ऐसा लग रहा है कि राहुल गाँधी की बढ़ती लोकप्रियता से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बेचैन हो चुके हैं। बिहार की तरह संसद में ‘वोट-चोर, गद्दी छोड़’ नारे का गूँजना बताता है कि उनकी साख बुरी तरह गिरी है। हाल में आये कुछ सर्वे के नतीजे भी बताते हैं कि बिहार में साठ फ़ीसदी से ज़्यादा लोग राहुल गाँधी के इस आरोप से सहमत हैं कि मोदी सरकार के इशारे पर आयोग वोट चोरी कर रहा है। जबकि ये सर्वे बिहार में भीड़ बटोर रही राहुल की 'वोट अधिकार यात्रा’ शुरू होने से पहले किया गया था। 

मोदी का तंज़

21 अगस्त 2025 को, संसद के मॉनसून सत्र के समापन पर लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने चाय पार्टी दी। पिछली बार इस पार्टी में नेता प्रतिपक्ष बतौर राहुल गाँधी ने हिस्सा लिया था, लेकिन इस बार पूरा विपक्ष ही नदारद था। फिर भी पीएम मोदी राहुल पर तंज़ करने से बाज़ नहीं आये। पीएम मोदी ने कहा, “कांग्रेस में कई प्रतिभाशाली और युवा सांसद हैं, लेकिन नेतृत्व की असुरक्षा के कारण उन्हें बोलने का मौका नहीं मिलता।”
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गांधी परिवार पर निशाना

यह बयान स्पष्ट रूप से राहुल गांधी और गांधी परिवार पर निशाना था। इशारा शशि थरूर और मनीष तिवारी जैसे नेताओं की ओर था, जिन्हें सरकार ने ऑपरेशन सिंदूर के प्रचार के लिए विदेश भेजा था, लेकिन संसद में बहस के दौरान राहुल गांधी ने बाजी मार ली। शशि थरूर और मनीष तिवारी बोलने वालों की लिस्ट में नहीं थे। ये इसलिए भी संभव नहीं था कि विदेश जाकर सरकार के पक्ष में बात करने वाले ये नेता संसद में पार्टी की लाइन को देखते हुए ऑपरेशन पर सवाल उठाते।

लेकिन ऐसा नहीं है कि इन्हें बोलने से रोका जाता है। एक दिन पहले ही संविधान और कानून में संशोधन के उन विधेयकों पर सवाल उठाए थे, जो बिना दोष सिद्ध हुए किसी मंत्री को 30 दिन जेल में रहने पर अयोग्य ठहराते हैं। तिवारी ने कहा, “ये विधेयक संविधान के मूल स्वरूप के खिलाफ हैं। आप किसी जांच अधिकारी को हमारे प्रधानमंत्री का बॉस नहीं बना सकते।” यह बयान सरकार को असहज करने वाला था। 

ज़ाहिर है, मोदी का बयान एक सोची-समझी रणनीति के तहत दिया गया है। वे चाहते हैं कि कांग्रेस के कुछ नेता राहुल गांधी से बग़ावत करें जो लगातार बढ़त पर हैं। सक्षम नेताओं को न बोलने देने का सवाल उठाकर मोदी एक बार फिर कांग्रेस को “वंशवादी” पार्टी के रूप में पेश करना चाहते हैं। 

सवाल यह है कि क्या मोदी बीजेपी के टैलंट का इस्तेमाल करते हैं या करने देते हैं। उन्होंने राहुल पर एक उँगली उठाई है लेकिन कई उँगलियाँ उन पर भी उठ गयी हैं।

मार्गदर्शक मंडल से नेपथ्य तक

2014 में बीजेपी ने सत्ता हासिल करने के बाद मार्गदर्शक मंडल बनाया। जिसमें आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे नेताओं को बैठा दिया गया। यह एक तरह से उन नेताओं से छुटकारा पाने की कोशिश थी जिनका कभी मोदी नारा लगाते थे। लालकृष्ण आडवाणी तो रथ यात्रा के ज़रिए बीजेपी को राष्ट्रीय पहचान दिलाने वाले दिग्गज हैं। वे वाजपेयी के दौर में उप प्रधानमंत्री रह चुके हैं लेकिन 2014 मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद वे किनारे कर दिये गये। 2019 में तो उन्हें लोकसभा का टिकट भी नहीं दिया गया। न ही राज्यसभा में भेजा गया। चर्चा थी कि उन्हें राष्ट्रपति बनाया जाएगा, लेकिन मौक़ा आने पर इसकी चर्चा तक नहीं हुई। ऐसा ही व्यवहार पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष मुरझनी मनोहर जोशी के साथ भी हुआ। कभी नारा गूँजता था कि ‘भारत माँ के तीन धरोहर, अटल आडवाणी, मुरली मनोहर,’ लेकिन मोदी राज में इस धरोहर को कहाँ धर कर भुला दिया गया, कोई नहीं जानता। ऐसा ही हाल शांता कुमार का हुआ जो बीजेपी के क़द्दावर नेता और हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हैं।

बीजेपी के ‘सक्षम’ युवा नेताओं का हाल

दरकिनार किये गये नेताओं में सक्षम युवा भी हैं जिन्हें पीएम मोदी न बोलने देने का तंज़ राहुल गाँधी पर किया है। लेकिन यह तो सबसे ज़्यादा ख़ुद मोदी जी पर लागू होता है। सक्षम युवा नेताओं की एक लंबी लिस्ट है जिन्हें मोदी जी ने घर बैठा दिया।
 
हरेन पांड्या: गुजरात के पूर्व गृह मंत्री और बीजेपी के युवा चेहरे थे।। 2001 में जब नरेंद्र मोदी गुजरात के सीएम बने, तो पांड्या ने अपनी विधायकी छोड़ने से इनकार कर दिया। उन्होंने 2002 के गुजरात दंगों के बाद मोदी की कार्यशैली की आलोचना की और कहा कि मोदी अपने निजी स्वार्थों के लिए बीजेपी और आरएसएस को नुकसान पहुंचा रहे हैं। 26 मार्च 2003 को उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई। सीबीआई ने इसे दंगों का बदला बताया, लेकिन पांड्या के पिता विट्ठलभाई और पत्नी जागृति ने मोदी पर हत्या का आरोप लगाया। सुप्रीम कोर्ट में उनकी याचिका सबूतों के अभाव में खारिज हो गई। यह मामला आज भी विवादास्पद है।
विश्लेषण से और
संजय जोशी: आरएसएस प्रचारक और गुजरात में बीजेपी के संगठन को मजबूत करने वाले नेता। 2001 में मोदी के सीएम बनने के बाद जोशी को हटाने की कोशिशें शुरू हुईं। 2005 में एक फर्जी सीडी के जरिए उन्हें बदनाम किया गया, जिसने उनके करियर को खत्म कर दिया। 2012 में जोशी को थोड़े समय के लिए संगठन में वापस लिया गया, लेकिन मोदी के दबाव में उन्हें फिर हटा दिया गया। आज वे बीजेपी में कोई बड़ी भूमिका में नहीं हैं।

राजीव प्रताप रूडी: बिहार के सांसद, जिन्होंने 1999 में लालू यादव को हराकर सनसनी मचा दी थी। वाजपेयी सरकार में वाणिज्य और नागरिक उड्डयन मंत्री रहे। मोदी सरकार में कौशल विकास मंत्री थे, लेकिन 2017 में मंत्रिमंडल से हटाए गए। हाल ही में, दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन क्लब के सचिव प्रशासन के चुनाव में बीजेपी ने उनके खिलाफ संजीव बालियान को उतारा, जिन्हें अमित शाह का समर्थन था।
मुख्तार अब्बास नकवी: मोदी सरकार में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री रहे, लेकिन 2022 में मंत्रिमंडल से हटाए गए और अब सांसद भी नहीं हैं।
शाहनवाज हुसैन: वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे। उन्होंने 2002 के दंगों को बीजेपी की हार की वजह बताया था, जिसके बाद उन्हें मोदी सरकार में कोई बड़ी भूमिका नहीं मिली। 2021 में बिहार विधान परिषद के जरिए नीतीश सरकार में शामिल किया गया, लेकिन अब उनका कार्यकाल खत्म हो चुका है।

मोदी सरकार में एक भी अल्पसंख्यक समुदाय का मंत्रिमंडल नहीं है। यह अभूतपूर्व स्थिति है लेकिन शाहनवाज़ या मुख़्तार अब्बास नक़वी का बनवास ख़त्म नहीं हुआ।

बीजेपी में प्रचार से लेकर नीति-निर्माण तक, सिर्फ नरेंद्र मोदी का चेहरा नजर आता है। राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी जैसे दिग्गज, जो कभी राष्ट्रीय अध्यक्ष थे, अब कम बोलते हैं। राजनाथ सिंह रक्षा मंत्री हैं, लेकिन रक्षा सौदों में भी मोदी की चर्चा होती है। गडकरी की सड़क निर्माण में साख है, लेकिन उनकी नाराजगी की खबरें आती रहती हैं। वाजपेयी युग में नेताओं को अपनी राय रखने की आजादी थी, लेकिन मोदी राज में पार्टी के भीतर लोकतंत्र पर ताला लग गया है। इसका उदाहरण है कि जे.पी. नड्डा का कार्यकाल खत्म होने के बाद भी नया अध्यक्ष नहीं चुना गया, क्योंकि आरएसएस और मोदी की पसंद में टकराव है।
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कांग्रेस में G-23 वाले भी सांसद

2020 में कांग्रेस के 23 वरिष्ठ नेताओं ने सोनिया गांधी को पत्र लिखकर संगठनात्मक सुधार और आंतरिक लोकतंत्र की मांग की। इस समूह को G-23 कहा गया। माना गया कि ये गाँधी परिवार के ख़िलाफ़ हैं लेकिन पार्टी ने इन्हें टिकट दिया और ये सांसद हैं।
  • शशि थरूर: तिरुवनंतपुरम से सांसद। 2022 में मल्लिकार्जुन खड़गे के खिलाफ AICC अध्यक्ष का चुनाव लड़ा, फिर भी 2024 में टिकट मिला और वे सांसद बने। 
  • मनीष तिवारी: चंडीगढ़ से सांसद। G-23 में शामिल थे और 2024 में फिर से जीते। संसद में उनकी आक्रामकता ने सरकार को असहज किया। 
  • मुकुल वासनिक: CWC सदस्य और राजस्थान से राज्यसभा सांसद। G-23 में थे, लेकिन अब भी पार्टी के महासचिव के रूप में सक्रिय हैं।  
शशि  थरूर का खड़गे के खिलाफ चुनाव लड़ना और फिर टिकट पाना यह दिखाता है कि कांग्रेस में गांधी परिवार के खिलाफ बोलने की कुछ गुंजाइश है। लेकिन क्या ऐसी गुंजाइश की कल्पना बीजेपी में की जा सकती है? इसलिए राहुल गाँधी पर तंज़ करने के पहले मोदी को अपने गिरेबान में झाँकना चाहिए। वरना यह ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ का मामला बनकर रह जायेगा।