क्या भारतीय चुनावों में बेरोज़गारी, मूल्य वृद्धि और ऐसे अन्य कारक मायने रखते हैं? क्या सच में भारतीय राजनीति बदल गई है? भारत अभी भी एक अर्ध सामंती देश है। यहाँ ज़्यादातर लोग अभी भी पिछड़े सामंती मानसिकता के साथ जी रहे हैं, जातिवाद और सांप्रदायिकता से भरे हुए हैं। अधिकांश राज्यों में भारतीय चुनाव अभी भी काफ़ी हद तक जाति और धर्म के आधार पर होते हैं।
क्षमा करें मैं प्रोफ़ेसर सुधा पई की इस बात से असहमत हूँ।
भारत अभी भी एक अर्ध सामंती देश है। यहाँ ज़्यादातर लोग अभी भी पिछड़े सामंती मानसिकता के साथ जी रहे हैं, जातिवाद और सांप्रदायिकता से भरे हुए हैं। अधिकांश राज्यों में भारतीय चुनाव अभी भी काफ़ी हद तक जाति और धर्म के आधार पर होते हैं। अधिकांश मतदाता अब भी केवल जाति और धर्म को देखते हैं जब वे वोट देने जाते हैं, और ग़रीबी, बेरोज़गारी, कुपोषण, उचित स्वास्थ्य देखभाल की कमी और जनता के लिए अच्छी शिक्षा, मूल्य वृद्धि, भ्रष्टाचार, आदि के प्रति पूरी तरह से उदासीन होते हैं।
अधिकांश भारतीय चुनावों में जो प्रासंगिक कारक हैं उसे जाति-धर्म गठबंधन (CRA - Caste Religion Alliance ) कहा जा सकता है। क्योंकि राज्य की आबादी में कोई भी जाति अपने आप में 10-12% से अधिक नहीं है।
चुनाव जीतने के लिए 30% से अधिक वोटों की ज़रूरत होती है जो केवल कई जातियों के गठबंधन से प्राप्त हो सकता है जो अक्सर मुसलमानों के साथ मिलकर संभव होता है (भाजपा को छोड़कर, जिसे मुसलमान वोट प्राप्त नहीं होते)।
उदाहरण के लिए - 1947 में आज़ादी के बाद उच्च जातियों (कई उत्तर भारतीय राज्यों में लगभग 16-17%), मुसलमानों (यूपी में लगभग 16% और बिहार में भी), और अनुसूचित जातियों (लगभग 20%) के CRA पर आश्रित कांग्रेस ने दशकों तक चुनाव जीते। बाद में, अनुसूचित जातियों ने अपनी पार्टी (बीएसपी) बनाई, और दिसंबर 1992 में बाबरी मसजिद के विध्वंस के बाद, अधिकांश मुसलमान कांग्रेस छोड़कर यूपी और बिहार में आरजेडी में शामिल हो गए, और उच्च जातियाँ बीजेपी में चली गईं। इसलिए कांग्रेस बहुत कम मतों के साथ बची है, जिसके कारण कांग्रेस का बिहार में इस बार ख़राब प्रदर्शन रहा है।
वास्तव में जो हो रहा है वह कुछ यूँ है कि जाति और धार्मिक गठजोड़ (CRA) कभी-कभी बदल जाते हैं, लेकिन फिर भी चुनाव में प्रासंगिक कारक जाति और धर्म ही हैं, न कि बेरोज़गारी, मूल्य वृद्धि, स्वास्थ्य देखभाल की कमी, भ्रष्टाचार, आदि जैसे कि सुधा पाई ने बताया।
बिहार चुनाव में उच्च जाति के हिंदुओं (आबादी का लगभग 16%) ने एनडीए (जो स्वयं को हिंदुओं का प्रतिनिधि कहते हैं) को वोट दिया।
साथ ही ग़ैर यादव ओबीसी (जो लगभग 40% आबादी का एक बड़ा वर्ग है) इस बात से पीड़ित थे कि एक यादव मुख्यमंत्री के तहत केवल यादव जाति (जो लगभग 12% होते हैं) वाले अधिकारियों को ही अच्छी जगह तबादला मिलता है बाक़ियों को नहीं, जबकि अन्य ओबीसी लोगों की अनदेखी होती है।
वीडियो में देखिए, बिहार चुनाव परिणाम के मायने
महागठबंधन को 12% यादव वोट मिले, और शायद कुछ अन्य ओबीसी वोट। अगर उन्हें 17% मुसलिम वोट मिले होते तो वे चुनाव जीत सकते थे, लेकिन ओवैसी के
एआईएमआईएम ने मुसलिम वोटों को विभाजित कर दिया (एआईएमआईएम को 5 सीटें मिलीं और अन्य निर्वाचन क्षेत्रों में सेंध लगाई)।
इसलिए सुधा पाई का यह विचार ग़लत है कि भारतीय चुनावों में बेरोज़गारी और ऐसे अन्य कारक मायने रखते हैं। जब तक भारत अर्ध सामंती देश बना रहेगा तब तक यह स्थिति बनी रहेगी, और बेरोज़गारी, मूल्य वृद्धि आदि अप्रासंगिक रहेंगे।