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हो सकता है कि दुनिया भर में जो बहस इस समय ‘अर्थव्यवस्था’ और ‘जानें बचाने’ के बीच किसी एक का चुनाव करने को लेकर चलाई जा रही है उसे सरकारों के द्वारा यूँ बदल दिया जाए कि : ‘आपको अपनी जान बचाना है या प्रजातंत्र? बताइए!’ जवाब क्या होना चाहिए, सबको मालूम है। कहा भी जा सकता है कि : ‘दोनों को।’ अब तो सब कुछ जनता के साहस पर ही निर्भर करने वाला है।
नागरिकों की बढ़ती हुई नाराज़गी का दूसरा पक्ष यह है कि वे अपने सोच और व्यवहार में ज़्यादा चिड़चिड़े, कठोर और असहिष्णु बनते जा रहे हैं। राजनीति के प्रति उनका चिर-परिचित उत्साह, अरुचि में बदल रहा है। धार्मिक उन्माद पर रोज़गार, बच्चों का भविष्य और स्वजनों-परिचितों की मौतें हावी हो रही हैं।