24 जून को, चुनाव आयोग ने बिहार से विशेष गहन संशोधन (Special Intensive Revision - SIR) का आदेश जारी किया था। उसी दिन चुनाव आयुक्त सुखबीर सिंह संधु ने आदेश के ड्राफ्ट संस्करण में एक सतर्कता वाली टिप्पणी दर्ज की थी। लेकिन उस टिप्पणी को हटा दिया गया। इससे पता चलता है कि एसआईआर को लेकर चुनाव आयोग की नीयत क्या थी। इसीलिए मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार गुप्ता विपक्ष की आलोचना के केंद्र में आ गए हैं। संधु मामले का खुलासा इंडियन एक्सप्रेस ने मंगलवार 2 दिसंबर को किया है। इस समय संसद का शीतकालीन अधिवेशन चल रहा है और सरकार एसआईआर पर चर्चा नहीं होने दे रही है। इस पूरी खबर को अंत तक पढ़कर आप पूरे विवाद का अंदाजा लगा सकते हैं।
चुनाव आयुक्त संधु ने ड्राफ्ट आदेश की फाइल में लिखा था- “यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि वास्तविक मतदाता/नागरिक, विशेष रूप से वृद्ध, बीमार, दिव्यांग (PwD), गरीब और अन्य कमजोर वर्ग के लोग परेशान न महसूस करें और उन्हें सुविधा प्रदान की जाए।”

यह स्पष्ट रूप से उस प्रक्रिया की ओर इशारा था जिसमें सभी मौजूदा मतदाताओं को गणना फॉर्म भरना था और कुछ श्रेणियों को अपनी पात्रता साबित करने के लिए दस्तावेज जमा करने थे। लेकिन संधु की टिप्पणी को हटा दिया गया। मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने बाद में उस फाइल पर हस्ताक्षर कर दिए।

महत्वपूर्ण बात यह है कि आदेश जिस तेजी के साथ जारी किया गया, उसके संकेत के रूप में उसी दिन ड्राफ्ट को व्हाट्सएप पर मंजूरी दे दी गई थी। जब 24 जून की शाम को अंतिम आदेश सार्वजनिक किया गया, तो उसमें एक महत्वपूर्ण संशोधन था। आयुक्त संधु की टिप्पणी का सरोकार गायब था।

इंडियन एक्सप्रेस द्वारा देखे गए ड्राफ्ट आदेश के पैराग्राफ 2.5 और 2.6 में SIR को स्पष्ट रूप से नागरिकता अधिनियम से जोड़ा गया था और अधिनियम में हुए बदलाव को इस प्रक्रिया का औचित्य बताया गया था:

“आयोग का संवैधानिक दायित्व है कि भारत के संविधान और नागरिकता अधिनियम, 1955 (‘नागरिकता अधिनियम’) के अनुसार केवल नागरिकों के ही नाम मतदाता सूची में शामिल हों। नागरिकता अधिनियम में 2004 में महत्वपूर्ण संशोधन हुआ था और उसके बाद देशभर में कोई गहन संशोधन नहीं किया गया था।”

लेकिन अंतिम आदेश में नागरिकता अधिनियम और 2003 में पारित तथा 2004 से लागू संशोधन के सभी संदर्भ हटा दिए गए।

उसकी जगह लिखा गया- “चूंकि संविधान के अनुच्छेद 326 में निर्धारित मूलभूत शर्तों में से एक यह है कि मतदाता सूची में नाम दर्ज होने के लिए व्यक्ति का भारतीय नागरिक होना आवश्यक है। फलस्वरूप, आयोग का संवैधानिक दायित्व है कि केवल नागरिक ही...” । यह पैराग्राफ अचानक बीच में ही खत्म हो जाता है, वाक्य सेमिकोलन के बाद अधूरा रह जाता है।

  • 24 जून से अब तक चुनाव आयोग ने इस अधूरी लाइन पर कोई टिप्पणी नहीं की है कि आखिर वो लाइन अधूरी क्यों है।





28 नवंबर को इंडियन एक्सप्रेस ने आयोग के प्रवक्ता से दोनों आदेशों में हुए बदलाव के बारे में पूछा था, लेकिन कोई टिप्पणी नहीं मिली।आयोग के आयुक्त संधु से भी उनकी टिप्पणी के बारे में और यह भी पूछा गया कि क्या उनकी चिंताओं का समाधान किया गया, लेकिन वे भी टिप्पणी के लिए उपलब्ध नहीं थे।

हालांकि, अंतिम आदेश को देखने से पता चलता है कि संधु की चिंता अंतिम आदेश में असली प्वाइंट को हटाकर शामिल की गई। उन्होंने जिस बिंदु को उठाया था, उसे बिना उनका नाम लिए अंतिम आदेश के पैराग्राफ 13 में शामिल कर लिया गया। लेकिन एक चीज को छोड़ दिया गया। 24 जून के आदेश में लिखा है: “चूंकि यह गहन संशोधन है, इसलिए यदि 25 जुलाई 2024 से पहले गणना फॉर्म जमा नहीं किया गया तो मतदाता का नाम ड्राफ्ट रोल में शामिल नहीं किया जा सकेगा। फिर भी, सीईओ/डीईओ/ईआरओ/बीएलओ (मुख्य निर्वाचन अधिकारी, जिला निर्वाचन अधिकारी, निर्वाचन पंजीयन अधिकारी और बूथ लेवल अधिकारी) यह भी सुनिश्चित करें कि वास्तविक मतदाता, विशेषकर वृद्ध, बीमार, दिव्यांग, गरीब और अन्य कमजोर वर्ग के लोग परेशान न हों और उन्हें अधिक से अधिक सुविधा दी जाए, जिसमें स्वयंसेवकों की तैनाती भी शामिल है।”



महत्वपूर्ण है कि चुनाव आयुक्त एसएस संधु के “नागरिक” (citizens) शब्द का उल्लेख पूरी तरह हटा दिया गया। इसीलिए एसआईआर का आदेश अब विवादित है। देखना है कि इंडियन एक्सप्रेस के इस खुलासे पर चुनाव आयोग किस तरह बचाव के लिए सामने आता है।