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मॉब लिंचिंग के आँकड़े क्यों छुपा रही है मोदी सरकार?

सरकार ने अब मॉब लिंचिंग यानी पीट-पीट कर मारने के आँकड़े भी छुपा लिए! नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो यानी एनसीआरबी ने अपराध से जुड़े आँकड़े तो जारी कर दिए लेकिन मॉब लिंचिंग की रिपोर्ट नहीं जारी की है। सरकार ने पहले बेरोज़गारी के आँकड़े भी छुपाए थे, पर भारी दबाव के बाद इसे जारी करना पड़ा था। लगातार किसानों की आत्महत्याओं के बावजूद इसके आँकड़े तक तैयार नहीं किए जा रहे हैं। जीडीपी विकास दर तैयार करने में हेरफेर के आरोप लगते रहे हैं। इन आँकड़ों को सूचना के अधिकार यानी आरटीआई से पाने का रास्ता भी इसलिए मुश्किल होता जा रहा है क्योंकि इसको लगातार कमज़ोर किया जा रहा है। पारदर्शिता यानी सबकुछ साफ़-साफ़ दिखने का दावा करने वाली सरकार को इन आँकड़ों से दिक़्क़त क्यों है?

एनसीआरबी ने मॉब लिंचिंग के आँकड़े ऐसे समय छुपा लिए हैं जब ऐसी घटनाएँ ख़ूब बढ़ी हैं और इसके लिए एजेंसी ने अलग से श्रेणी भी बनाई थी। मॉब लिंचिंग से हत्या, प्रभावशाली लोगों द्वारा हत्या, खाप पंचायतों द्वारा मारना और धार्मिक कारणों से हत्या की अलग श्रेणियाँ जोड़ी गई हैं। कुछ हद तक इन श्रेणियों को जोड़ने के कारण इन आँकड़ों को जारी करने में देरी भी हुई है। रिपोर्ट तय समय से एक साल बाद जारी हुई है। 'द इंडियन एक्सप्रेस' के अनुसार, एनसीआरबी के आँकड़े जुटाने वाले एक अधिकारी ने कहा, 'यह आश्चर्यजनक है कि यह आँकड़ा जारी नहीं किया गया है। यह आँकड़ा पूरी तरह तैयार था, पूरी तरह संकलित और विश्लेषण किया जा चुका था। सिर्फ़ उच्च स्तर के लोग ही यह जानते होंगे कि इसे क्यों जारी नहीं किया गया।'

रिपोर्टों के अनुसार एनसीआरबी ने इसके पूर्व निदेशक ईश कुमार के नेतृत्व में ही इस रिपोर्ट को तैयार करने की शुरुआत की थी। इन्हीं के नेतृत्व में मॉब लिंचिंग से हत्या जैसी श्रेणियों को भी जोड़ा गया था।

मॉब लिंचिंग पर आँकड़े इकट्ठा करने का काम तब शुरू किया गया जब 2015-16 में अचानक ऐसी घटनाओं में ज़बर्दस्त बढ़ोतरी हुई। 2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार बनी थी। इसके बाद ऐसी एक के बाद एक घटनाएँ सामने आने लगीं। पहले गो हत्या और गो तस्करी के शक में पीट-पीट कर हत्या के मामले आए। बाद में मॉब लिंचिंग की ये घटनाएँ चोरी, बच्चे उठाने और दूसरे साम्प्रदायिक कारणों से भी ज़्यादा होने लगीं।

तबरेज़ अंसारी, पहलू ख़ान, जुनैद, अख़लाक़ की लिंचिंग के मामले ने ख़ूब तूल पकड़ा। झारखंड के 22 साल के तबरेज़ अंसारी को इसी साल जून महीने में बाइक चोरी के शक में भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला था और उससे ‘जय श्री राम’ और ‘जय हनुमान’ के नारे भी लगवाए थे। इस केस को कमज़ोर किए जाने के आरोप लगते रहे हैं।

दादरी के बिसाहड़ा गाँव में 2015 के सितंबर महीने में भीड़ ने कथित तौर पर गोमांस रखने के आरोप में 52 वर्षीय अख़लाक़ की पीट-पीटकर हत्या कर दी थी। घटना के बाद तनाव के चलते अख़लाक़ के परिवार को गाँव छोड़कर जाना पड़ा था। इस मामले के सभी आरोपी ज़मानत पर बाहर हैं। इनमें से कई बीजेपी नेताओं के क़रीबी भी हैं। अप्रैल महीने में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जब दादरी में रैली को संबोधित कर रहे थे, तब ताली बजाने और नारे लगाने वालों में अख़लाक़ की हत्या के आरोपी सबसे आगे थे।

जुनैद ख़ान अपने भाई के साथ दिल्ली से ईद की ख़रीदारी कर ट्रेन से हरियाणा जा रहे थे। उसके बैग में गोमांस होने के शक में भीड़ ने पीटा था। बल्लभगढ़ के पास कथित रूप से चाकू घोंप कर हत्या कर दी गई थी। इस मामले में तीन महीने के अंदर छह में से चार अभियुक्तों को ज़मानत मिल गई थी।

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जयंत सिन्हा ने अभियुक्तों का किया था स्वागत

झारखंड के रामगढ़ में जून 2017 में अलीमुद्दीन अंसारी को पीट-पीट कर मार दिया गया था। इस मामले में फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट ने आठ लोगों को दोषी ठहराया था। लेकिन हाई कोर्ट ने जुलाई 2018 में ज़मानत दे दी। 2018 में तत्कालीन नागरिक विमानन राज्य मंत्री जयंत सिन्हा ने लिंचिंग के मामले में जेल से ज़मानत पर छूटे आठ लोगों को माला पहनाकर स्वागत किया था।

बेरोज़गारी पर छुपाए थे आँकड़े

लोकसभा चुनाव से पहले एनएसएसओ यानी नेशनल सैंपल सर्वे ऑफ़िस बेरोज़गारी पर अपना आँकड़ा जारी करना चाहता था, लेकिन सरकार ने इसे छुपाया था। इसी कारण नेशनल स्टटिस्टिक्स कमीशन के कार्यवाहक अध्यक्ष सहित दो सदस्यों ने इस्तीफ़ा दे दिया था। भारी दबाव के बाद भी मोदी सरकार इसलिए इसे जारी नहीं करना चाहती थी क्योंकि आँकड़ों में बेरोज़गारी चरम पर दिख रही थी। लोकसभा चुनाव भी होने थे। लेकिन अंग्रेज़ी दैनिक अख़बार ‘बिज़नेस स्टैंडर्ड’ ने एनएसएसओ के आँकड़े छाप दिये थे। इसमें देश में बेरोज़गारी 45 साल में सबसे ज़्यादा की रिपोर्ट आई थी। पहले तो सरकार ने इसे ग़लत साबित करने की हर संभव कोशिश की और बाद में इस पर लीपापोती भी करती दिखी। लेकिन आख़िरकार लोकसभा चुनाव के बाद सरकार को उस आँकड़े को स्वीकार करना पड़ा।

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किसानों की आत्महत्याएँ 

किसानों की आत्महत्या से जुड़ी लगातार आ रही ख़बरों के बावजूद आँकड़े मौजूद नहीं हैं। सरकार भी यही बात मान चुकी है। ‘द वायर’ की 18 मार्च 2018 की रिपोर्ट के अनुसार तत्कालीन कृषि राज्यमंत्री पुरुषोत्तम रूपाला ने एक प्रश्न के लिखित उत्तर में राज्यसभा में बताया था कि कृषि ऋण के कारण किसानों की आत्महत्या के मामलों के बारे में वर्ष 2016 के बाद से कोई आँकड़ा उपलब्ध नहीं है, क्योंकि गृह मंत्रालय ने अभी तक इसके बारे में रिपोर्ट प्रकाशित नहीं की है। रूपाला ने कहा था कि वर्ष 2015 तक आत्महत्या के बारे में ये रिपोर्ट उसकी वेबसाइट पर उपलब्ध हैं।

जीडीपी विकास दर के आँकड़ों में हेरफेर!

जीडीपी विकास दर के आँकड़ों में भी हेरफेर के आरोप लगते रहे हैं। इन आँकड़ों को शोध के ज़रिए साबित करने की कोशिश भी की गई। यह शोध किसी और ने नहीं, बल्कि पिछली नरेंद्र मोदी सरकार में मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे अरविंद सुब्रमण्यन ने किया था। सुब्रमण्यन का मानना ​​है कि 2011-12 और 2016-17 के बीच भारत की औसत वार्षिक वृद्धि को क़रीब 2.5 प्रतिशत बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया। हाल ही में एनएसएसओ ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि जीडीपी आकलन जिस सर्वे के आधार पर किया गया है, उसका 37 प्रतिशत डाटा बेनामी कंपनियों का है।

पहले आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने भी जीडीपी के आँकड़ों पर संदेह जताया था। 2015 में जीडीपी दर को तय करने वाले आधार वर्ष को भी बदला गया।

आरटीआई से भी नहीं मिलेंगे आँकड़े?

वैसे, सरकार को इन सूचनाओं को देने के लिए बाध्य करने वाले आरटीआई क़ानून को भी काफ़ी कमज़ोर कर दिया गया है। इसी साल जुलाई महीने में भारी विरोध और विपक्षी दलों की कड़ी आपत्ति के बावजूद राज्यसभा में भी आरटीआई संशोधन बिल 2019 पास हो गया। नए संशोधन के तहत केंद्रीय और राज्य स्तरीय सूचना आयुक्तों की सेवा शर्तें अब केंद्र सरकार तय करेगी। हाल में जारी अधिसूचना के अनुसार मुख्य सूचना आयुक्त की श्रेणी कम कर दी गई है और कार्यकाल, वेतन व सुविधाएँ भी घटा दी गई हैं। अब उनकी रैंक मुख्य चुनाव आयुक्त, कंप्ट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल और यूपीएससी चेयरमैन के बराबर नहीं होगी, बल्कि एक कैबिनेट सचिव के बराबर दर्जा मिलेगा। 

इसका साफ़ मतलब है कि सूचना आयुक्तों की निर्भरता सरकार पर बढ़ गई है और शक्तियाँ कम हो गई हैं। पहले से ही आरटीआई के तहत सूचना मिलने में परेशानी आती रही है, लेकिन अब तो स्थिति और ज़्यादा ख़राब होने के आसार हैं।

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लिंचिंग पर अमेरिकी रिपोर्ट

बहरहाल, लिंचिंग और साम्प्रदायिकता पर अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट भी चेतावनी देने वाली है, लेकिन समस्या को माना ही नहीं जा रहा है। इसी साल जून में अमेरिका के विदेश विभाग ने भारत में साम्प्रदायिक हालात पर अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्ट जारी की थी। इसमें भारत के गृह मंत्रालय द्वारा बीती फ़रवरी को लोकसभा में पेश किए गए आँकड़ों का हवाला देते हुए बताया गया था कि देश में 2015 से 2017 के बीच सांप्रदायिक हिंसा के मामलों में नौ फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है। साथ ही रिपोर्ट में कहा गया था, ‘गो रक्षा के नाम पर हत्या, मॉब लिंचिंग और धमकी जैसी घटनाएँ की गईं और आरोपियों पर मुक़दमा चलाने में संबंधित संस्थान अक्सर नाकाम रहे हैं।’ रिपोर्ट में आरोप लगाया गया था कि बीजेपी के कुछ वरिष्ठ नेता अल्पसंख्यक समुदायों के ख़िलाफ़ उकसाने वाले भाषण देते हैं। हालाँकि बीजेपी ने अमेरिका के विदेश विभाग द्वारा जारी इस रिपोर्ट को नरेंद्र मोदी सरकार और बीजेपी के प्रति दुराग्रह से प्रेरित और ‘झूठा’ क़रार दिया था।

लिंचिंग का ऐसा आँकड़ा तैयार करने का मक़सद यह रहा है कि इससे ऐसी घटनाओं को रोकने में मदद मिलेगी। लेकिन जब बीमारी ही नहीं बताई जाएगी तो इलाज कैसे होगा?

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अमित कुमार सिंह
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