सुप्रीम कोर्ट और सीजेआई के ख़िलाफ़ विवादित बयान के लिए बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे पर अब अवमानना की तलवार लटक रही है। अब उनके ख़िलाफ़ आपराधिक अवमानना की कार्रवाई की मांग उठी है। सुप्रीम कोर्ट के एक वकील अनस तनवीर ने अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी को पत्र लिखकर अवमानना कार्यवाही शुरू करने की अनुमति मांगी है। 

यह क़दम तब उठाया गया है जब सुप्रीम कोर्ट और मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना के ख़िलाफ़ विवादित टिप्पणियों ने सियासी हलकों में भूचाल ला दिया है। 19 अप्रैल को दिए गए अपने बयान में निशिकांत दुबे ने सुप्रीम कोर्ट को 'धार्मिक युद्ध भड़काने' और 'अराजकता की ओर ले जाने' का ज़िम्मेदार ठहराया था। उन्होंने एक्स पर लिखा था, 'क़ानून यदि सुप्रीम कोर्ट ही बनाएगा तो संसद भवन को बंद कर देना चाहिए।' इसके बाद एएनआई से बातचीत में उन्होंने कहा था, 'इस देश में जितने गृह युद्ध जैसे हालात बन रहे हैं, उसके लिए सीजेआई संजीव खन्ना जिम्मेदार हैं। सुप्रीम कोर्ट धार्मिक युद्ध भड़काने का काम कर रहा है।' 

दुबे ने कोर्ट पर न्यायिक अतिक्रमण का आरोप लगाया और कहा कि संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत क़ानून बनाने का अधिकार सिर्फ़ संसद को है, न कि कोर्ट को। उन्होंने कोर्ट के उस फ़ैसले पर आपत्ति जताई, जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए समयसीमा तय की गई थी। इसके अलावा वक़्फ़ संशोधन विधेयक 2025 पर कोर्ट की सुनवाई के दौरान सरकार के कुछ प्रावधानों को लागू न करने के आश्वासन पर भी दुबे ने सवाल उठाए।


इसी बीच, सुप्रीम कोर्ट के वकील अनस तनवीर ने रविवार को अटॉर्नी जनरल को पत्र लिखकर दुबे के ख़िलाफ़ आपराधिक अवमानना की कार्रवाई शुरू करने की अनुमति मांगी। पत्र में कहा गया कि दुबे की टिप्पणियां 'गंभीर रूप से अपमानजनक और ख़तरनाक रूप से उकसाने वाली' हैं, जो सुप्रीम कोर्ट की गरिमा और स्वतंत्रता पर हमला करती हैं। लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार यह पत्र अवमानना अधिनियम की धारा 15(1)(बी) और सुप्रीम कोर्ट की अवमानना नियमावली के नियम 3(सी) के तहत लिखा गया। तनवीर ने आरोप लगाया कि दुबे ने वक़्फ़ विधेयक के संदर्भ में सांप्रदायिक रूप से ध्रुवीकरण करने वाले बयान दिए जो कोर्ट की निष्पक्षता पर सवाल उठाते हैं।

क़ानूनी रूप से सुप्रीम कोर्ट की अवमानना तब मानी जाती है जब कोई बयान या कार्य कोर्ट की गरिमा को कम करता हो या उसकी स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करता हो। दुबे के बयान सार्वजनिक मंच पर दिए गए और इसलिए यह संसदीय विशेषाधिकार के दायरे से बाहर हैं। इस वजह से उनके बयान अवमानना के दायरे में आ सकते हैं।

हालांकि, कार्यवाही शुरू करने के लिए अटॉर्नी जनरल की सहमति ज़रूरी है।

दुबे के बयानों से उपजे विवाद के बाद बीजेपी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने दुबे के बयानों से पार्टी को अलग करते हुए इसे उनकी व्यक्तिगत राय क़रार दिया था। 19 अप्रैल की रात को जे.पी. नड्डा ने एक्स पर लिखा, 'निशिकांत दुबे और दिनेश शर्मा के बयान व्यक्तिगत हैं। बीजेपी इनसे सहमत नहीं है और न ही इनका समर्थन करती है। हम इन बयानों को पूरी तरह खारिज करते हैं।' नड्डा ने जोड़ा कि बीजेपी न्यायपालिका को लोकतंत्र का मज़बूत स्तंभ मानती है और उसका सम्मान करती है। उन्होंने दोनों सांसदों को भविष्य में ऐसे बयान देने से मना किया।


लेकिन, नड्डा का यह बयान विवाद को शांत करने में नाकाम रहा। विपक्ष ने इसे बीजेपी की दिखावटी सफाई करार दिया। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कहा, 'बीजेपी सुप्रीम कोर्ट को कमजोर करने की कोशिश कर रही है। क्या नड्डा ने दुबे को नोटिस भेजा?'

उन्होंने कहा, 'बीजेपी के सांसद, मंत्री और संवैधानिक पदाधिकारी सुप्रीम कोर्ट के ख़िलाफ़ बोल रहे हैं, क्योंकि कोर्ट संविधान के मूल ढांचे के ख़िलाफ़ क़ानून बनाने से रोकता है।' कांग्रेस सांसद मणिकम टैगोर ने दुबे के बयान को मानहानि वाला बताया और कहा कि सुप्रीम कोर्ट को इसका संज्ञान लेना चाहिए।

आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने कहा, 'दुबे का बयान न्यायपालिका की गरिमा को ठेस पहुंचाता है। अवमानना की कार्यवाही शुरू होनी चाहिए।' आप की प्रवक्ता प्रियंका कक्कड़ ने सुप्रीम कोर्ट से स्वत: संज्ञान लेने और दुबे को जेल भेजने की मांग की। एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी ने बीजेपी पर तंज कसते हुए कहा, 'आप लोग ट्यूबलाइट हैं' यह बताने की कोशिश की कि नड्डा की सफ़ाई काफ़ी देर से आई।

दुबे के बयान वक़्फ़ संशोधन विधेयक से जुड़े हैं, जिसकी संवैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। 17 अप्रैल को कोर्ट ने सरकार से कुछ विवादित प्रावधानों को लागू न करने का आश्वासन मांगा। दुबे ने इसे न्यायिक हस्तक्षेप क़रार दिया और कहा कि कोर्ट संसद के क़ानून को रद्द कर रहा है।

तो सवाल है कि निशिकांत दुबे के बयान के मायने क्या हैं? दुबे का बयान बीजेपी के एक खास वर्ग को लुभाने की कोशिश हो सकता है, जो संवेदनशील मुद्दों जैसे वक्फ विधेयक पर ध्रुवीकरण चाहता है। उनकी टिप्पणियां एक खास वैचारिक समूह को संदेश देती हैं कि बीजेपी सांप्रदायिक मुद्दों पर आक्रामक रुख अपनाएगी। लेकिन, नड्डा का किनारा करना दिखाता है कि पार्टी औपचारिक रूप से संस्थानों का सम्मान दिखाना चाहती है।

अगर अटॉर्नी जनरल अवमानना कार्यवाही की अनुमति देते हैं तो दुबे को कोर्ट में पेश होना पड़ सकता है। हालांकि, पहले भी कपिल सिब्बल और पी. चिदंबरम जैसे मामलों में अवमानना की मांग खारिज हो चुकी है, जिससे इसकी संभावना कम लगती है। फिर भी, सुप्रीम कोर्ट स्वत: संज्ञान ले सकता है, जैसा कि विपक्ष मांग रहा है।

दुबे का बयान उस बड़े टकराव का हिस्सा है, जिसमें उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी सुप्रीम कोर्ट के अनुच्छेद 142 के इस्तेमाल को 'लोकतांत्रिक ताक़तों के ख़िलाफ़ परमाणु मिसाइल' क़रार दिया था। यह दिखाता है कि कुछ बीजेपी नेता कोर्ट के फ़ैसलों को न्यायिक अतिक्रमण मानते हैं।

निशिकांत दुबे की बयानबाजी ने न केवल सुप्रीम कोर्ट की गरिमा पर सवाल उठाए, बल्कि बीजेपी के लिए एक सियासी संकट भी खड़ा कर दिया है। नड्डा की सफाई और पार्टी की दूरी के बावजूद यह विवाद बीजेपी की छवि को नुक़सान पहुंचा सकता है, खासकर तब जब वह न्यायपालिका का सम्मान करने की बात करती है।