बिहार की सियासत का मैदान हमेशा से ही नाटकीय रहा है, लेकिन इस बार का ड्रामा तो बॉलीवुड फिल्मों को भी मात दे गया। जन सुराज पार्टी के संस्थापक प्रशांत किशोर, जिन्हें कुछ लोग 'चुनाव का चाणक्य' कहते हैं, अब हंसी का पात्र हो गये हैं। चले थे तेजस्वी को राघोपुर छुड़ाने। जैसे स्मृति ने राहुल को अमेठी छोड़वाया था, ऐसा कहकर। और, खुद स्मृति ईरानी जैसी ‘दिलेरी’ दिखाने से भी पीछे रह गये। क्या इतना था हार का डर कि अब प्रशांत किशोर ने चुनाव तक लड़ने से मना कर दिया है?

11 अक्टूबर की ही तो बात है। प्रशांत किशोर ने ठहाका लगाते हुए कहा था, ‘राहुल गांधी का जो हश्र हुआ, वही तेजस्वी यादव का होगा।’ इशारा साफ था– अमेठी से राहुल की हार, वायनाड का सफर और फिर रायबरेली की वापसी। कहने का मतलब यही था कि तेजस्वी को भी अपना गढ़ राघोपुर छोड़कर कहीं भागना पड़ेगा। लेकिन हाय री किस्मत! राघोपुर जाकर प्रशांत को खुद ही लग गया कि यहां उनकी 'दाल' नहीं गलेगी। नतीजा? मैदान छोड़ दिया, चुनाव लड़ने का इरादा ठंडा कर दिया। स्मृति ईरानी की तरह 'अपने दुश्मन को हराने वाली/वाला' बनने का सपना भी चूर-चूर!
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प्रशांत ने तेजस्वी यादव को ललकारा था, अब खुद पीठ दिखाकर निकल लिए। उन्होंने सीधा चैलेंज दिया था– ‘हिम्मत है तो राघोपुर से ही लड़ो, वरना राहुल की तरह भागना पड़ेगा।’ तभी सूत्रों के हवाले से मीडिया में ख़बर चली कि तेजस्वी दो जगहों से चुनाव लड़ेंगे। मधुबनी के फुलपरास को वे दूसरी विधानसभा बनाने जा रहे हैं, ऐसी ख़बर चलने लगी। प्रशांत किशोर ने मानो इस ख़बर को लपक लिया। उन्होंने कहा, ‘अगर तेजस्वी दूसरी सीट चुनेंगे, तो राघोपुर में उनकी हार पक्की है, ठीक वैसे ही जैसे राहुल को अमेठी छोड़ कर जाना पड़ा था।’

चुनाव नहीं लड़ेंगे ‘पीके’

प्रशांत किशोर का बयान बिहार ही नहीं देश की राजनीति में धमाल मचाने लगा था। ‘राहुल जैसा हश्र’ कहकर तेजस्वी के बहाने पूरे इंडिया गठबंधन पर हमला किया जाने लगा। सोशल मीडिया पर मीम्स की बाढ़ आ गई। और, एनडीए-महागठबंधन के बीच बहस छिड़ गई। प्रशांत किशोर ने यहां तक कहा कि वे खुद राघोपुर से उतरेंगे, जनता की राय लेंगे, और तेजस्वी को सबक सिखाएंगे। कइयों को लगने लगा था कि बिहार का 'अमेठी मोमेंट' आने वाला है। लेकिन, प्रशांत किशोर को पलटने में दो दिन भी नहीं लगे। चौथे दिन तो उन्होंने घोषणा कर दी कि वे चुनाव ही नहीं लड़ने वाले हैं।

प्रशांत किशोर की तुलना अरविन्द केजरीवाल से भी होने लगी थी कि वे उनकी ही तरह ‘जायंट किलर’ बनेंगे। मगर, केजरीवाल ने इनकंबेंट सीएम शीला दीक्षित (अब दिवंगत) के खिलाफ चुनाव मैदान में कमर कसी थी और जीत हासिल की थी। प्रशांत किशोर ने तो अपने लिए प्रतिद्वंद्वी भी नेता प्रतिपक्ष को चुना।

राघोपुर में कैसा माहौल?

‘रणछोड़’ तो तभी हो गये थे प्रशांत क्योंकि उन्होंने सत्ताधारी डबल इंजनधारी गठबंधन एनडीए नेता को चुनौती देने को प्राथमिकता नहीं दी। जनता यह रोचक संघर्ष भी देखती। हालाँकि रोचक यह देखना होता कि प्रशांत किशोर तीसरे नंबर पर होते कि चौथे नंबर पर या फिर जमानत बचती या नहीं बचती। तेजस्वी की जीत में न तब संदेह था न अब संदेह है। ऐसा हर कोई दावा कर सकता है जिसने जमीन पर जाकर राघोपुर का सियासी माहौल देखा हो।

राघोपुर वैशाली जिले का वो किला है जो लालू-राबड़ी राज से ही यादव परिवार का गढ़ रहा। 2020 में तेजस्वी ने यहां से शानदार जीत हासिल की थी। 2015 में भी आरजेडी का दबदबा था। इस सीट से लालू प्रसाद और राबड़ी देवी भी विधायक बने हैं। प्रशांत किशोर तीन साल से इस सीट पर नजर गाड़े बैठे थे। उन्होंने तेजस्वी पर लगातार निशाने साधे। 'नौवीं फेल' जैसे तंज कसे, लेकिन जब रैली की, तो जनता का मूड पढ़ लिया। राघोपुर में यादव वोट बैंक (लगभग 30-35%) इतना मज़बूत है कि बाहरी चेहरे के लिए इसे भेद पाना मुश्किल है। राजनीति में इलेक्शन स्ट्रैटेजिस्ट के तौर पर मोदी-नीतीश की जीत के सूत्रधार रहे थे प्रशांत। लेकिन, खुद की बारी आयी तो मैदान में उतरने में हिचकिचा रहे हैं। 
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जन सुराज ने राघोपुर से चंचल सिंह को टिकट दिया है। प्रशांत बोले, ‘मैं सभी उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित करने पर फोकस करूंगा, इसलिए खुद नहीं लड़ूंगा।’ क्या यही सच है? यकीन नहीं होता। लगता है हार का डर ही असली वजह है। सोशल मीडिया पर तो लोग खुलकर कह रहे हैं– ‘पीके सरेंडर हो गए, डरपोक निकले!’ यह पीछे हटना सिर्फ राघोपुर का नहीं, बल्कि पीके की पूरी सियासी रणनीति पर सवाल उठाता है। जन सुराज पार्टी, जो 2022 में बनी, अब 2025 चुनाव में 243 सीटों पर उतरने का दावा कर रही है। लेकिन बिना किसी मजबूत चेहरे के?

तेजस्वी का गढ़ और मज़बूत

बिहार में 'लोकल हीरो' बनने की कोशिश कर रहे थे प्रशांत किशोर लेकिन राघोपुर ने आईना दिखा दिया। तेजस्वी ने नामांकन दाखिल कर दिया है। माता-पिता लालू-राबड़ी के साथ हजारों समर्थकों के बीच तेजस्वी का विश्वास दिख रहा था। यह दृश्य ‘पीके’ के लिए करारा तमाचा है। तेजस्वी का गढ़ और मजबूत हो गया है। पीके की टिप्पणी अब उल्टी पड़ गई लगती है। 
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2019 में स्मृति ने अमेठी में राहुल को हराकर न सिर्फ बीजेपी को मजबूत किया, बल्कि खुद को 'अंडरडॉग हीरो' बना लिया। लेकिन, पीके वैसा दांव खेलने से चूके। क्यों? शायद इसलिए क्योंकि सियासत में स्ट्रैटेजी ही सबकुछ नहीं, जमीन का कनेक्शन भी जरूरी। पीके ने तो जनता की 'राय' लेने का ड्रामा किया, लेकिन असल में वोटरों का मूड न पढ़ सके। बिहार चुनाव 2025 के लिए यह घटना एक बड़ा संदेश है– बड़े-बड़े दावे करने वाले भी जमीन पर टिकते नहीं। तेजस्वी ने मजबूती दिखाई, पीके ने सावधानी। लेकिन सियासत का असली खेल तो वोटर ही खेलेंगे।