चुनाव आयोग (ECI) की अंतिम मतदाता सूची की विश्वसनीयता पर सवाल उठ रहे हैं। नए मतदाताओं की संख्या में गड़बड़ी और नामों की बड़ी मात्रा में कटौती पर पारदर्शिता की कमी की बात सामने आ रही है। राज्य में करीब 68.5 लाख नामों की कटौती हाशिए पर मौजूद समुदायों का बड़े पैमाने पर मताधिकार छीनने की कोशिश बताई जा रही है।
सूची का विश्लेषण बता रहा है कि नेपाल और बांग्लादेश से सटे कई जिलों में मतदाताओं संख्या बेहद कम हो गई है। सबसे अधिक कमी मधुबनी में दर्ज की गई, जहां 266,900 नाम हटाए गए, इसके बाद पूर्णिया में 190,858 और सीतामढ़ी में 177,474 नाम हटाए गए। अन्य उल्लेखनीय जिलों में सुपौल (103,675), किशनगंज (104,488) और पूर्वी चंपारण (7,834) हैं। ये सभी जिले मुस्लिम बहुल हैं। इन इलाकों को लेकर बीजेपी और उसके सहयोगी दल घुसपैठियों की मौजूदगी का आरोप लगाते रहे हैं। ड्राफ्ट मतदाता सूची में भी इन्हीं जिलों के मतदाताओं के नाम विभिन्न आधार पर साफ हो गए थे। 
सीमावर्ती क्षेत्रों में मतदाता संख्या में इस तेज गिरावट ने राजनीतिक बहस को फिर से शुरू कर दिया है, जिसमें यह अनुमान लगाया जा रहा है कि क्या ये हटाए गए नाम पहले किए गए “घुसपैठियों” को मतदाता सूची में शामिल करने के दावों से संबंधित हैं। जहां बीजेपी इस मुद्दे को लगातार उठा रही है, वहीं कांग्रेस सहित विपक्षी दलों ने निर्वाचन आयोग की प्रक्रिया पर असंतोष जताया है। 
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एक्टिविस्ट और चुनाव विश्लेषक योगेंद्र यादव ने फाइनल मतदाता सूची को लेकर तमाम सवाल उठाए हैं। योगेंद्र यादव ने एक्स पर लिखा- “चुनाव आयोग के अनुसार 1 सितंबर तक 16.93 लाख फॉर्म-6 आवेदन नए मतदाताओं के लिए प्राप्त हुए थे। इस तिथि के बाद के आवेदन अंतिम सूची में शामिल नहीं होने थे। लेकिन डेटा बताता है कि 21.53 लाख नए मतदाता जुड़ गए। आखिर 1 सितंबर के बाद कम से कम 4.6 लाख नाम कैसे जोड़े गए?”
उन्होंने मतदाताओं की कटौती की अस्पष्टता पर भी सवाल उठाए। यादव ने कहा, “चुनाव आयोग के मुताबिक ड्राफ्ट सूची से 3.66 लाख नाम हटाए गए, लेकिन इसकी कोई विस्तृत जानकारी नहीं दी गई। कितने नाम दस्तावेजों की कमी के कारण हटाए गए और कितने आपत्तियों के आधार पर, यह अब तक स्पष्ट नहीं है।”

योगेंद्र यादव के मुताबिक मंगलवार को जारी आयोग की अंतिम सूची में 7.42 करोड़ पंजीकृत मतदाता दर्ज किए गए, जबकि जून में यह संख्या 7.89 करोड़ थी। यानी तीन महीने लंबी स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न (SIR) के बाद मतदाताओं की संख्या में 6% की गिरावट आई।

पत्रकार पूनम अग्रवाल ने भी पूछे सवाल

खोजी पत्रकार और चुनाव विश्लेषक पूनम अग्रवाल ने फाइनल मतदाता सूची आने के बाद कई सवाल किए। पूनम ने एक्स पर लिखा- Bihar SIR पर प्रेस विज्ञप्ति उचित ब्यौरे के बिना बेमानी है और इसके बजाय और भी सवाल खड़े करती है। एक बात तो साफ़ है: इस प्रक्रिया में कुल 47 लाख मतदाताओं के नाम हटाए गए हैं (7.89 करोड़ - 7.42 करोड़), जो एक बहुत बड़ी संख्या है। लेकिन इस बारे में कोई स्पष्टता नहीं है। उनके सवाल हैंः

  • कितने नए मतदाता जोड़े गए? 
  • हटाए गए 65 लाख मतदाताओं में से कितने दोबारा जोड़े गए? 
  • ड्राफ्ट रोल में पहले से शामिल 3.66 लाख मतदाताओं को क्यों हटाया गया? 
पूनम अग्रवाल ने लिखा है कि चुनाव आयोग को ये विवरण उपलब्ध कराने चाहिए।

‘हाशिए पर पड़े समुदायों को सबसे ज्यादा नुकसान’ 

आलोचकों का आरोप है कि जल्दबाज़ी में की गई इस प्रक्रिया ने लाखों वास्तविक मतदाताओं को बाहर कर दिया, खासकर प्रवासी मजदूरों को। बिहार की आबादी का 20% से 50% हिस्सा प्रवासी है, जो राज्य से बाहर काम करते हुए फार्म जमा नहीं कर पाए। हालांकि चुनाव आयोग का दावा है कि हटाए गए 98% मतदाता दोबारा पंजीकृत हो गए, लेकिन अब भी लाखों लोग सूची से बाहर रहने के खतरे में हैं। मतदाता सूची आने से पहले मुस्लिम-बहुल इलाकों से आए आंकड़ों ने चिंता बढ़ा दी थी। उदाहरण के लिए, पूर्वी चंपारण की ढाका विधानसभा सीट में अकेले करीब 80,000 मुस्लिम मतदाताओं के नाम काटे जाने का दावा किया गया था। अभी भी हर जिले के आंकड़े नहीं आए हैं लेकिन जैसे-जैसे आंकड़े आते जाएंगे, यह तस्वीर और साफ होती जाएगी।
बिहार के प्रमुख राजनीतिक दल आरजेडी, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष राजेश कुमार पहले ही फाइनल मतदाता सूची की खामियां गिना चुके हैं।आरजेडी के प्रदेश प्रवक्ता शक्ति सिंह यादव ने आरोप लगाया, "हमारे जबरदस्त प्रयासों के बावजूद, गरीबों, दलितों, अति पिछड़े और अन्य पिछड़े वर्गों के नाम सूची में शामिल नहीं किए गए। हमने देखा कि हर विधानसभा क्षेत्र में कम से कम 10,000 नाम हटाए गए हैं, जो लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है।" शक्ति सिंह यादव ने कहा कि फॉर्म-6 जमा करने वाले लोगों के नाम भी नहीं जोड़े गए। उन्होंने एसआईआर प्रक्रिया को "बड़ा धोखा" करार दिया। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष राजेश कुमार ने कहा, "एसआईआर शुरू से ही एक दिखावा रही है। जबकि वास्तव में इसकी निष्पक्षता और पारदर्शिता सवालों के घेरे में है।" उन्होंने कहा कि मतदाता सूची से 68 लाख से ज़्यादा मतदाताओं के नाम हटा दिए गए, जबकि केवल 21.53 लाख नए मतदाता ही जोड़े गए। 
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अचानक शुरू हुई थी बिहार में एसआईआर प्रक्रिया 

जून में अचानक घोषित इस SIR की समयसीमा को बिहार की विविधता और बड़ी प्रवासी आबादी को देखते हुए अव्यावहारिक बताया गया था। घर-घर सत्यापन अभियान के दौरान बड़ी संख्या में परिवार छूट गए। वहीं कड़ी दस्तावेजी शर्तों के कारण गरीब और हाशिए के समुदायों के कई लोग सूची से बाहर हो गए। स्थिति यह है कि 2001 से 2005 के बीच जन्मे सिर्फ 2.8% बिहार के युवाओं के पास ही जन्म प्रमाणपत्र है, जिससे समस्या और गंभीर हो गई है।