पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले राज्य में 27 जुलाई से साल भर चलने वाला भाषा आंदोलन शुरू करने का एलान किया है। उनके मुताबिक, यह
बीजेपी शासित राज्यों में बांग्लाभाषी लोगों के उत्पीड़न के विरोध और इस भाषा के सम्मान की रक्षा के लिए ज़रूरी है। खुद ममता 28 जुलाई को रवींद्रनाथ टैगोर की कर्मभूमि बोलपुर से इस आंदोलन में शरीक होंगी। लेकिन भाजपा ने सवाल किया है कि आख़िर बांग्ला भाषा की रक्षा का ठेका ममता को किसने दिया है?
बंगाल के लिए भाषा आंदोलन का खास महत्व है। देश की आजादी के एक साल बाद साल 1948 में पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में बांग्ला भाषा को मान्यता दिलाने की मांग में भाषा आंदोलन शुरू हुआ था। तब पाकिस्तान ने उर्दू को एकमात्र आधिकारिक भाषा घोषित किया था। 21 फरवरी, 1952 को इस आंदोलन के दौरान पुलिस ने ढाका में प्रदर्शनकारी छात्रों पर गोलियां चलाईं, जिसमें कई छात्रों की मौत हो गई थी। इस आंदोलन की वजह से ही साल 1956 में बांग्ला को पाकिस्तान की आधिकारिक भाषाओं में से एक के रूप में मान्यता दी गई। इस आंदोलन को याद करने और शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए हर साल 21 फरवरी को बांग्लादेश में शहीद दिवस मनाया जाता है।
बांग्ला भाषी प्रवासी अत्याचार के शिकार?
अब
ममता ने दूसरे भाषा आंदोलन की बात कही है। बीती 21 जुलाई की सालाना शहीद रैली में ममता बनर्जी के भाषण को देखते हुए अब यह साफ़ है कि देश के विभिन्न राज्यों में बंगाल के प्रवासी मजदूरों का कथित उत्पीड़न ही अगले साल तृणमूल कांग्रेस का प्रमुख चुनावी मुद्दा होगा।
ममता का कहना है कि जिस बंगाल ने रवींद्रनाथ टैगोर, नजरूल इस्लाम, सुभाष चंद्र बोस और बंकिम चंद्र चटर्जी जैसी विभूतियों को जन्म दिया है उसकी भाषा का अपमान बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।
भाषा आंदोलन चुनावी रणनीति?
तृणमूल कांग्रेस के एक नेता बताते हैं कि लगातार 15 साल तक सत्ता में रहने के कारण यह तय है कि अगले चुनाव में पार्टी को सत्ता विरोधी लहर का सामना भी करना पड़ेगा। विपक्ष इसका फायदा उठाने की कोशिश कर सकता है। इसलिए पार्टी ने बांग्ला भाषा और बंगाल के प्रवासी मजदूरों के कथित अपमान को भाषा आंदोलन के जरिए बड़े पैमाने पर उठाने का फैसला किया है। इसके तहत राज्य के विभिन्न इलाकों में हर शनिवार व रविवार को रैलियां आयोजित की जाएंगी। चुनाव का नतीजा नहीं निकलने तक यह सिलसिला जारी रहेगा।
प्रवासी मजदूरों पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ 28 जुलाई को बोलपुर में होने वाली विरोध रैली में खुद ममता भी शामिल रहेंगी। ममता ने शहीद रैली में कहा था, वो अपनी जान देने के लिए तैयार हैं लेकिन भाषा का अपमान नहीं सहेंगी। हम सभी भाषाओं का सम्मान करते हैं। स्वाधीनता आंदोलन में बांग्लाभाषियों की बेहद अहम भूमिका रही है। दुनिया भर में 30 करोड़ लोग यह भाषा बोलते हैं। सांस्कृतिक पुनर्जागरण की शुरुआत भी बंगाल से ही हुई थी। मुख्यमंत्री ने इस लड़ाई को दिल्ली तक ले जाने की बात कही है।
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बांग्ला भाषा बचाने का ठेका ममता को किसने दिया: बीजेपी
दूसरी ओर, बीजेपी ने तृणमूल के प्रस्तावित भाषा आंदोलन पर सवाल उठाते हुए कहा है कि आखिर ममता को बांग्ला भाषा बचाने का ठेका किसने दिया है? विधानसभा में विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी का कहना है कि राष्ट्रपति पद के लिए प्रणब मुखर्जी का नाम सामने आने के बाद ममता ने ही सबसे पहले इसका विरोध किया था। वो जिस भाजपा को कोस रही हैं उसकी स्थापना एक बंगाली श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने ही की थी। उनको बांग्ला भाषा की रक्षा का ठेका किसने दिया है?
प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष शमीक भट्टाचार्य कहते हैं कि भारत कोई धर्मशाला नहीं है जो सीमा पार से आने वाला कोई भी व्यक्ति आराम से यहां रह सके। बंगाल इस घुसपैठ और फर्जी नागरिकता दस्तावेज तैयार करने वाला सबसे बड़ा केंद्र बन गया है।
भाजपा नेता फिलहाल ममता के इस आंदोलन की काट की रणनीति बनाने में जुटे हैं। पार्टी के एक नेता बताते हैं कि इसके लिए सीमा पार से घुसपैठ के मुद्दे पर ही जोर दिया जाएगा। पार्टी यह साबित करने की रणनीति पर आगे बढ़ेगी कि घुसपैठ बंगाल से मिले फर्जी नागरिकता दस्तावेजों के सहारे ही देश के विभिन्न राज्यों में खुद को बंगाल का प्रवासी मजदूर बताते हुए काम कर रहे हैं।
सीपीएम और कांग्रेस ने प्रवासी मजदूरों के मुद्दे पर इस चुनावी राजनीति के लिए भाजपा, तृणमूल कांग्रेस की आलोचना की है।
सीपीएम के प्रदेश सचिव मोहम्मद सलीम का कहना है कि ममता ने अगले चुनाव तक यह आंदोलन चलाने की बात कही है। तृणमूल व भाजपा महज वोट के लिए यह सब कर रही हैं। उनको आम लोगों की कोई चिंता नहीं है।
कांग्रेस की क्या रणनीति?
कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी का कहना है कि भाजपा शासित राज्यों में बांग्लादेशी होने के संदेह में बंगाल के प्रवासी मजदूरों का उत्पीड़न किया जा रहा है और ममता इन मजदूरों पर राजनीति कर रही हैं। जिन राज्यों में उत्पीड़न की घटनाएँ हो रही हैं वहाँ सरकारी अधिकारियों को भेजा जाना चाहिए। लेकिन इसकी बजाय तृणमूल कांग्रेस अपनी राजनीति चमकाने में जुटी है।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि
बांग्ला उप-राष्ट्रवाद का मुद्दा उठा कर ममता पहले भी विधानसभा और लोकसभा चुनाव में भाजपा का मुकाबला करने में कामयाब रही हैं। ऐसे में प्रवासी मजदूरों का मुद्दा और बांग्ला भाषा को बचाने के लिए आंदोलन का एलान भी उसी की कड़ी है। यह महज चुनावी रणनीति है।