बाबा साहब के परिनिर्वाण दिवस पर उनके जीवन संघर्ष और समता-न्याय पर आधारित उनकी उदार लोकतंत्र की अवधारणा से सीखने की ज़रूरत है। जिस हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था और हिन्दुत्व की वैचारिकी से बाबा साहब जीवन भर जूझते रहे, आज उसकी सत्ता है। हिन्दुत्व का मुक़ाबला करने के लिए बाबा साहब ने अपने अंतिम दौर में जो क़दम उठाया था, उस पर भी पहरा बिठा दिया गया है...
"उनकी मृत्यु से विश्व का लोकतंत्र दुर्बल हो गया। लोकतंत्र की विचारधारा का एक बड़ा हिमायती नष्ट हो गया। संविधान के प्रचंड कार्य और हिंदू संहिता संबंधी कार्य कर उन्होंने राष्ट्र की जो सेवा की, उसका स्मरण करते हुए प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा में कहा कि 'हिंदू समाज की जुल्म करने वाली सभी प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ विद्रोह करने वाले व्यक्ति के रूप में आंबेडकर का प्रमुखतया स्मरण रहेगा। उन्होंने उन जुल्म करने वाली प्रवृत्तियों का कड़ा विरोध किया, इसीलिए लोगों के दिल जागृत हुए।... उन्होंने सरकारी कामकाज में बड़ा विधायक और महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने जिनके ख़िलाफ़ विद्रोह किया, उनके ख़िलाफ़ हर एक व्यक्ति को विद्रोह करना चाहिए।” - बाबा साहब के पहले जीवनीकार धनंजय कीर
बाबा साहब के निधन के बाद उनके निकट सहयोगियों द्वारा केंद्रीय सरकार के मंत्रियों को ख़बर दी गई। ख़बर मिलते ही दिल्ली स्थित उनके आवास 26, अलीपुर मार्ग पर सभी बड़े मंत्री पहुँचने लगे।
“बाबा साहब के अंतिम दर्शन के लिए एक घंटे में ही उनके निवास स्थान के बाहर लोगों की प्रचंड भीड़ इकट्ठी हो गई।... प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू आंबेडकर के निवास स्थान पर दौड़ते आए। आंबेडकर जब क़ानून मंत्री थे तब पंडित नेहरू विदेशी मेहमानों को उनका परिचय इन शब्दों में कराते थे कि 'आंबेडकर भारतीय मंत्रिमंडल के एक अनमोल रत्न हैं।' जब बाबा साहब उनसे संसद सदन के हॉल में या कहीं समारोह में मिलते थे, तब वे उनके स्वास्थ्य की आस्थापूर्वक पूछताछ करते थे।नेहरू जी ने आंबेडकर के निवास स्थान पर आते ही बड़ी हमदर्दी से डॉक्टर सविताबाई से पूछताछ की। आंबेडकर के अनुयायियों से उन्होंने पूछताछ की कि अंतिम यात्रा संबंधी किस तरह की व्यवस्था की जाए। आपकी क्या इच्छा है? आंबेडकर के अंतिम दर्शन के लिए गृह मंत्री गोविंद वल्लभ पंत, संचार मंत्री जगजीवन राम और राज्यसभा के उपसभापति आदि आ गए। सब बातें ध्यान में रखकर जगजीवन राम ने बाबा साहब की लाश मुंबई ले जाने के लिए हवाई जहाज का प्रबंध किया।"
"बाबा साहब के फिर अंतिम दर्शन हुए उनके अंत समय में ही। सुबह मैं हमेशा की तरह अपने काम पर निकला। अख़बारों के पहले पेज पर ही एक ख़बर छपी थी। धरती फटने-सा एहसास हुआ। इतना शोकाकुल हो गया, जैसे घर के किसी सदस्य की मृत्यु हुई हो। घर की चौखट पकड़कर रोने लगा। माँ को, पत्नी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि मैं इस तरह पेपर पढ़ते ही क्यों रोने लगा? घर के लोगों को बताते ही सब रोने लगे। बाहर निकलकर देखता हूँ कि लोग जत्थों में बातें कर रहे हैं। बाबा साहब का निधन दिल्ली में हुआ था। शाम तक विमान से उनका शव आने वाला था। नौकरी लगे दो-तीन महीने ही हुए होंगे। छुट्टी मंजूर करवाने वेटरनरी कॉलेज गया। अर्जी का कारण देखते ही साहब झल्लाए। बोले,
‘अरे, छुट्टी की अर्जी में यह कारण क्यों लिखता है? आंबेडकर राजनीतिक नेता थे और तू एक सरकारी नौकर है। कुछ प्राइवेट कारण लिख।’
वैसे मैं स्वभाव से बड़ा शांत। परंतु उस दिन अर्जी का कारण नहीं बदला। उलटे साहब को कहा,
‘साहब, वे भी हमारे घर के एक सदस्य ही थे। कितनी अंधेरी गुफाओं से उन्होंने हमें बाहर निकाला, यह आपको क्यों मालूम होने लगा?’ मेरी नौकरी का क्या होगा, छुट्टी मंजूर होगी या नहीं, इसकी चिंता किए बिना मैं राजगृह (बंबई में बाबा साहब का घर) की ओर भागता हूँ। ज्यों बाढ़ आई हो, ठीक उसी तरह लोग राजगृह के मैदान में जमा हो रहे थे। इस दुर्घटना ने सारे महाराष्ट्र में खलबली मचा दी।"
आंबेडकर के पुत्र यशवंतराव द्वारा चिता को मुखाग्नि देने से पहले एक लाख से ज़्यादा दलितों ने बाबा साहब की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए हिंदू धर्म त्यागकर बौद्ध धर्म स्वीकार किया।
'आंबेडकर सही मायनों में अखिल भारतीय शख्सियत बन गए थे। वह निर्विवाद रूप से समूचे भारत में प्रभाव रखने वाले पहले अस्पृश्य नेता थे।'
‘7 दिसंबर को बंबई के सभी कल-कारखाने, गोदियाँ, रेल कारखाने और कपड़ा मिलें बंद रहीं। बंबई नगर निगम के सफ़ाई विभाग का नौकर वर्ग काम पर नहीं गया। स्कूल, महाविद्यालय, चित्रपटगृह बंद थे। नागपुर आदि विभिन्न शहरों में स्वयंस्फूर्त हड़ताल की गई। जुलूस निकले। अहमदाबाद की कपड़ा मिलें बंद की गईं। उस भयंकर दुखद ख़बर से अनेक लोगों के हाथ- पाँव गल गए। कुछ लोग तो मूर्छित हो गए।’