इस समय देश में दो आख्यान चल रहे हैं। एक है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जो राष्ट्र की एकता और अखंडता का आख्यान है और जो भारत को फिर से महान बनाने का दावा करता है। दूसरा आख्यान है नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी का जो कह रहे हैं कि देश के संविधान में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय का जो संकल्प किया गया है वह सभी नागरिकों को मुहैया होना चाहिए। अगर सत्तापक्ष और प्रतिपक्ष में संवाद हो और जनता की समझदारी का स्तर ऊंचा हो तो इन दोनों को मिलाकर राष्ट्र और समाज का निर्माण किया जा सकता है जिसमें सभी को सुख और समृद्धि मिलने की गारंटी हो सकती है।
लेकिन इन दोनों आख्यानों के बीच संवाद टूट गया है और दोनों एक दूसरे को नीचा दिखाने पर आमादा हैं। एक ओर बिहार में चल रहे विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) का विरोध करते हुए इंडिया गठबंधन के नेता राहुल गांधी और तेजस्वी यादव ने वोट अधिकार यात्रा निकाल दी है और ‘वोट चोर गद्दी छोड़’ का नारा लगा रहे हैं तो दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के गृह मंत्री ने SIR को जायज ठहराते हुए एक ओर देश में बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठियों की व्यापक उपस्थिति का आरोप लगाते हुए कहा है कि वे लोग हमारी नौकरियां छीन रहे हैं और हमारी बहू बेटियों को गलत निगाह से देख रहे हैं। 

उनका यह भी आरोप है कि पहले की सरकारें तुष्टीकरण की नीति पर चलते हुए घुसपैठ को बढ़ावा देती रही हैं। इस बीच संसद के समाप्त हुए मानसून सत्र के आखिरी दिन नियम कानूनों में ढील लेकर गृह मंत्री ने 130 वें संविधान संशोधन का एक ऐसा विधेयक पेश कर दिया है जिसमें तीस दिन की गिरफ्तारी के बाद किसी मंत्री, मुख्यमंत्री और यहां तक कि प्रधानमंत्री का पद स्वतः छिन जाने का प्रस्ताव है। इस विधेयक ने सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच स्वस्थ संवाद की संभावना को और धूमिल कर दिया है।
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सरकार का कहना है कि मतदाता सूची का विशेष पुनरीक्षण पहले भी होता रहा है, वह 2003-04 में भी हुआ है तो फिर इस बार किए जाने पर आपत्ति क्या है। जाहिर है आपत्ति उस प्रक्रिया में अंतर्निहित तेजी और अपने ही नागरिकों को लोकतंत्र से बाहर किए जाने की आशंका से है। इस बीच जबसे नेता प्रतिपक्ष ने महाराष्ट्र विधानसभा, कर्नाटक में लोकसभा के चुनावों में विभिन्न क्षेत्रों में फर्जी मतदाता बना कर चुनाव जीतने का आरोप लगाया है तब से यह आरोप और भी गंभीर हो गया है कि सरकार के इशारे पर चुनाव आयोग पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों के वोट काटकर एनडीए को पहले बिहार फिर पश्चिम बंगाल का चुनाव जिता देना चाहता है। चुनाव आयोग की निष्पक्षता और निर्भीकता पिछले एक दशक से संदिग्ध रही है और इस बीच जिस तरह से मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त नेता प्रतिपक्ष पर बरस रहे हैं उससे और भी हो गई है।
इसीलिए अब लोग यह कहने लगे हैं कि लगता है चुनाव आयोग लंबे समय से पक्षपाती और गैरकानूनी  व्यवहार करता रहा है या फिर मौजूदा शासन से नाराज होती जनता की जगह पर पूरे देश में नई जनता चुन लेने की तैयारी कर रहा है। यानी वह पुरानी और लोकतांत्रिक जनता को भंग करके नई दूसरी जनता खड़ी करना चाहता है। एक प्रकार से हमारा लोकतंत्र शीर्षासन करने की तैयारी में है क्योंकि पहले जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनती थी और वे शासन करते थे। आज शासक और उसके मातहत काम करने वाली नौकरशाही नई जनता चुनने में लगी है। इस स्थिति के विरुद्ध देश की स्वयंसेवी नागरिक संगठन और विपक्षी दल एक ओर सुप्रीम कोर्ट में लड़ाई लड़ रहे हैं और दूसरी ओर नाराज जनता ने विपक्षी दलों के नेतृत्व में बिहार में सत्याग्रह शुरू कर दिया है।
ऐसी ही स्थिति के लिए जर्मन नाटककार और कनि बर्तोल्त ब्रेख्त की ‘समाधान’ शीर्षक की वह कविता याद आती है जो उन्होंने तब लिखी थी जब 1953 में पूर्वी जर्मनी में हुए प्रदर्शनों के विरुद्ध सरकार ने जनता पर सेना का प्रदर्शन किया थाः

17 जून के विद्रोह के बाद 

लेखक संघ के सचिव ने 

स्टैंलिनली में परचे बंटवाए

जिसमें कहा गया था।

लोग सरकार का भरोसा खो चुके हैं

और इसे दुबारा बस दोगुना काम करके 

हासिल कर सकते हैं।

ऐसी हालत में क्या यह ज्यादा

आसान नहीं होगा कि

सरकार जनता को भंग कर दे

और दूसरी जनता चुन ले।

जाहिर सी बात है कि केंद्र की मौजूदा सरकार के समर्थक जब कहते हैं कि देश में गृहयुद्ध चल रहा है या फिर देश में अराजकता फैल गई तो उन्हीं की ओर से यह प्रमाणित होता है कि लोग सरकार का भरोसा खो चुके हैं। आजादी के 78 साल बाद सरकार लोगों की नागरिकता निर्धारित करना चाहती है, वह बाढ़ में फंसे, नौकरियों के लिए परदेश गए देशवासियों को हैरान करके मतदाता सूची का कठोरतापूर्वक पुनरीक्षण करना चाहती है। और फिर कहती है कि आखिर इसमें बुरा क्या है। 
एक तरह से लगता है कि वह नई आज्ञाकारी जनता चुनना चाहती है। लगता है कि बांग्लादेशियों के नाम पर गुड़गांव और महाराष्ट्र में काम करने वाले पश्चिमी बंगाल के बांग्लाभाषी लोगों को प्रताड़ित करके और उन्हें वहां से भगाकर उसका मन नहीं भरा। अब वह पूरे देश में असम जैसा ही कुछ करना चाहती है। वरना क्या वजह है कि राष्ट्र की एकता अखंडता और नागरिक अधिकारों की रक्षा एक साथ क्यों नहीं हो सकती थी। जो कि संविधान का मूल उद्देश्य है और 2014 से पहले की सरकारें(आपातकाल को छोड़कर) ऐसा ही करती आई हैं।
जाहिर सी बात है यह तरीका किसी कल्याणकारी राज्य का तरीका नहीं है। यह तरीका तो दमनकारी राज्य का ही हो सकता है। ऐसी राज्य-व्यवस्था जिसे राष्ट्र के हितों की नागरिकों की पीड़ा और वंचना का अहसास न हो और जिसे अहसास हो अपने शासक की छवि का और पार्टी के विस्तार का।
हमारे समय के महत्त्वपूर्ण विचारक नंदकिशोर आचार्य अपनी सद्यः प्रकाशित पुस्तक—'भारतीय राज्यशास्त्र में शासक-प्रजा संबंध’—में तमाम उद्धरणों से प्रमाणित करते हैं कि प्राचीन भारत में अगर राजा प्रजा को कष्ट देने वाला होता है तो उसे हटाया जा सकता है। जाहिर सी बात है कि उस समय भले गौतम बुद्ध और महावीर का उदय हो चुका हो लेकिन सत्याग्रह का सिद्धांत विकसित नहीं हुआ था। इसलिए कई ग्रंथों में को राजा के निष्कासन या प्रजा के विद्रोह को समर्थन दिया गया है।
लेकिन बीसवीं सदी में भारत में विशेष तौर पर उभर कर आए महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धांत ने स्पष्ट किया है सच्चा स्वराज तभी आ सकता है जब जनता सत्ता का नियमन कर सके। “ सच्चा स्वराज मुट्ठी भर लोगों द्वारा सत्ता का दुरुपयोग करने की सूरत में उसका प्रतिरोध करने का जनता का सामर्थ्य विकसित करने से आएगा। दूसरे शब्दों में स्वराज जनता को सत्ता का नियमन तथा नियंत्रण करने की अपनी क्षमता का विकास करने की शिक्षा से आएगा।”
इसी तरह डॉ राम मनोहर लोहिया जब कहते हैं कि जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं तो वे एक ओर वोट के अधिकार को महत्त्व देते हैं तो दूसरी ओर सिविल नाफरमानी को जायज ठहराते हैं। वे कहते हैं, “ भूख या बड़े पैमाने की बर्खास्तगी आदि से पीड़ित जनता के लिए यह भी जरूरी नहीं है कि वह संसद पर निर्भर रहे और अगले चुनाव की प्रतीक्षा करे। 
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उसके पास बेशकीमती और बेजोड़ हथियार सिविल नाफरमानी का रहेगा, जब अन्याय और अत्याचार बर्दाश्त की सीमा से बाहर हो जाता है।...सत्याग्रह हथियार के रूप में तब तक रहेगा जब तक अन्याय और अत्याचार रहेगा और इसे रहना भी चाहिए क्योंकि यदि यह नहीं रहेगा तो गोली या बंदूक रहेगी। अन्याय और अत्याचार के मामले में, जब वे असह्य हो जाते हैं तो विकल्प गोली और सिविल नाफरमानी के बीच ही रहता है।”
स्पष्ट है कि इस समय देश एकता-अखंडता और सामाजिक राजनीतिक न्याय की खींचतान के बीच झूल रहा है। संविधान को मानें तो दोनों को साधा जा सकता है। राजनीतिक स्वार्थ और सत्ता संघर्ष को मानें तो टकराव तय है।