इस बात का विश्लेषण होना अभी बाक़ी है कि केवल पंद्रह दिनों के बीच ही ऐसा क्या हो गया कि देश के चश्मे की फ़्रेम भी बदल गयी और फ़ोकस भी बदल गया। हम वैसे तो पहले से ही स्वदेशी थे पर इस बार ‘विदेशी’ से ‘स्वदेशी’ हो गए। ‘आडी’ से ‘खादी’ पर उतर आए।
विडम्बना यह भी है कि इस भयानक मानवीय त्रासदी पर कोई शोक गीत लिखने के बजाय उपलब्धियों की गौरव गाथाओं का सार्वजनिक पारायण किया जा रहा है और तालियाँ बजाने वाले ‘जमाती’ दिलासा दे रहे हैं कि -धैर्य रखिए, बस थोड़े दिनों की ही बात है, सब कुछ ठीक हो जाएगा।