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सिर्फ सरकार की वजह से बढ़ी है महंगाई? जानें कैसे! 

इस बार की महंगाई खास है क्योंकि इसका सबसे बड़ा लाभ सरकार उठा रही है, उल जलूल कार्यक्रमों और फ़ालतू शौक पर खर्च कर रही है। सरकारी कर्मचारियों को महंगाई भत्ते दे रही है और मुफ्त राशन जैसी योजनाओं से ‘लाभार्थी’ बना रही है जिनसे नमक का कर्ज चुकाने के नाम पर वोट मांगा और पाया जा रहा है। 

अरविंद मोहन

यह सच है कि महंगाई पहली बार नहीं आई है और कोरोना तथा यूक्रेन युद्ध ने परेशानियां बढ़ाई हैं। महंगाई और मुद्रास्फीति के मामले में हर सरकार बैकफुट पर होती है क्योंकि आंख में शर्म नाम की भी कोई चीज होती है।

लेकिन हमारी यह सरकार और इसके समर्थक खास हैं जो महंगाई के सवाल पर बिना पलक झपकाए सरकार को सही और महंगाई का सवाल उठाने वाले को देशद्रोही बताने में लगे हैं।

और महंगाई और बेरोजगारी जैसी परेशानियों से देश का ध्यान भटकाने के लिए अजान, हनुमान चालीसा, रामनवमी पर हिंसा जैसे मामले खड़े किये जा हैं।

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इस बार की महंगाई खास है क्योंकि इसका सबसे बड़ा लाभ सरकार उठा रही है, उल जलूल कार्यक्रमों और फ़ालतू शौक पर खर्च कर रही है। सरकारी कर्मचारियों को महंगाई भत्ते दे रही है और मुफ्त राशन जैसी योजनाओं से ‘लाभार्थी’ बना रही है जिनसे नमक का कर्ज चुकाने के नाम पर वोट मांगा और पाया जा रहा है। 
Inflation in india and Modi Government - Satya Hindi
इस बार की महंगाई का सबसे उल्लेखनीय पक्ष यह है कि नींबू को छोडकर कहीं भी मांग और आपूर्ति या मौसमी उतार-चढाव का असर नहीं दिख रहा है। पूरी महंगाई सरकारी फैसलों और नीतियों से आई है। 
भयावह महंगाई है। सरकारी तंत्र और लूट का डरावना जाल बुना गया है। सारे सरकारी आंकड़े शक के दायरे में हैं। जिस थोक मूल्य सूचकांक पर घट-बढ़ के आधार पर महंगाई का अब तक पता चलता था, उसे मोदी सरकार ने रद्दी की टोकरी में डाल दिया है।

और जो उपभोक्ता मूल्य सूचकांक बना है उसमें हमारे आपके उपभोग के वस्तुओं का भारांक (वेटेज) सन्देहास्पद ढंग से ऊपर नीचे किया हुआ है। सरकार ने अपने संगठन से, जो अंगरेजी शासन के समय से आंकडे जुटाने का काम करता था, सर्वेक्षण और गणना का काम कराना बन्द कर दिया है। बाकी चीजों में सरकारी आंकडे जैसे भी रहे हों केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन के आंकडों की वैश्विक प्रतिष्ठा रही है। 

आज उपभोक्ता मूल्य सूचकांक छह फीसदी के भी पार चला गया है। शोर मचना तभी शुरु हुआ है। असल में जब खाने-पीने की चीजों पर महंगाई की मार अझेल हो गई तब शोर मचा, वरना सोने-चांदी  और पेट्रोलियम की महंगाई तो चल ही रही थी। अकेले मार्च महीने में सूचकांक लगभग एक फीसदी (0.88 फीसदी) चढ़ गया। और यह तब हुआ जब सब्जियों के दाम में आग लगी। खाद्य पदार्थों में मंहगाई का सबसे ज्यादा असर खाद्य तेलों पर हुआ।

Inflation in india and Modi Government - Satya Hindi

सरकार और उसके भक्तों ने फ़ौरन कहा कि महंगाई यूक्रेन युद्ध की वजह से हैं। सरकार आराम से सोती रही। उसने समय रहते कदम नहीं उठाये। मुद्रास्फीति  की वृद्धि देखकर भी केन्द्रीय बैंक की ऋण नीति को ज्यादा से ज्यादा नरम रखा ताकि बाजार से भारी उधार जमा कर लेना सम्भव हो। 

आज अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने ब्याज दर में एक वृद्धि कर दी है और पांच और वृद्धि की तैयारी कर रहा है। ब्रिटेन ने भी तीन बार ब्याज दर बढाई है लेकिन रिजर्व बैंक चार फीसदी के लक्षित मुद्रास्फीति की सीमा पार होने के बाद भी सालों से आंख बन्द करके पैसा उठाए जा रहा है। उसका लक्ष्य 200 अरब डालर का उधार जुटाने का है। 

जब मनमोहन सिंह के राज में अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में पेट्रोलियम की कीमतें 120-125 डालर बैरल तक पहुंच गई थीं और इस कारण भारत में पेट्रोल-डीज़ल के दाम बढ़े तो नरेन्द्र मोदी और उनकी भक्त टोली ने बहुत शोर मचाया था।

मोदी सरकार के आने के बाद जब पेट्रोलियम की कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में बीस-पचीस डालर हो गई तो मोदी ने उसे अपने भाग्य से जोड दिया और कहा कि वो देश के लिये भाग्यशाली हैं। तब उनके वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इसका फ़ायदा आम उपभोक्ताओं को नहीं दिया, उल्टे सरकार का ख़ज़ाना भरते रहे और कर बढ़ाते गए। आज हालत यह है कि हर साल ढाई से पौने तीन लाख करोड़ रुपए का राजस्व सरकारी खजाने में जा रहा है। 

इस दौर में सरकार ने दूसरी गलती या दूसरा पाप यह किया कि मुद्रास्फीति की दर तय चार फीसदी के पार होने के बाद भी (जबकि थोक मूल्य सूचकांक तो कब से दोहरे अंकों में आकर महंगाई का शोर मचा रहा था) उसने रिजर्व बैंक के रेट में बढ़ोतरी न करके अपना पैसा बटोरू कार्यक्रम जारी रखा जबकि करोडों जमाकर्त्ताओं की जमा पूंजी की कमाई आधी से से भी कम हो गई। 

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और यह मत पूछिएगा कि अकेले पेट्रोलियम पदार्थों से मोदी सरकार ने अब तक जो पन्द्रह लाख करोड से ज्यादा की अतिरिक्त रकम जुटाई है वो किस काम में लगे। वे सिर्फ लाभार्थी बनाने में ही नहीं भक्त बनाने के भी काम आए हैं। आप नजर डालिए आपको आसपास ऐसे लाभार्थी और भक्त दोनों नजर आ जाएंगे। और ये लोग छुट्टा होकर दंगा-फसाद कर रहे हैं, महंगाई और बेरोज़गारी या धर्मनिरपेक्षता जैसे सवालों पर बात करने वालों को राष्ट्रद्रोही करार दे रहे हैं। विडंबना ये है कि विपक्ष भी शांत बैठा है।

ऐसा लगता है कि सारे विपक्षी दल मध्य और उच्च वर्ग के प्रतिनिधि बन कर रह गए हैं। जो खुद को गरीब और कमजोर का प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं, वे भी असली मौके पर पैसे वालों को टिकट बेचकर अपनी राजनीति चमकाने में लगे हैं। 

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