क्या भारत एक नये तरह के युद्ध की तरफ़ बढ़ रहा है जहाँ प्राचीन गौरव के नाम पर आम आदमी को संविधान के ज़रिए हासिल हुई बराबरी और आज़ादी को कमज़ोर करने की कोशिश हो रही है। क्या हिंदू राष्ट्र के बढ़ते शोर के पीछे मनुस्मृति को थोपने की मंशा है? क्या मनुस्मृति सचमुच आरएसएस और सावरकर के मुताबिक़ हिंदुओं का क़ानून है? अगर हाँ तो आरएसएस के बढ़ते क़दम क्या भारतीय संविधान को रौंद सकते हैं जिसे दुनिया की सबसे बड़ी सामाजिक क्रांति का आधार माना जाता है?

नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी बीते कुछ सालों से हाथ में संविधान की एक प्रति रखते हैं। वे लोगों का लगातार आह्वान करते हैं कि बीजेपी की सत्ता के पीछे खड़ा आरएसएस दरअसल, देश में मनुस्मृति लागू करना चाहता है। यह उस संविधान को नष्ट करने की तैयारी है जिसके लिए हमारे पुरखों ने सर्वस्व बलिदान किया था। हालाँकि मोदी सरकार तमाम आरोपों को ग़लत बताते हुए संविधान को सिर माथे लगाती रही है। 2015 से 26 नवंबर को संविधान दिवस भी मनाया जा रहा है लेकिन इसी बीच संविधान बदलने की बात भी तेज़ी से उठी है। 2024 के चुनाव में अबकी बार-चार सौ पार के नारे के पीछे संविधान बदलने की मंशा को खुलकर ज़ाहिर किया गया था। आख़िर समता, समानता और बंधुत्व पर आधारित संविधान को बदलने की इच्छा तो उन्हीं को होगी जो इन मूल्यों को स्वीकार नहीं करते।
तो क्या राहुल गांधी की यह बात सच है। इसकी परख करने के पहले जान लें कि यह मनुस्मृति है क्या और इसे हिंदुओं का क़ानून क्यों कहा जाता है?

प्राचीन भारतीय ग्रंथों को दो भागों में बाँटा गया है- श्रुति और स्मृति।
  • श्रुति = जो “सुना” गया (ईश्वर-प्रणीत, अपौरुषेय माना जाता है)। इस श्रेणी में वेद आते हैं।
  • स्मृति = जो “स्मरण” किया गया (ऋषियों द्वारा रचा गया, पौरुषेय)
स्मृतियाँ यानी धर्मशास्त्र अलग-अलग समय में रचे गये। सैकड़ों राज्यों में बँटे भारतीय उपमहाद्वीप में तुर्कों के आगमन से पहले अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग स्मृतियों के हिसाब से दंड विधान दिये जाते थे। हालाँकि वर्ण-व्यवस्था लगभग सभी जगह समान थी लेकिन दंडविधान में फ़र्क़ था। वैसे भी राजतंत्र में राजा की इच्छा ही सर्वोच्च होती है। लेकिन अंग्रेजों के आगमन के बाद मनुस्मृति अचानक सबसे महत्वपूर्ण हो गयी। इसके पीछे भारत के पहले अंग्रेज़ गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स का सोच था।

अंग्रेज़ों का कब्जा

1757 में प्लासी और 1764 में बक्सर की लड़ाई फतेह करने के बाद अंग्रेजों का एक बड़े भूभाग पर क़ब्ज़ा हो गया था। अब ऐसे क़ानून की ज़रूरत थी जिससे अदालतों में इस्तेमाल किया जा सके। मुस्लिम जनता के लिए तो शरिया थी लेकिन हिंदुओं के लिए किसी एक क़ानून का अभाव था। 1772 में हेस्टिंग्स ने हिन्दू सिविल कानून कोड बनाने का आदेश दिया। कलकत्ता से 11 ब्राह्मण पंडितों को बुलाया गया, जो विभिन्न शास्त्रों से सामग्री संकलित करने लगे।

इन ‘सम्मानित’ पंडितों ने विवादार्णवसेतु ग्रंथ तैयार किया जिसका पहले फ़ारसी और फिर अंग्रेज़ी में अनुवाद किया गया। पंडितों ने मनुस्मृति को सर्वोच्च और प्राचीनतम बताया। बनारस के पंडित जगन्नाथ तर्कपंचानन ने भी मनुस्मृति को सर्वोच्च माना। 

1830 में कलकत्ता की धर्मसभा ने मनुस्मृति के आधार पर हिंदू स्त्री के विवाह की उम्र दस से बारह साल करने का विरोध किया। बनारस हिंदू सभा ने भी कोर्ट में कहा कि मनुस्मृति ही हिंदुओं का क़ानून है।

ये साफ़ है कि धर्म की व्याख्या का अधिकार ब्राह्मणों को ही था और वे मनुस्मृति के पक्ष में यूँ ही नहीं थे। यह ब्राह्मणों की सर्वोच्चता, उनके दैवीय होने की घोषणा करती थी और स्त्रियों और शूद्रों को गुलाम बनाने रखने को धर्म बताती थी। हालाँकि गौतम धर्मसूत्र और याज्ञवल्क्य स्मृति भी थीं जो इतनी कठोर नहीं थीं लेकिन मनुस्मृति सबसे प्राचीन मानी जाती है।

ईसा पूर्व छठवीं शताब्दी में गौतम बुद्ध ने अप्प दीपों भव का उपदेश देकर और सृष्टि के रचनाकार के रूप में किसी ईश्वर के अस्तित्व से इंकार करके ब्राह्मण सर्वोच्चता के सिद्धांत पर कड़ा प्रहार किया था। बौद्ध संघ में सभी बराबर थे। कहते हैं कि दो-ढाई ईसा पूर्व मनुस्मृति की रचना हुई। चूँकि स्मृति थी तो यह संभव है कि काफ़ी समय तक इसमें जोड़ घटाव होता रहा हो और अंत में एक स्वरूप निर्धारित हुआ हो, लेकिन जो मिलता है, वह सभ्य समाज के लिए बिल्कुल भी मान्य नहीं हो सकता। इसमें जन्म के आधार पर मनुष्य को ऊँचा नीचा ही नहीं माना गया, स्त्रियों और शूद्रों के लिए अमानवीय दंड संहिता दी गयी है। मनुस्मृति में कुल 12 अध्याय हैं जिनमें 2684 श्लोक हैं। कुछ बानगी देखिये:

शूद्रः श्रुतिवचो गृह्णन् वेदं वा समुपश्रुणन्।

जिह्वाछेदोऽस्य कर्तव्यः कर्णयोश्चैव संनतिः ॥ 12.4.॥

अर्थात- अगर कोई शूद्र वेद के मन्त्र बोल दे या वेद सुन भी ले, तो उसकी जीभ काट दो और उसके कानों में पिघला हुआ सीसा (या लाख) डाल दो।”

पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने ।

रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ॥ 9.2 ।।


अर्थात—-लड़कपन में पिता, जवानी में पति, बुढ़ापे में बेटा रक्षा करे। स्त्री स्वतंत्र रहने लायक नहीं है।

वहीं मनुस्मृति ब्राह्मणों को अवध्य मानती है। उन्हें जघन्यतम अपराध के लिए भी कठोर सज़ा न देने का निर्देश देती है। मनुस्मृति में “वरिष्ठता के अनुसार दंड” (वर्ण-क्रमानुसार दण्ड) का सिद्धांत है। यानी एक ही अपराध के लिए: ब्राह्मण को सबसे हल्की या कोई सज़ा नहीं और शूद्र को उसी अपराध के लिए भयानक सज़ा निर्धारित की गयी है।

मनुस्मिृत क्या कहती है?

कुल मिलाकर मनुस्मृति मनुष्य और मनुष्य में भेद को दैवीय निर्देश की तरह प्रचारित करती है। वर्णव्यवस्था का कठोरता से पालन करने का निर्देश देती है। आमतौर पर इसे शासकों ने चुनौती नहीं दी क्योंकि ब्राह्मण उनके शासन को शास्त्रसम्मत और दैवीय आदेश की तरह जनता के बीच प्रचारित करते थे।

लेकिन 1857 के बाद स्थिति बदलने लगी। कहने को तो 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम असफल हुआ, लेकिन इसने ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन भी समाप्त कर दिया। भारत सीधे ब्रिटिश शासन के अधीन हुआ और इसलिए ब्रिटिश प्रजा को मिले तमाम अधिकारों पर भी भारतीयों का दावा बनने लगा। स्कूलों के दरवाज़े शूद्रों और स्त्रियों के लिए खुल गये जो एक बिल्कुल ही नयी बात थी।

उन्नीसवीं सदी की अंतिम चौथाई में ज्योति बा फुले जैसे समाज सुधारकों ने अंग्रेज़ी राज को शूद्रों के लिए वरदान बताया तो बीसवीं सदी की पहली चौथाई में डा.आंबेडकर ने यह सवाल उठाया कि हमें कैसी आज़ादी चाहिए। क्या अंग्रेज़ों से आज़ादी के बाद हम मनुस्मृति को स्थापित करेंगे?

25 दिसंबर 1927 को डॉ. आंबेडकर ने मनुस्मति को सार्वजनिक रूप से जलाकर यह स्पष्ट किया कि दलितों को राजनीतिक आज़ादी ही नहीं सामाजिक आज़ादी भी चाहिए। आज़ाद भारत में शूद्रों की क्या स्थिति होगी इसका निर्धारण आज़ादी के पहले होना चाहिए।

आंबेडकर की राय

कैबिनेट मिशन योजना के तहत संविधान सभा के सदस्य चुने गये जिसकी पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को हुई। डॉ. आंबेडकर इसकी प्रारूप समिति के अध्यक्ष चुने गये। संविधान सभा ने 2 साल 11 महीने और 18 दिन तक कुल 166 बैठकें करके एक ऐसा विधान तय किया जो पाँच हज़ार साल की रवायत को उलटने वाला साबित हुआ। पहली बार इस उपमहाद्वीप में सभी को समान नागरिक माना गया, जाति, धर्म, लिंग, क्षेत्र के भेद को न मानकर सबको समान अवसर देने का संकल्प लिया गया।यह मनुस्मृति पर वज्र प्रहार था। जिन्हें गुलाम बनाये रखने को दैवीय व्यवस्था बताया गया था वे देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बन सकते थे।

संविधान के साथ खड़ा हुआ भारत सर्वथा नवीन भारत था। इसमें मनुस्मृति के लिए जगह नहीं थी। न ब्राह्मणों की सर्वोच्चता बची और न ज़मींदारों, जागरीदारों, राजाओं, नवाबों के लिेए कोई जगह थी।

मनुस्मृति कहती है कि तुम जिस वर्ण में पैदा हुई, वही तुम्हारी नियति है। तुम्हारे जन्म के साथ तुम्हारा भविष्य तय होता है जबकि संविधान कहता है कि तुम इंसान हो, इतना काफ़ी है। संविधान ने अस्पृश्यता को अपराध घोषित किया, बिना किसी भेद के बालिग़ मताधिकार लागू किया। स्त्रियों को मुक्ति का मार्ग दिखाया। वे शिक्षा प्राप्त कर सकती हैं, जीवन साथी का चयन कर सकती हैं, तलाक़ भी ले सकती हैं, हर क्षेत्र में नौकरी कर सकती हैं और पिता की संपत्ति में बराबर की अधिकारी भी हैं, यह सब भारत के संविधान की वजह से संभव हुआ। लेकिन मनुस्मृति के समर्थकों ने अपनी लड़ाई जारी रखी हुई है और वे अदृश्य नहीं हैं। हिंदुत्व के आधार पर हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना करने वाले सावरकर ने मनुस्मृति को पूजनीय ग्रंथ माना है। सावरकर कहते हैं-

‘यही ग्रंथ सदियों से हमारे राष्ट्र की ऐहिक एवं पारलौकिक यात्रा का नियमन करता आया है। आज भी करोड़ों हिंदू जिन नियमों के अनुसार जीवन यापन तथा आचरण व्यवहार कर रहे हैं, वे नियम तत्वत: मनुस्मृति पर आधारित है। आज भी मनुस्मृति ही हिंदू नियम (हिंदू लॉ) है। वही मूल है।’
[सावरकर समग्र, खंड 4, पृ. 426]
वहीं आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर का भी यही विचार था। संविधान के आत्मार्पित होने के चार दिन बाद संघ के मुखपत्र आर्गेनाइज़र में जो संपादकीय लिखा गया, उसमें कहा गया था-

“हमारे संविधान में प्राचीन भारत के अद्वितीय संवैधानिक विकासों का कोई उल्लेख नहीं है। मनु के कानून स्पार्टा के लाइकुर्गस या पर्शिया के सोलोन से बहुत पहले लिखे गए थे। आज भी मनुस्मृति में वर्णित उनके कानून दुनिया की प्रशंसा का विषय हैं और स्वाभाविक आज्ञाकारिता प्राप्त करते हैं। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए इसका कोई महत्व नहीं है।"

(ऑर्गेनाइज़र, 30 नवंबर 1949, संपादकीय: "Outside Influence Inside India")

यानी आरएसएस पहले दिन से संविधान का विरोध कर रहा था और मनुस्मृति न लागू करने की तकलीफ़ थी उसे। वहीं संविधान स्वीकार होने के बाद दिसंबर 1949 में हिंदू महासभा का इंदौर में 23वाँ अखिल भारतीय अधिवेशन हुआ। इसमें श्यामा प्रसाद मुखर्जी मौजूद थे। अधिवेशन में हिंदू राष्ट्र बनाने की चर्चा हुई। इस अधिवेशन में पारित प्रस्ताव 12 में कहा गया-

“महार जाति का होने के कारण डॉ. आंबेडकर हिंदू राष्ट्र का संविधान लिखने के अयोग्य हैं।”

वैसे संविधान सभा में जो 15 महिलाएँ थीं उनमें केरल की दक्षयानी वेलायुधन भी एक थीं। वे केरल के त्रावणकोर इलाक़े के उसी दलित समाज से थीं जिनकी महिलाओं को कभी कमर के ऊपर वस्त्र पहनने के लिए स्तन टैक्स देना पड़ता था। समझा जा सकता है कि संविधान भारत में कितनी बड़ी क्रांति लेकर आया था।
बहरहाल, संविधान लागू होने के 75 साल बाद वे लोग सत्ता में हैं जिनके वैचारिक पुरखों ने अंग्रेज़ों का सथ दिया और संविधान का विरोध किया। वोट खोने के डर से वे खुलकर तो संविधान पर हमला नहीं बोल रहे हैं, लेकिन वह सब कुछ कर रहे हैं जिससे संविधान से आम जनता को प्राप्त अधिकार और शक्ति क्षीण हो जाये।

प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले दिनों औपनिवेशिक मानसिकता के अंत की बात की, प्राचीन गौरव की पुनर्स्थापना की बात की। यह भाषा प्रकारांतर में वही है जो गोलवलकर और सावरकर बोला करते थे। यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत के प्रचीन इतिहास का कोई काल ऐसा नहीं था जब शूद्रों और स्त्रियों को मनुष्य होने की गरिमा दी गयी हो। अपवाद हो सकते हैं, नियम तो यही था। क्या यह संयोग है कि मोदी राज में सार्वजनिक उपक्रमों को ख़त्म करके आरक्षण को बेमानी बना दिया गया है जिसने करोड़ों की संख्या में दलितों को मध्यवर्ग में शामिल किया है। दलितों के लिए मुफ़्त शिक्षा और वज़ीफ़ा को सैद्धांतिक रूप से नष्ट करके उनके सपनों को तोड़ा गया है। यही नहीं, पाँच किलो अनाज तक सीमित करके सबसे ग़रीब लोगों की आँखों को सपने देखने लायक़ नहीं छोड़ा गया है।

वहीं एंटी रोमियो स्क्वायड या लव जेहाद के नाम पर जीवन साथी के चयन के अधिकार का इस्तेमाल कर रही लड़कियों के साथ अपराधी जैसा सुलूक होते हम अक्सर देखते हैं। उधर, जनता बिना किसी बाधा के वोट के अधिकार का प्रयोग न करे, इसलिए अब वोटर बनने की राह में एसआईआर जैसी भूलभुलैया तैयार कर दी गयी है। इस परीक्षा से पास करके ही कोई मतदान केंद्र तक पहुँच पायेगा। यानी पहले जनता सरकार चुनती थी, अब सरकार चुनने वाली जनता चुनने लगी है।

यह संविधान को नष्ट करके मनुस्मृति के भूत को ताक़त देना नहीं है तो क्या है? इस भूत की वजह से भारत में कोई महाभारत हो जाये तो आश्चर्य नहीं।