राजनीतिक दल क्या जाति आधारित गणना के नाम पर सीधे वोटों की गणना और समीकरण पर ध्यान दे रहे हैं? क्या इससे जातीय राजनीति का स्वरूप बदल रहा है या यह सिर्फ एक चुनावी रणनीति है?
क्यों जातियों के अंदर से भी खुद को इस तरह गिनवाने के ख़िलाफ़ आवाज़ें आने लगी हैं जैसा कर्नाटक में खुलकर दिखता है। यह सिर्फ़ कर्नाटक की बात नहीं है।