बिहार चुनाव से ठीक पहले मतदाता सूची में सुधार या नए नाम जोड़ने की कवायद के नाम पर जो कुछ चल रहा है, वह देश कई राजनीति और सुप्रीम कोर्ट के कार्य-व्यापार के प्रमुख मुद्दों में है। बिहार में तो इससे गहमा गहमी है ही। वहाँ विपक्ष इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रहा है तो सत्ता पक्ष के कई दल भी इन क़दमों का खुला समर्थन नहीं कर रहे हैं। जगह-जगह वोटर फार्म न भरने की मुहिम चल रही है तो कई जगहों से फार्म लेकर आए बूथ लेवल अधिकारी को खदेड़े जाने की ख़बर भी आई है। कई लोग इसे असम जैसी स्थिति की शुरुआत मानते हैं तो कई पश्चिम बंगाल चुनाव का रिहर्सल। 

लेकिन सुदूर दक्षिण में भी इसी तरह का एक हंगामा चल रहा है। वहां अनुसूचित जातियों के लोगों की जातिवार जनगणना का काम चल रहा है। वहाँ भी विपक्षी भाजपा हंगामा मचा रही है तो कैबिनेट के दो दलित मंत्री मुनियप्पा और महादेवप्पा मुख्यमंत्री पर दबाव बना रहे हैं और गिनती के तरीक़े पर अपनी आपत्ति जता रहे हैं। आपत्ति का मुद्दा 101 दलित जातियों को अलग-अलग गिनना है जिसे दलित अपने समाज में विभाजन की राजनीति से जोड़ रहे हैं तो सरकार सही संख्या जानकार संसाधनों के उचित बँटवारे का तर्क दे रही है। वहां भी क्यू आर कोड के ज़रिए अप्रकट ढंग से जाति दर्ज कराने का विकल्प भी दिया जा रहा है। पर पर्याप्त चेतन दलित समूहों, खासकर शहरों में रहने वाले, को इस तरह की गिनती पर आपत्ति है।
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कर्नाटक में जातिवार गणना

सबको मालूम है कि कर्नाटक में जातिवार गणना हो चुकी है, लेकिन उससे सामने आई संख्या और प्रतिशत को लेकर कांग्रेस के अंदर ही बवाल है। सिद्धारमैया और राजशेखर लगातार आमने-सामने रहे हैं। कई बार दोबारा गिनती का सवाल भी उठा लेकिन आम जनगणना कराने की रुकी घोषणा सामने आने और जातिवार गिनती कराने के फ़ैसले के बाद यह सवाल कुछ हल्का पड़ा है। और जो फ़ैसला हुआ है उससे जातिवार गनगणना कराने का राजनैतिक हंगामा थम गया है। अब श्रेय लेने की राजनीति ऊपर आ गई है। सबसे ज्यादा बड़ा दावा तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का ही है। उनके समर्थक तो जातिवार जनगणना कराने वाली बिहार सरकार के उपमुख्यमंत्री रहे तेजस्वी के दावे को भी पीछे कर रहे हैं। बीजेपी ने तब भी सहमति दी थी और अब उसका ही फ़ैसला है। सो वह दावेदार है। वह सुविधा से यह भुला दे रही है कि बिहार सरकार द्वारा जातिवार गिनती के बाद लाई नई आरक्षण नीति के ख़िलाफ़ उनकी सरकार ही सुप्रीम कोर्ट गई थी और अब भी वह मुक़दमा चल रहा है।

इस हंगामे में किसी को यह होश नहीं है कि बिहार, कर्नाटक, तेलंगाना के फ़ैसलों की ही नहीं पिछली जनगणना में जुटाए जातिवार गिनती के आँकड़े जाहिर न करने जैसे फ़ैसलों के पीछे क्या अच्छाई या बुराई रही है और क्यों पार्टियां इसके पक्ष में भी दिखाना चाहती हैं और विरोध भी करती हैं, मामले को टालना भी चाहती हैं। 

क्यों जातियों के अंदर से भी खुद को इस तरह गिनवाने के ख़िलाफ़ आवाज़ें आने लगी हैं जैसा कर्नाटक में खुलकर दिखता है। यह सिर्फ़ कर्नाटक की बात नहीं है।

कोटा के अंदर कोटा

हर जगह का दलित समाज खुद के अंदर बंटवारा और श्रेणीकरण के ख़िलाफ़ है। और अब ओबीसी जातियों के अंदर से भी अलग-अलग जातियों की गिनती के ख़िलाफ़ आवाज़ें उठने लगी हैं। हम जानते हैं कि बिहार और हरियाणा जैसे राज्यों ने दलितों की दो श्रेणियां बनाई हैं तो अधिकांश राज्यों ने अनुसूचित जाति और ओबीसी जातियों की सूची में जोड़ घटाव किए ही है। ऐसा इन समूहों के राजनैतिक दबाव से हुआ है तो अक्सर शासक जमात की अपनी राजनीतिक गिनती भी प्रभावी रही है। बिहार में नीतीश कुमार ने ओबीसी जातियों की दो श्रेणियाँ बनाने के साथ लगातार दलित और महादलित का बँटवारा किया है और लगातार जातियों को इधर से उधर भी करते रहे हैं।

जो काम वे कर रहे हैं उसमे उनका अपना सामाजिक-राजनैतिक समर्थन का खयाल रहता है लेकिन यही काम कांग्रेसी भी करते रहे हैं, बीजेपी तो आरक्षण का घोषित विरोधी ही रही है। पर दांव-पेंच में वे भी कम नहीं हैं। नीतीश से बात ज़्यादा अच्छी तरह समझ आती है इसलिए उनका उदाहरण बार बार देने में हर्ज नहीं है। उनको अहीरों से राज लेना था, पासवानों को हाशिए पर रखना था, पचपनिया जातियों को साथ रखना था जो अगड़ों के साथ अहीर राज से भी त्रस्त थीं। इसलिए यह बंटवारा उनको बहुत लाभ दे गया और बिना संगठन और नीति के वे लगातार बीस साल राज पूरा करने जा रहे हैं। आज अति पिछड़ों के पीछे हर दल भाग रहा है क्योंकि उनकी आबादी 37 फ़ीसदी है। पर इसी से छोटी छोटी संख्या वाले डर भी रहे हैं। 
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बिहार में जातियों का समीकरण

बिहार में एक लाख से कम आबादी वाली सौ से ज़्यादा जातियाँ हैं। इन समूहों में डर व्याप्त है कि अगर उनको अकेले अकेले कर दिया गया तो उनकी पूछ ख़त्म हो जाएगी। लेकिन राजनैतिक चेतना जगने के बाद उनको यह भी समझ आ रहा है कि पिछड़ा नाम से सारा लाभ अहीर न लें तो अति पिछड़ा कोटे से कलवार, तेली, सूढी ही क्यों सांसद-विधायक बनें या उनके ही बच्चे सरकारी नौकरियों में जाएँ। क्यों दलित नाम की मलाई संख्या में बहुत कम धोबी खा लें और हलखोर-बंसफोड़ और डोम जैसी जातियों को कुछ भी न मिले।

असल में हमारे समाज में जितने किस्म की वंचनाएं हैं और जितने किस्म के भेद भाव हैं, जाति आधारित आरक्षण उनमें से सिर्फ एक का निदान करता है और वह भी आधा अधूरा। इससे आने वाली राजनैतिक सामाजिक चेतना ज़रूर बाक़ी विसंगतियों को भी उजागर करती है लेकिन यह सारी वंचनाओं का जबाब नहीं है। 
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जन्मजात भेदभाव 

हमारे यहाँ जन्मजात भेदभाव सिर्फ़ जाति के आधार पर नहीं होता, यह लिंग, शिक्षा, क्षेत्र, गाँव-शहर, हिन्दी अंग्रेज़ी और आर्थिक कारणों से भी होता है। मौजूदा आरक्षण बहुत कम समय में इन सबका एहसास करा देता है। दलित आदिवासी आरक्षण ने ही ओबीसी आरक्षण का आधार बनाया। इससे गाँव-शहर, हिन्दी अंग्रेज़ी या लड़का-लड़की के भेद को समझना भी आसान हुआ है, अमीर गरीब का अंतर समझना भी। लेकिन सरकारों की इच्छा अभी वोट से ज़्यादा आगे नहीं गई है। वह समता लाने में दिलचस्पी नहीं रखती। वह तो नीतियों से क्या कर रही है यह अलग है अब समाजवाद शब्द पर भी आपत्ति होने लगी है। आरक्षण का तर्क इतना मज़बूत नहीं हुआ है कि बड़ा बदलाव करे। उसके लिए आरक्षण को अपने अंदर भी बदलाव करने होंगे।