आपको नोटबंदी के समय की वह ख़बर याद है जिसमें कहा गया था कि हर नोट पर एक नैनो चिप लगा रहेगा जो हमेशा उस नोट की निगरानी करता रहेगा? वह तो पुरानी बात है। लेकिन लोकसभा चुनाव के बीच सोशल मीडिया पर वायरल वह पोस्ट याद है जिसमें कहा गया था कि प्रियंका गाँधी ने दुबई में पाकिस्तान के सेना प्रमुख से मुलाक़ात की है और भारत पर आतंकवादी हमले की रूपरेखा तैयार की और उसके बाद ही पुलवामा हमला हो गया? या वह ख़बर याद है, जिसमें कहा गया
था कि राहुल गाँधी बीफ़ खाते हुए पकड़े गए? ये फ़ेक न्यूज़ थीं, पहले को मुख्यधारा के टेलीविज़न चैनल ने प्रमुखता से दिखाया था। दूसरे को एक राजनीतिक दल की साइबर सेना ने तैयार किया था और उसे उस पार्टी से सहानुभूति रखने वाले एक आदमी के अकाउंट से ट्वीट किया गया था। इस तरह की हज़ारों ख़बरें हैं जो सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा की मीडिया में चलती रहती हैं और लाखों लोगों तक पहुँचती रहती हैं। ये ख़बरें बेबुनियाद और बेसिरपैर होती हैं। इन्हें रोकना बेहद मुश्किल होता है।
मीडिया की आज़ादी
इस तरह की खबरों को रोकने के लिए भारत समेत ज़्यादातर देशों में कोई क़ानून नहीं है। अब ज़्यादातर देश क़ानून बना रहे हैं। लेकिन इससे एक नया और ज़्यादातर अहम सवाल खड़ा हो गया है और वह है मीडिया की आज़ादी का। क्या सरकारें इसका इस्तेमाल कर ऐसा क़ानून नहीं बनाएँगी जिसके बल पर वे अपने ख़िलाफ़ जाने वाली ख़बरों को रोक सकें? क्या सरकारें इस तरह के क़ानूनों का इस्तेमाल उन मीडिया घरानों और पत्रकारों का मुँह बंद करने के लिए नहीं करेंगी, जो उसकी आलोचना करते रहते हैं?
क्या ख़ुद मीडिया जगत में ऐसे पत्र-पत्रकार नहीं होंगे जो सरकार की चाटुकारिता में ही अपना हित देखेंगे और सरकार की आलोचना करने वालों पर अंकुश लगाने की हिमायत करेंगे?
जर्मनी, रूस, फ्रांस और मलेशिया के बाद अब सिंगापुर ने ऐसे क़ानून बना लिए हैं, जिसके बल पर वहाँ की सरकारें फ़ेक न्यूज़ फैलाने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई कर सकती हैं। लेकिन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और क़ानून विशेषज्ञों ने आशंका जताई है कि इससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ख़तरा है।
क्या हैं ख़तरे?
सिंगापुर के नियम सरकार को यह अधिकार देते हैं कि वह तय करे कि कौन ख़बर फ़ेक न्यूज है। वह सम्बन्धित अधिकारियों को किसी भी पोस्ट को ऑनलाइन प्लैटफ़ॉर्म से हटाने का आदेश भी दे सकती है। यही दिक्क़त मलेशिया और रूस में भी है। लेकिन वहाँ भी मानवाधिकार कार्यकर्ता इसका विरोध यह कह कर रहे हैं कि इससे अभिव्यक्ति की आज़ादी पर अंकुश लगेगा, सरकार की आलोचना नहीं की जा सकेगी। मलेशिया की पिछली सरकार ने जो क़ानून बनाया था, उसके तहत फ़ेक न्यूज़ पर 5 लाख रिंगित (मलेशियाई मुद्रा) का ज़ुर्माना लगाया जा सकता है। मौजूदा सरकार ने दबाव में आकर कहा है कि वह इसे वापस ले लेगी, पर अब तक उसने ऐसा किया नहीं है।
सज़ा का प्रावधान
इसी तरह रूस ने इसी साल अप्रैल में एक क़ानून बनाया, जिसके तहत राज्य का अपमान करने पर 15 दिन की जेल की सज़ा हो सकती है।
ये वे देश हैं, जहाँ लोकतंत्र की जड़ें अधिक मजबूत नहीं हैं। पर लोकतांत्रिक परंपराओं के लिए मशहूर जर्मनी जैसे देश में भी यह समस्या है। वहाँ की सरकार ने एक क़ानून पारित कराया जो 2018 के जनवरी में लागू कर दिया गया। सरकार को यह हक़ है कि वह किसी से कहे कि किसी भी फ़ेक न्यूज या किसी ऐसे पोस्ट को जिससे किसी के प्रति नफ़रत फैलती हो, फ़ेसबुक या ट्विटर से 24 घंटे के अंदर हटा दे। जो प्लैटफ़ॉर्म ऐसा नहीं करेंगे, उन पर 5 करोड़ यूरो तक का ज़ुर्माना लगाया जा सकता है।
ऑस्ट्रेलिया में भी यह डर बना हुआ है। इसी साल वहाँ हुए संसदीय चुनाव में तमाम राजनीतिक दलों ने सोशल मीडिया प्लैटफ़ॉर्म पर कई तरह की चीजें डालीं, जो फ़ेक न्यूज़ थीं। वहाँ की सरकार ने सोशल मीडिया से कहा है कि वे ज़िम्मेदारी से काम करें और इस तरह की सामग्री को ख़ुद हटा दें। संकेत साफ़ है कि उन्होंने ऐसा नहीं किया तो यह काम सरकार करेगी और इसके लिए ज़रूरी क़ानून बनाए जाएँगे।
पत्रकारों की पहल
अलग-अलग देशों में पत्रकारों और उनके संगठनों ने पहल की है ताकि वे ख़ुद इसकी निगरानी करें और सरकार को हस्तक्षेप करने का बहाना नहीं मिले। अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘रिपोर्टर्स विदआउट बोर्डर्स’ ने ‘जर्नलिज्म ट्रस्ट इनीशिएटिव’ की शुरुआत की है, जिसके तहत मीडिया घराने उससे एक सर्टिफिकेट हासिल कर सकते हैं। यह सर्टिफ़िकेट इसकी गारंटी देगा कि उनके ख़बरें भरोसेमंद होती हैं। भारत में
वॉट्सऐप फ़ेक न्यूज़ फैलाने का सबसे बड़ा अड्डा बन चुका है। दिन भर में लाखों-करोड़ों लोगों तक उल-जूलूल ख़बरें इस सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्म के जरिये फैलाई जा रही हैं। इसका पहला उदाहरण देखिए- 'मेरे पूर्वज मुसलमान थे और मैं भी मुसलिम हूँ - राहुल गाँधी।' दूसरा उदाहरण - 'कश्मीर पाकिस्तान को दे दिया जाना चाहिए - राहुल गाँधी।' तीसरी फ़ेक न्यूज़ देखिए - नेहरू के दादा का नाम गियासुद्दीन ग़ाज़ी था और चौथी यह कि ममता बनर्जी हिंदू नहीं मुसलमान हैं। कुछ ही दिन पहले एक महिला के वीडियो को विंग कमांडर अभिनंदन की पत्नी का वीडियो बताकर वायरल कर दिया गया।
नरेंद्र मोदी सरकार ने अलग-अलग समय पर पत्रकारों को आगाह किया है कि वे आत्मनियंत्रण करें। कई बार सरकार ने फ़ेक न्यूज़ को रोकने के लिए क़ानून बनाने की बातें भी कही हैं। यह अजीब स्थिति है कि जिस दल का साइबर सेल सबसे अधिक मजबूत है, जिसकी साइबर सेना फ़ेक न्यूज़ के लिए सबसे अधिक बदनाम है, वही क़ानून लाने की चेतावनी भी देता रहता है। वैसे भी भारत में गोदी मीडिया है और अधिकतर चैनल या अख़बार सरकार की चाटुकारिता में लगे रहते हैं। ऐसे में सरकार की धमकी से साफ़ है कि वह आलोचना की बची खुची संभावनाओं को भी ख़त्म कर देना चाहती है।