय या मुक्तिबोध या प्रेमचंद के दो से ज़्यादा लेख पढ़ने के लिए प्रेरित नहीं कर सके। यह संघर्ष साल दर साल चलता ही रहता है।
मेरे एक शोधार्थी ने बताया कि अब पुस्तकालयों में विद्यार्थी वीडियो के ज़रिए उपन्यास तक समझ लेते हैं।फिर पढ़ने की ज़रूरत कहाँ? पुस्तकालय में किताब पढ़ने की जगह अब वीडियो देखे जाते हैं।नौकरियों की प्रतियोगिता परीक्षाओं ने और अब विश्वविद्यालयों द्वारा आयोजित प्रवेश परीक्षाओं ने भी रचनाओं को सूचनाओं के ढेर में बदल दिया है। वह संपूर्ण भाषा-अनुभव नहीं रह गए हैं।
पुस्तकालय का अर्थ भी अब बदल गया है। अगर कोई विदेशी भारत आए तो ख़ासकर ‘हिंदी’ इलाक़ों में ‘लाइब्रेरी’ के बोर्ड जगह-जगह लगे देखकर उसे भ्रम हो सकता है कि यहाँ पढ़ने की संस्कृति का विस्तार हो रहा है। लेकिन ये ‘लाइब्रेरियाँ’ प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी के लिए एक जगह भर हैं। यहाँ किताब की जगह कंप्यूटर और वाई-फ़ाई की सुविधा के लिए युवा आते हैं।
पढ़ने की आदत के छीजते जाने का असर हमारे जनतांत्रिक स्वभाव पर पड़ता है। अलग-अलग लेखकों को पढ़ते हुए हम सिर्फ़ उनकी बात नहीं पढ़ते बल्कि उनके भाषा के प्रयोग में उनका अपना अंदाज़ भी देखते हैं। बात, विचार या सूचना जितनी महत्त्वपूर्ण है, यह अंदाज़ या शैली उससे कम महत्त्वपूर्ण नहीं। हरेक लेखक का असली संघर्ष अपनी, नितांत अपनी भाषा को हासिल करने का संघर्ष होता है, किसी विचार को व्यक्त कर देने भर का नहीं। हरेक लेखक का व्यक्तित्व अलग होता है। मात्र राजनीति या विचारधारा के समर्थन के लिए हम किसी को नहीं पढ़ते। इसी वजह से किसी उपन्यास या किताब का सार-संक्षेप उस किताब की जगह नहीं ले सकता। यह बात स्कूल से ही सिखलाने और सीखने की है। एम ए तक आते आते आदतें पक्की हो जाती हैं।फ़िर अफ़सोस और खीझ के अलावा और कुछ नहीं बचता।
हिंदी के साथ एक और बात है जिसपर हम बात नहीं करते। वह यह कि ‘हिंदी’ इलाक़ों में हिंदी किसी की पहली भाषा नहीं है। वह भोजपुरी, अवधी, मैथिली के साथ साथ रहती है। इसलिए वह भी सीखने की भाषा है। हिंदी भाषियों की जनसंख्या बढ़ाने एक चक्कर में लोग अपनी मातृभाषा के खाने में हिंदी लिखवा देते हैं।हिंदी के शिक्षण पर इसका असर पड़ता है।
स्कूल में हिंदी- शिक्षण में ज़ोर शुद्धता पर रहता है, भाषा के सौंदर्य या विविधता पर नहीं। इस वजह से भी भाषा से विद्यार्थियों का रिश्ता स्नेह का नहीं रहता और वह उन्हें अपनी तरफ़ नहीं खींचती।
भाषा में सावधानी और साज-सँवार पर ध्यान देना कितना ज़रूरी है, यह बड़े लेखकों को पढ़कर जाना जा सकता है। किसी तरह कुछ कह भर देना, कामचलाऊ भाषा का इस्तेमाल, यह अब आम होता जा रहा है। हिंदी में अब बहुत कम लेखक बचे हैं जिन्हें आप उनकी भाषा के लिए पढ़ना चाहें।राजनीति या विचारधारा भले ही आपके अनुकूल हो, लिखा हुआ अगर आपके भाषा के अनुभव लोक में कुछ इज़ाफ़ा नहीं करता, फिर उसका मोल बहुत कम है।
लेकिन यह सब मैं लिख ही क्यों रहा हूँ? इसे कौन पढ़ेगा? और पढ़े ही क्यों?