जो हार को जीत में बदल दे उसे बाज़ीगर कहते हैं!! यह फ़िल्मी डायलॉग बीजेपी के नेता और कार्यकर्ता बड़े स्वाभिमान के साथ अपनी पार्टी के कुछ केंद्रीय नेताओं के लिए कहा करते थे लेकिन देश के एक महत्वपूर्ण राज्य में यह डायलॉग एकदम उल्टा पड़ गया। यहां बीजेपी नेता हारी बाज़ी जीते नहीं बल्कि जीती बाज़ी हार गए और वह भी कुछ ही दिनों के अंतराल में दो बार! क्या यह सब 'सत्ता के मद', 'हमको कौन रोक सकता है' के घमंड और 'जाएगा तो जाएगा कहां'! जैसी सोच की वजह से हुआ?