हाल ही में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद यानी एनसीईआरटी ने 'विभाजन विभीषिका' शीर्षक से एक विशेष मॉड्यूल जारी किया है। इस मॉड्यूल (अनुभाग) को कक्षा 6 से 8 (मध्य स्तर) के लिए एक पूरक संसाधन के रूप में वर्णित किया गया है और इसका उपयोग परियोजनाओं, पोस्टरों, चर्चाओं और बहसों के लिए किया जाना है। यह पूरक संसाधन सामग्री भारत के विभाजन के दोषियों/संगठनों की खोज के लिए  है या यह आरएसएस के आकाओं की इच्छानुसार एक सांप्रदायिक आख्यान पेश करता है।

पूरा दस्तावेज़ छल-कपट, विरोधाभासों और झूठ से भरा है, जिसका उद्देश्य विभाजन के बारे में सच बताने के बजाए, उससे कहीं ज़्यादा छिपाना लगता है। एनसीईआरटी के झूठ को कई तरह से देख सकते हैं। पहली कड़ी में आपने पढ़ा कि 'झूठ-1: मुस्लिम लीग के नेता जिन्ना और राजनीतिक इस्लाम ने दो-राष्ट्र सिद्धांत की नींव रखी'। इस कड़ी में पढ़िए 4 और झूठ को।

झूठ 2: 

मुस्लिम लीग सभी भारतीय मुसलमानों की पार्टी
यह मॉड्यूल यह आख्यान गढ़ने का प्रयास करता है कि मुस्लिम लीग भारत के सभी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती थी क्योंकि मार्च 1946 में संविधान सभा के चुनावों में उसने "मुसलमानों के लिए आरक्षित 78 में से 73 सीटें जीती थीं"। [प्रष्ठ 7 ] लेखक यह नहीं बताते कि मुस्लिम लीग अत्यधिक प्रतिबंधित मताधिकार प्रणाली के कारण जीती थी, जिसमें मुसलमानों का एक छोटा सा अल्पसंख्यक वर्ग ही मतदान करता था। उस समय प्रचलित प्रतिबंधित मताधिकार के तहत प्राप्त लाभ के कारण मुस्लिम लीग अधिकांश मुस्लिम सीटें जीतने में सफल रही।

ये चुनाव 1935 के अधिनियम की छठी अनुसूची के तहत हुए थे, जिसके अनुसार, संपत्ति और शैक्षिक योग्यता के आधार पर किसानों, अधिकांश छोटे दुकानदारों और व्यापारियों, और अनगिनत अन्य समूहों को मतदाता सूची से बाहर रखा गया था। भारतीय संविधान निर्माण की प्रक्रिया के एक प्रसिद्ध विशेषज्ञ, ग्रैनविल ऑस्टिन के अनुसार, "प्रांतों की केवल 28.5 प्रतिशत वयस्क आबादी ही 1946 की शुरुआत में हुए प्रांतीय विधानसभा चुनावों में मतदान कर सकती थी...आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को 1935 के अधिनियम की शर्तों के तहत लगभग मताधिकार से वंचित कर दिया गया था।"
[Austin, Granville, The Indian Constitution: Cornerstone of a Nation, OUP, Delhi, 2014. pp. 12-13.]
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मुस्लिम मतदाता कम थे

मुसलमानों में मतदाताओं की तादाद व्यापक गरीबी और शिक्षा के अभाव के कारण बहुत कम थी। उदाहरण के लिए, बिहार में, जहाँ मुस्लिम लीग ने प्रांतीय विधानसभा चुनावों में 40 में से 34 मुस्लिम सीटें जीतीं, वहाँ योग्य मुस्लिम मतदाता कुल जनसंख्या का केवल 7.8 प्रतिशत ही थे। मुस्लिम अभिजात वर्ग/उच्च जाति के समर्थन के कारण वह जीत सकी, जबकि बिहार के 92.2% मुसलमान मताधिकार से वंचित रहे। लगभग अन्य सभी प्रांतों में भी यही स्थिति थी।
[Ghosh, Papiya, Muhajirs and the Nation: Bihar in the 40s, Routledge, Delhi, 2010, 79.]

मॉड्यूल जिन्ना के नेतृत्व वाली मुस्लिम लीग को भारतीय मुसलमानों की पार्टी बताता है, लेकिन इस तथ्य पर ध्यान नहीं देता कि मुसलमानों की यही वह पार्टी थी जिसके साथ सावरकर के नेतृत्व में हिंदू महासभा ने एकजुट स्वतंत्रता संग्राम, खासकर 1942 के ब्रिटिश शासकों के ख़िलाफ़ भारत छोड़ो आंदोलन को तोड़ने के लिए गठबंधन किया था। 1942 में कानपुर में हिंदू महासभा के 24वें अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण देते हुए, उन्होंने मुस्लिम लीग के साथ अपनी सांठगांठ का बचाव इन शब्दों में किया था:

"व्यावहारिक राजनीति में भी महासभा जानती है कि हमें उचित समझौतों के माध्यम से आगे बढ़ना चाहिए। इस तथ्य को देखें कि हाल ही में सिंध में, सिंध-हिंदू-सभा ने निमंत्रण पर गठबंधन सरकार चलाने के लिए लीग के साथ हाथ मिलाने की ज़िम्मेदारी ली थी। बंगाल का मामला सर्वविदित है। उग्र लीगी, जिन्हें कांग्रेस अपनी पूरी विनम्रता के साथ भी शांत नहीं कर सकी, हिंदू महासभा के संपर्क में आते ही काफी हद तक समझौतावादी और मिलनसार हो गए और श्री फ़ज़लुल हक़ के प्रधानमंत्रित्व [उस समय CM को प्रधान मंत्री कहा जाता था] और हमारे सम्मानित महासभा नेता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के कुशल नेतृत्व में गठबंधन सरकार ने दोनों समुदायों के लाभ के लिए लगभग एक वर्ष तक सफलतापूर्वक कार्य किया। इसके अलावा, आगे की घटनाओं ने भी स्पष्ट रूप से साबित कर दिया कि हिंदू महासभा ने राजनीतिक सत्ता के केंद्रों पर कब्ज़ा करने का प्रयास केवल जनहित में किया था, न कि पद के लाभ के लिए।" [Ibid, pp. 479-480.]

कितनी अफ़सोस की बात है कि यह मॉड्यूल हिंदू राष्ट्रवादियों के सहयात्री दो-राष्ट्र विचारक जिन्ना का बचाव करता है। जिन्ना के हवाले से कहा गया है, "मैंने कभी नहीं सोचा था कि ऐसा होगा। मैंने अपने जीवनकाल में पाकिस्तान देखने की कभी उम्मीद नहीं की थी"

मॉड्यूल के लेखक यह संदेश देना चाहते हैं कि जिन्ना को इसकी उम्मीद नहीं थी, लेकिन कांग्रेस ने जिन्ना को पाकिस्तान को भेंट स्वरूप दे दिया!

झूठ 3: 

विभाजन के लिए कांग्रेस दोषी
एनसीईआरटी मॉड्यूल के "विभाजन के लिए दोषी कौन?" [पृष्ठ 9] शीर्षक वाले एक खंड में लिखा है: "1947 में भारत का विभाजन किसी एक व्यक्ति का कार्य नहीं था। ऐतिहासिक दृष्टि से भारत के विभाजन के लिए तीन तत्व ज़िम्मेदार थे। जिन्ना, जिन्होंने इसकी माँग की; दूसरे, कांग्रेस, जिसने इसे स्वीकार किया। तीसरे, माउंटबेटन, जिन्होंने इसे औपचारिक रूप देकर कार्यान्वित किया। [पृष्ठ 9]

मॉड्यूल के अनुसार, विभाजन के लिए मुख्य रूप से कांग्रेस ज़िम्मेदार थी क्योंकि 1947 में "पहली बार भारतीय नेताओं ने ही देश का एक विशाल भाग -कई करोड़ नागरिकों सहित-स्वेच्छा से स्थायी रूप से राष्ट्रीय सीमा से बाहर कर दिया। वह भी बिना उन करोड़ों नागरिकों की सहमती के। यह मानव इतिहास में अद्वितीय घटना थी, जब किसी देश के नेताओं ने-बिना युद्ध के, शांतिपूर्वक और बंद कमरों में-अचानक करोड़ों लोगों को अपने ही देश से अलग कर दिया।" [पृष्ठ 11]

जब आरएसएस के 'बौद्धिक शिविरों' में प्रशिक्षित एनसीईआरटी के गुरु, विभाजन के लिए कांग्रेस को दोषी ठहराते हैं, तो यह इस कहावत की तरह है जिसमें कहा गया है: उलटा चोर कोतवाल को डांटे! यह एक बेहद संदिग्ध दावा है, जिसकी पुष्टि मॉड्यूल में दिए गए तथ्य भी नहीं करते। हमें बताया गया है कि सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इसे "कड़वी दवा" कहा था, जबकि जवाहरलाल नेहरू ने इसे "बुरा" लेकिन "अपरिहार्य" बताया था [पृष्ठ 5]। मॉड्यूल में एक और जगह लिखा है: "नेहरू और पटेल ने गृहयुद्ध और अराजकता को टालने के लिए विभाजन को स्वीकार कर लिया। एक बार उन्होंने ऐसा कर लिया, तो गांधी ने भी अपना विरोध छोड़ दिया।" [पृष्ठ 8] यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि विभाजन पर सहमति जताने के लिए, दोनों ढुलमुल नेहरू और लौह पुरुष पटेल को एक ही पृष्ठ पर दर्शाया गया है!

जवाहर लाल नेहरू

क्या लोहिया को पढ़ा?

अगर एनसीईआरटी मॉड्यूल के लेखकों ने ईमानदारी से प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया को पढ़ा होता तो सच्चाई को सूली पर नहीं चढ़ा दिया गया होता। उनका स्पष्ट मानना था कि अखंड या अखंड भारत की सबसे ऊँची आवाज़ उठाने वाले हिंदू सांप्रदायिक तत्वों ने "ब्रिटेन और मुस्लिम लीग को देश का विभाजन करने में मदद की... उन्होंने मुसलमानों को हिंदुओं के करीब लाने के लिए कुछ भी नहीं किया, एक राष्ट्र के भीतर। उन्होंने उन्हें एक-दूसरे से अलग करने के लिए लगभग हर संभव प्रयास किया। यही अलगाव विभाजन का मूल कारण है।"
[Lohia, Rammanohar, Guilty Men of India’s Partition, BR Publishing, Delhi, 2012, p. 2.]

झूठ 4: 

ब्रिटिश शासक विभाजन नहीं चाहते थे
यह मॉड्यूल हिंदू महासभा और आरएसएस की संयुक्त इस दुविधा को दर्शाता है कि स्वतंत्र भारत में औपनिवेशिक आकाओं के प्रति अपनी वफ़ादारी की ग़द्दारी को कैसे छुपायें। हालाँकि मॉड्यूल यह घोषित करता है कि “माउंटबेटन ने जल्द बाज़ी और पहले से महत्वपूर्ण इंतज़ाम कर लेने के प्रति लापरवाही की” [पृष्ठ 9] इस राक्षस का बचाव करने में ज़्यादा देर नहीं लगती। इसी पंक्ति में बताया जाता है कि "वे इसका कारण नहीं थे"। [पृष्ठ 9] 
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विभाजन के पीड़ितों (सभी धर्मों के) की प्रचुर मात्रा में उपलब्ध साक्ष्यों को प्रस्तुत करने के बजाय, मॉड्यूल माउंटबेटन का असमर्थनीय बचाव प्रस्तुत करता है। यह उनके निम्नलिखित कथन को उनकी तस्वीर के साथ प्रमुखता से प्रदर्शित करता है: "मैंने भारत का विभाजन नहीं किया। विभाजन की योजना भारतीय नेताओं द्वारा पहले ही स्वीकार की जा चुकी थी। मेरा कार्य यथासंभव शांतिपूर्ण ढंग से क्रियान्वित करना था...मैं जल्दबाज़ी के लिए दोष स्वीकार करता हूँ...परंतु बाद में हुई हिंसा का दोष नहीं। उस का उत्तरदायित्व भारतीयों पर था।" [पृष्ठ 6]

यह दस्तावेज़ अपनी साम्राज्यवादी परियोजना के तहत भारत के विभाजन में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों की भूमिका को बेशर्मी से कमतर आंकने का प्रयास करता है। यह पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि "ब्रिटिश सरकार सदैव विभाजन के विरुद्ध थी, कांग्रेस नेताओं ने जिन्ना को कम आंका। इसके अतिरिक्त, वायसराय लॉर्ड वावेल ने 1940 से मार्च 1947 तक बार-बार कहा था कि विभाजन से हिंदू-मुस्लिम समस्या का समाधान नहीं होगा, और यह केवल व्यापक हिंसा, प्रशासनिक पतन और दीर्घकालिक शत्रुता को जन्म देगा। उनकी यह चेतावनी मानो भविष्यवाणी की तरह सिद्ध हुए।" [पृष्ठ 11  औपनिवेशिक आकाओं की 'फूट डालो और राज करो' परियोजना का इससे अधिक बेशर्म बचाव नहीं हो सकता था।

यह कितना पीड़ादायक है कि भारतीय शिक्षा को उपनिवेश-मुक्त करने के लिए दिन-रात काम कर रही एनसीईआरटी, इस झूठ के समर्थन में एक कट्टर अंग्रेज़-परस्त  नीरद सी. चौधरी का सहारा ले रही है कि अंग्रेज़ विभाजन नहीं चाहते थे। नीरद का जो कथन पेश किया गया है उसके अनुसार: "मैं पूरे विश्वास से यह कहता हूँ कि 1946 के अंत तक भी भारत में किसी ने देश के विभाजन की संभावना में विश्वास नहीं किया था...हिंदुओं और ब्रिटिशों ने समान रूप से ही भारत की एकता के उस सिद्धांत का त्याग कर दिया था जिसका वे हमेशा से पालन करते आए थे।" [पृष्ठ 9-10]

इस दस्तावेज़ के लेखकों ने, वास्तव में, ब्रिटिश शासकों के बचाव में आरएसएस के महान गुरु गोलवलकर से ही ज्ञान अर्जित किया है। आरएसएस के सबसे प्रमुख ये विचारक, औपनिवेशिक शासन को अन्यायपूर्ण या अस्वाभाविक नहीं मानते थे। 8 जून 1942 को, जब स्वतंत्रता संग्राम भारत छोड़ो आंदोलन से दो महीने पहले अपने चरम पर था, गोलवलकर ने घोषणा की:

“संघ [आरएसएस] समाज की वर्तमान पतित स्थिति के लिए किसी और को दोष नहीं देना चाहता। जब लोग दूसरों को दोष देने लगते हैं, तो उनमें कमज़ोरी आ जाती है। कमज़ोर के साथ हुए अन्याय के लिए बलवान को दोष देना व्यर्थ है...संघ अपना अमूल्य समय दूसरों को गाली देने या उनकी आलोचना करने में बर्बाद नहीं करना चाहता। अगर हम जानते हैं कि बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों को खा जाती हैं, तो बड़ी मछली को दोष देना सरासर पागलपन है। प्रकृति का नियम, चाहे अच्छा हो या बुरा, हमेशा सत्य होता है। यह नियम अन्यायपूर्ण कहने से नहीं बदलता।”
[Golwalkar, M. S., Shri Guruji Samagr Darshan [Collected Works of Golwalkar in Hindi] vol. 1 (Nagpur: Bhartiya Vichar Sadhna, 1974), pp. 11-12.]

सर सिरिल रेडक्लिफ के अपराधों पर नरम रुख

इस मॉड्यूल के भोले लेखक, सर सिरिल रेडक्लिफ के अपराधों के लिए क्षमाप्रार्थी प्रतीत होते हैं, जिसने भारत और पाकिस्तान के बीच भूमि विभाजन का निर्धारण किया था। रेडक्लिफ ही वह व्यक्ति था जो बँटवारे के दौरान अतिरिक्त रक्तपात का कारण बना क्योंकि विभाजन के दो दिन बाद भी दोनों देशों के नक्शे उपलब्ध नहीं थे। मॉड्यूल में सही ही कहा गया कि, "सीमाओं का निर्धारण अत्यंत जल्दबाज़ी में हुआ। सर सिरिल रेडक्लिफ को सीमाएँ तय करने के लिए सिर्फ़ पाँच सप्ताह का समय दिया गया था। पंजाब में, 15 अगस्त 1947 के दो दिन बाद  तक लाखों लोग नहीं जानते थे कि उन का गाँव या नगर भारत में है या पाकिस्तान में?... यह जल्दबाज़ी और करोड़ों लोगों के भविष्य, जीवन और सुरक्षा का ऐसे फ़ैसला करना एक गंभीर राजनीतिक लापरवाही थी।" [पृष्ठ 9]

लेकिन एनसीईआरटी ने साथ ही साथ उनकी तस्वीर के साथ उनकी इस माफ़ी को छापने का फ़ैसला किया: "मेरे पास कोई विकल्प नहीं था, मेरे पास समय इतना कम था कि मैं इससे बेहतर काम नहीं कर सकता था। मुझे एक काम दिया गया था और मैंने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया, हालाँकि यह बहुत अच्छा नहीं रहा होगा।" [पृष्ठ 10]

सिरिल रेडक्लिफ की आत्मा और उसकी संतानें यक़ीनन एनसीईआरटी को आभार प्रगट कर रही होंगी!

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झूठ 5: 

आरएसएस कि विभाजन हिंसा में हिस्सेदारी पर चुप्पी
यह मॉड्यूल विभाजन के दौरान हुई भयावह सांप्रदायिक हिंसा का विवरण देता है। "विभाजन की सबसे बड़ी विभीषिकाओं में एक था निर्दोष लोगों का बड़े पैमाने पर नरसंहार। 1.5 करोड़ लोगों को जहां तहां भटकना पड़ा...भारत के प्रमुख धार्मिक समुदायों के बीच आपसी शत्रुता फैल गई या...एक और अत्यंत भयावह पक्ष था महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ बड़े पैमाने पर अपराध। असंख्य स्थानों पर महिलाओं ने अपनी लाज बचाने के लिए कुओं में कूद कूद कर जान दे दी।" [पृष्ठ 2]

हम जानते हैं कि मुस्लिम लीग द्वारा विरोधियों को अपंग बनाने, मारने और उनकी संपतियों को नष्ट करने के लिये बनाए गए मुस्लिम नेशनल गार्ड्स (एमएनजी) ने विभाजन हिंसा में भीषण और महा-पापी की भूमिका निभाई थी। उसके निशाने पर ज़्यादा मुस्लिम लीग विरोधी मुसलमान थे। लेकिन मार-काट-लूट में वे अकेले नहीं थे। स्वतंत्र भारत के पहले गृह मंत्री सरदार पटेल ने 11 सितंबर 1948 को आरएसएस के तत्कालीन सुप्रीमो गोलवलकर को लिखे एक पत्र में इस तथ्य की पुष्टि की कि आरएसएस के भी हत्यारे गिरोह थे। उन्होंने बताया:
"हिंदुओं को संगठित करना और उनकी सहायता करना एक बात है, लेकिन निर्दोष और असहाय पुरुषों, महिलाओं और बच्चों पर उनके अत्याचारों का बदला लेना बिलकुल दूसरी बात है... हिंदुओं को उत्साहित करने और उनकी रक्षा के लिए संगठित करने के लिए ज़हर फैलाना ज़रूरी नहीं था। इस ज़हर के अंतिम परिणाम के रूप में देश को गांधीजी के अमूल्य जीवन का बलिदान देना पड़ा।"
[Cited in Justice on Trial, RSS, Bangalore, 1962, pp.26-28.]

सत्य: हिंदू महासभा-आरएसएस-जिन्ना ने विभाजन करवाया

स्वतंत्रता-पूर्व भारत की सांप्रदायिक राजनीति के अद्वितीय शोधकर्ता डॉ. बी. आर. आंबेडकर ने दो-राष्ट्र सिद्धांत के मुद्दे पर हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग के बीच घनिष्ठ संबंध और सौहार्द के बारे में लिखा:

"यह अजीब लग सकता है, लेकिन श्री सावरकर और श्री जिन्ना एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के मुद्दे पर एक-दूसरे के विरोधी होने के बजाय, इस पर पूरी तरह सहमत हैं। दोनों सहमत हैं, न केवल सहमत हैं, बल्कि इस बात पर ज़ोर देते हैं कि भारत में दो राष्ट्र हैं—एक मुस्लिम राष्ट्र और दूसरा हिंदू राष्ट्र।"
[Ambedkar, B. R., Pakistan or the Partition of India, Govt. of Maharashtra, Bombay, 1990 [Reprint of 1940 edition], p. 142.]

दो-राष्ट्र सिद्धांत और उस पर हिंदुत्व की बयानबाजी के बारे में सावरकर की दुष्ट योजनाओं के परिणामों पर प्रकाश डालते हुए डॉ. आंबेडकर ने 1940 में ही जता दिया था कि, "हिंदू राष्ट्र को उसके कारण एक प्रमुख स्थान प्राप्त होगा और मुस्लिम राष्ट्र को हिंदू राष्ट्र के अधीनस्थ सहयोग की स्थिति में रहना होगा।" [वही, 143.] यानी देश के हिंदुओं और मुसलमानों को एक दूसरे से लड़वाना!

भारत के विभाजन के बारे में हिंदुत्व ख़ेमे द्वारा गढ़े झूठ के पुलिंदे को "'विभाजन विभीषिका" में सच के रूप में प्रस्तुत करने से बचा जा सकता था अगर पूरी परियोजना का प्रभारी एक ऐसा विशेषज्ञ, मिशेल डैनिनो न होता जो ऐतिहासिक निषेधवाद (अतीत की सच्चाइयों को नकारना जिसका अर्थ एक झूठा इतिहास गढ़ना) में माहिर है। वे एक फ़्रांसीसी मूल के भारतीय लेखक हैं जिन्होंने 2003 में ही भारतीय नागरिकता हासिल की। मोदी सरकार ने उन्हें 2017 में भारत के चौथे सबसे बड़े नागरिक पुरस्कार पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया। वह हिंदुत्व के मुखर समर्थक हैं, जिन्हें उनके ही शब्दों में “[ऐतिहासिक] विवादों को एक प्रकार से विकृत तरीक़े से प्रस्तुत करना” उनके लिए आनंददायक है। 

वे इतिहास को बदलने के लिए मौजूद हैं और इस प्रक्रिया में लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष-समतावादी भारत के निर्माण के गौरवशाली इतिहास को भी मिटा रहे हैं। विडंबना यह है कि यह सब प्रधानमंत्री मोदी द्वारा घोषित राष्ट्र के ‘अमृत काल’ में हो रहा है!