फ्रीबीज के संदर्भ में किसान-मजदूरों को लेकर की गई सुप्रीम कोर्ट के जज साहब की टिप्पणी कोई बहुत अच्छा संकेत नहीं दे रही है। वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह जज साहब की उस टिप्पणी पर एक जरूरी टिप्पणी कर रहे हैं। जानना जरूरी है।
यह तर्क औसत दर्जे के ग्रामीण अभिजात्य वर्गीय समाज में जमींदारी की मानसिकता में आम तौर पर दिए जाने वाले उस तर्क की तरह है जिसमें कहा जाता है “छोटे लोगों को मुंह न लगाओ, ये सिर पर चढ़ने लगते हैं” या “गरीबों के हाथ में ज्यादा पैसा दोगे तो उनका दिमाग खराब हो जाता है और वे काम करना छोड़ देते हैं”.
फ्रीबीज से ऐतराज का असली कारणः एक मशहूर किस्सा है. जंगल में जब शेर शिकार करता है तो सियार उसके साथ दौड़ता है. लालच यह होता है कि शेर जब शिकार से पेट भर लेगा तो बचे-खुचे से सियार का भी पेट भर जाएगा. एक बार एक हिरन के पीछे शेर झपटा. पीछे-पीछे सियार था. लम्बी दौड़ के बावजूद हिरन शेर को छका कर निकल गया.
व्यंग कसते हुए सियार ने शेर से कहा “हुजूर, आप तो जंगल के सबसे ताकतवर राजा हैं. ये कमबख्त पिद्दी से हिरन ने आपको कैसे हरा दिया?”. शेर ने सियार को हिकारत से देखते हुए कहा “अरे मूर्ख, इतना भी नहीं जनता कि दोनों के “स्टेक्स” में अंतर था. अगर मैं जीत जाता तो उसकी तो जान जाती लेकिन वह जीतता तो उसे जिन्दगी मिलती”. इसी का रिवर्स पहलू है “मरता, क्या न करता”.
शोषण की बुनियाद में ही है “स्टेक्स” में अंतर होना.
पूरी दुनिया में दरअसल श्रम का मूल्य तय करने में मालिक का वर्चस्व इसलिए होता है कि उसकी जरूरत पूंजी बढ़ाने की होती है जबकि मजदूर की पेट की आग बुझाने की. लिहाज़ा वह हर शोषण झेलता रहता है.
ताज्जुब यह है कि देश के देश के सर्वोच्च न्याय संस्था की कुर्सी पर बैठे जज भी इस तर्क-दोष के ट्रेप में आ गए.
फिर हल क्या हैः ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था में भी किसान को उत्पाद का सही मूल्य नहीं मिलेगा तो वह मजदूर को ज्यादा नहीं दे पायेगा. गेंहूं के मूल्य से महंगाई आती है लेकिन इसी से बने पिज्जा का रेट बढ़ना अभिजात्य वर्ग को नहीं सालता. लिहाज़ा यह सोचना फ्रीबीज न दे कर उन गरीबों को काम करने के लिए मजबूर कर समाज की “मुख्यधारा का हिस्सा” बनाना चाहिए और उन्हें “राष्ट्र के विकास में योगदान का मौका” देना चाहिए, दोषपूर्ण है.
सीजेआई भूल गए कि गलत आर्थिक नीतियों से लगातार बढती गरीब-अमीर की खाई में गरीब को “परजीवी” उसके आलस्य ने नहीं, उस सिस्टम ने बनाया है जिसमें, बकौल एम्स रिपोर्ट, 77 प्रतिशत नवजात (6-23 माह) को न्यूनतम अनुमन्य पोषक तत्व नहीं मिल पाते जिससे हर तीसरा बच्चा नाटा पैदा होता है.
डब्ल्यूएचओ का मानना है कि कुपोषित बच्चों की कोगनिटिव फैकल्टी आजन्म कमजोर रहती है लिहाज़ा वे दिमागी दौड़ में पीछे हो जाते हैं और केवल श्रम ही बेच सकते हैं.
(लेखक ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बीईए) पूर्व महासचिव हैं)