2024 में बिहार विधान सभा के चार उप चुनावों के दौरान राष्ट्रीय जनता दल यानी आरजेडी के नेता तेजस्वी यादव ने प्रशांत किशोर को ‘वोट कटवा’ कहा था। लगभग इसी तरह का आरोप बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू और बीजेपी भी लगा रही थी। चुनाव रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी की यह पहली चुनावी यात्रा थी। प्रशांत की पार्टी चारों उप चुनाव हार गयी लेकिन दो क्षेत्रों में उनके उम्मीदवारों को अच्छा खासा वोट मिला। इसे आरजेडी, महा गठबंधन की हार का कारण माना गया। अर्थात तेजस्वी मान सकते हैं कि प्रशांत अपनी पहली चुनावी यात्रा में आरजेडी गठबंधन के लिए वोट कटवा साबित हुए।
बीजेपी- एनडीए गठबंधन को इससे ख़ुश होना चाहिए। लेकिन प्रशांत की बढ़ती लोक स्वीकार्यता से सत्ता पक्ष भी चिंतित दिखाई दे रहा है। अक्टूबर- नवंबर के विधानसभा चुनावों में भी प्रशांत वोट कटवा ही बने रहेंगे या फिर जीत का वैसा ही सिलसिला शुरू कर देंगे जैसा 2013 के दिल्ली विधान सभा चुनावों में आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने शुरू किया और 2014 में अभूतपूर्व बहुमत के साथ दिल्ली सरकार पर कब्जा कर लिया।
प्रशांत किशोर के ताजा बयानों से जाहिर हो रहा है कि वो अति दलितों, अति पिछड़ों और महिलाओं को लुभाने के लिए एक नए समीकरण पर काम कर रहे हैं। यही वो समीकरण है जिसके बूते पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार लगातार चार बार चुनाव जीत कर करीब 20 वर्षों से मुख्यमंत्री बने हुए हैं। नीतीश कुमार अभी बीजेपी और एनडीए में शामिल अन्य पार्टियों से टिकट बंटवारे के फार्मूले पर उलझे हुए हैं।
उधर प्रशांत किशोर ने घोषणा कर दी है कि उनकी जन सुराज पार्टी अति पिछड़ों यानी ईबीसी जातियों से विधानसभा चुनाव में 75 उम्मीदवार उतारेगी। यही नहीं, उनका एलान है कि 40 महिलाओं को भी टिकट देंगे और 2030 में महिला उम्मीदवारों की सांख्य बढ़ा कर 70 से 80 कर देंगे। केंद्र सरकार ने 2029 के लोक सभा चुनावों से महिलाओं को 25 प्रतिशत आरक्षण देने का कानून पास कर दिया है। प्रशांत उससे भी दो कदम आगे चलने की कोशिश कर रहे हैं। जन सुराज पर नजर रखने वाले पत्रकारों का कहना है कि प्रशांत दलितों और अति दलितों को भी उनकी बढ़ी हुई आबादी के हिसाब से टिकट देने की तैयारी कर रहे हैं। चुनाव विशेषज्ञ मानते हैं कि प्रशांत की यह रणनीति एन डी ए खासकर जे डी यू के लिए सीधी चुनौती बन सकती है। 2005 के विधानसभा चुनावों में अति दलितों और अति पिछड़ों के बूते पर नीतीश ने लालू यादव की पार्टी आरजेडी के यादव- मुसलिम (एम वाई) समीकरण को हाशिए पर खिसका दिया था। बाद में कांग्रेस और वाम पंथी दलों को साथ लेने के बावजूद लालू अब तक नीतीश के शक्ति संतुलन की तोड़ नहीं ढूंढ़ पाए हैं।
नीतीश ने 2010 और 2015 के चुनावों में महिलाओं को भी अपनी तरफ़ खींच लिया। स्कूल जाने वाली लड़कियों को साइकिल और अन्य सुविधाएं देकर और शराबबंदी के ज़रिए नीतीश ने महिलाओं का एक अलग वोटर वर्ग खड़ा कर दिया था।
जिसकी जितनी संख्या उसको उतना टिकट
साठ के दशक में समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने “जिसकी जीतनी संख्या, उसका उतना हिस्सा“ का नारा दिया था। यह नारा सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्ग को आरक्षण के संदर्भ में था। पिछड़े वर्ग के लोग राजनीति में आरक्षण की मांग नहीं करते हैं। इसका एक मात्र कारण ये है कि संख्या के बल बूते पर पिछड़ी जातियों के लोग विधान सभा और लोक सभा पर काबिज होने लगे हैं।
1990 में बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में पिछड़ी शक्ति के उदय के बाद इसका ज़्यादा फ़ायदा यादव, कुर्मी और पटेल जैसी अपेक्षा कृत समृद्ध जातियों को मिला। अति पिछड़ी जातियां और महिलायें आबादी के हिसाब से राजनीति में अपना हिस्सा लेने में असफल रहीं। बिहार में उपेंद्र कुशवाहा ने अपनी और कुछ अन्य समकक्ष जातियों को लेकर आगे बढ़ने की कोशिश की। लेकिन उनका प्रभाव सीमित ही रहा। मल्लाहों को केंद्र में रखकर बनाई गयी वीआईपी पार्टी भी चुनावों में कोई करिश्मा नहीं कर पायी। पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने हिंदुस्तान अवाम पार्टी (हम) के ज़रिए अति दलितों को आगे करके राम बिलास पासवान/चिराग पासवान के समृद्ध दलित आधार को तोड़ने की कोशिश की लेकिन उन्हें भी कोई ख़ास सफलता नहीं मिली। कुशवाहा, पासवान और मांझी ने बीजेपी - एनडीए की शरण ले ली।
पिछले कुछ वर्षों में अति दलितों, अति पिछड़ों और महिलाओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षा बढ़ी है। उनके दबाव में केंद्र सरकार ने अगले साल जनगणना में जातियों की गणना को भी शामिल करने की घोषणा की है। वैसे बिहार सरकार जाति सर्वेक्षण कराकर सरकारी नौकरियों में पिछड़ों के लिए नौकरियों में आरक्षण बढ़ा चुकी है। लेकिन दलितों और आदिवासियों की तरह पिछड़ों को राजनीति में आरक्षण की कोई पहल अब तक नहीं हुई है। चुनाव रणनीति बनाने में माहिर प्रशांत किशोर की नजर अब इन मतदाताओं पर है। बेहतर शिक्षा व्यवस्था और रोजगार को अपने चुनाव का मुख्य एजेंडा बना कर प्रशांत युवा मतदाताओं का एक नया वोट बैंक बनाने की कोशिश में भी जुटे हैं। युवा मतदाता समूह के ज़रिए सवर्ण वर्ग में प्रवेश आसान हो सकता है। इन दिनों प्रशांत किशोर की सभाओं में स्वतः स्फूर्त भीड़ जुट रही है। उनका पाँच हज़ार गांवों में जाने और तीन हज़ार किलोमीटर की यात्रा करने का अभियान अभी भी जारी है।
उप चुनावों का सबक़
प्रशांत ने मुसलमानों का समर्थन पाने के लिए पहली राजनीतिक पहल बिहार विधान परिषद के चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार अफ़ाक़ अहमद को समर्थन देकर किया। अफ़ाक़ जीत गए और अब तक प्रशांत के साथ बने हुए हैं। पिछले साल विधानसभा के उप चुनाव में बेला गंज क्षेत्र से मो अमजद को उम्मीदवार बनाया। अमजद जीत तो नहीं पाए लेकिन उन्हें 17 हज़ार से ज़्यादा वोट मिले। इसके चलते महागठबंधन चुनाव हार गया और एनडीए की जीत आसान हो गयी। इससे इतना तो साफ़ दिखायी दे रहा है कि प्रशांत आरजेडी, महागठबंधन के लिए चुनौती बने हुए हैं। प्रशांत ने 40 मुसलमानों को भी टिकट देने का वादा किया है। मुस्लिम युवा वर्ग उससे प्रभावित लग रहा है। लेकिन मुसलमानों की पहली चिंता एनडीए -बीजेपी को हराना है, इसलिए मुसलमान मतदान से ठीक पहले फ़ैसला करेंगे और बीजेपी को हराने का दमख़म दिखाने वाले के साथ जा सकते हैं।
जन सुराज पार्टी ने विधान सभा उप चुनाव में इमाम गंज से जीतेंद्र पासवान को खड़ा किया। जीतेंद्र को 37 हज़ार से ज़्यादा वोट मिले। यहाँ भी एनडीए जीता और महागठबंधन को हार का मुँह देखना पड़ा। यहाँ प्रशांत की दलितों में पैठ दिखाई पड़ी जो चिराग पासवान के लिए चुनौती हो सकती है। जन सुराज पार्टी का पहला अध्यक्ष पूर्व आईएफएस अधिकारी मनोज भारती को बनाया गया जो दलित समाज से हैं। यह भी प्रशांत के चुनाव रणनीति का हिस्सा है। वैसे दो और उप चुनावों में जन सुराज का प्रदर्शन निराशाजनक था। पहले ये धारणा बन रही थी कि प्रशांत सिर्फ महा गठबंधन का वोट काटेंगे जिसके नतीजे के तौर पर बीजेपी - जेडीयू की जीत आसान हो जाएगी। लेकिन अब प्रशांत की रणनीति बदलती दिखायी दे रही है। अति पिछड़ों, अति दलितों और महिलाओं पर फोकस करने के कारण जेडीयू और नीतीश सीधे निशाने पर आ गए हैं।