जैसे बिहार को फतेह करने के लिए ‘घुसपैठिये’ एक नारा था, बंगाल को फतेह करने के लिए इस बार आप का ब्रह्मास्त्र ‘वंदे मातरम्’ है। क्या खूबसूरत दिमाग पाया है आपने कि सत्ता हड़पने की कितनी सारी तरकीबें उसके पास हैं।

इतिहास में अगर जाएँ तो वंदे मातरम् बंगाल साथ ही समूचे देश के स्वाधीनचेता नागरिकों के लिए अपनी जन्मभूमि की स्वतंत्रता के लिए कैसी भी कुर्बानी देने की दीवानगी थी। कुछ ऐसी ही भावनानुभूतियों से आन्दोलित हो हिन्दी के कवि माखनलाल चतुर्वेदी ने अपनी कविता पुष्प की अभिलाषा में मातृभूमि को सर्वोपरि मानते हुए उस पर अपने प्राणों को न्यौछावर कर देने की अभिलाषा की थी। यह भी निर्विवाद है कि बंकिमचन्द्र चटर्जी की कविता में जैसी प्राणवत्ता है, अर्थगौरव है, जैसा पद लालित्य और कल्पना प्रसार है, वह अतुलनीय है। इसकी संगीतमयता का तो खैर कहना ही क्या।

बंकिम बाबू की यह कविता हृदय की जिन गहराइयों से किसी मंत्र की तरह फूटी थी, लोक में भी ठीक वैसे ही मंत्र की तरह व्याप गई। कहने को यह बंगाल के एक कथाकार और कवि की कविता थी किन्तु भाषा और प्रांत की सँकरी सीमाओं को पीछे छोड़ते हुए यह पूरे देश के लोगों की चेतना और साँस बन गई। "वंदे मातरम्" जैसा इसका काव्यांश तक लोगों में ऐसा भाव भर दिया करता था कि पूरी कविता न भी उच्चारित की जाय तब भी ओउम् नमः शिवाय जैसा प्रभाव उत्पन्न कर दिया करता था। आज भी जिंदा लोगों के लिए यह छोटा सा काव्यांश कुर्बान हो जाने की विकलता से भर देता है। शब्द का मंत्र बन जाना इसी को तो कहते हैं।
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अब यह कविता, देश ने जिसे अपने प्रिय राष्ट्रगीत के रूप में सँजो रखा है, डेढ़ सौ बरसों की यात्रा पूरी चुकी है। स्वाभाविक ही है कि इसके महत्व और योगदान को याद किया जाये। अंततः रामायण महाभारत भी तो कविता ही हैं जिनसे इस देश को ठीक ठीक पहचानने का सुयोग आज भी मिलता है। वैदिक ऋषियों को भी कवि ही कहा जाता है। कवि का ही तो मन है जो इतना निष्कलुष, स्वच्छ और पवित्र होता है कि वह सत्य का साथ कभी छोड़ नहीं पाता। आप मेरी बात पर भरोसा न करें तो मानस के मंगलाचरण वाले बाबा तुलसीदास की याद कर लें- सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे।

बंकिम बाबू को याद कीजिए

बंकिम बाबू भी उस समय भारत के लोगों को उनके इसी सत्य की याद करा रहे थे- जिसे जननी और जन्मभूमि के गौरव की याद दिलाना कहते हैं। स्वभावतः जिन्हें भी उस वक्त इसका बोध हो पाया वे सब जाति और धर्म की सँकरी दीवारों को दरकिनार कर एक साथ आ खड़े हुए और आजाद होते ही इसे अपने प्रिय राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार लिया। देश के लोगों की यह एक ऐसी कृतज्ञता थी जो इन शब्दों के प्रति ऋणशोधन के भावों से भरी हुई थी।

आज जब ये शब्द डेढ़ सौ साल की यात्रा पूरी कर चुके हैं तब कुछ नए दावेदार इस अदा से सामने आ चुके हैं कि कवि के लिखे इस पूरे गीत को तब क्यों नहीं गाया गया, और आज भी क्यों नहीं गाया जा रहा है। वे देश और बंगाल के वोटरों को यह भी बताना चाहते हैं कि इसे अधूरा गाने की साजिश और हिमाकत किसने की और क्यों की? और इसके पीछे के अपराध किन वजहों से किए गए?

गीत को तब भी मानने को तैयार नहीं हुए थे

अब इन दावेदारों से पूछने की हिम्मत आज कौन करे कि आप तो इसके उस हिस्से को भी अपना गीत तब भी मानने को तैयार नहीं हुए थे जब देश के वे लोग, जिनकी पहचान आपको कभी चैन से सोने नहीं देती, तब भी गा रहे थे और आज भी गाते चले आ रहे हैं। अब आप यह कह रहे हैं कि इसे आधा अधूरा गा कर साजिशन इस गीत का अपमान किया गया और इसके अपराधी काँग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष नेहरू थे, जो बाद में लोगों के न चाहते हुए भी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठ गए। बैठने का हक तो आपके अनुसार वल्लभभाई पटेल का था। ऐसा शायद हो भी पाता अगर आप दोनों उस वक्त होते और यह दबाव बनाते कि असल हिन्दू पटेल हैं, नेहरू तो नकली हिन्दू हैं या आपके गढ़े मुहावरे में अर्बन नक्सल हैं। अफसोस आप दोनों तब इस धरती पर ठीक से अवतरित भी शायद नहीं हो पाए थे।

कहने को आप आज देश के दुर्भाग्य से प्रधानमंत्री हैं, एक ऐसे देश के जिसमें अनेक जातियों, धर्मों और विश्वासों के लोग रहते हैं। यहाँ मुसलमान तो रहते ही हैं, ईसाई, बौद्ध और जैन भी रहते हैं। सिक्ख और कबीरपंथी रहते हैं। सनातनी मूर्तिपूजक और मूर्तिपूजा विरोधी आर्यसमाजी हिन्दू भी रहते हैं। भाजपाई हिन्दुओं के अलावा शिवभक्त, गणेश पूजक, हनुमान पूजक, राम और कृष्ण भक्त- जन भी रहते हैं? क्या आप बताएँगे कि गीत के शेष टुकड़ों में ये सब भी कहीं हैं? अगर नहीं हैं तो क्या वे शेष टुकड़े इन भारतीयों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं? या आपके पास अपना जो सँकरा सत्य है बस उसी को देश का एकमात्र सच बना डालने को आप बेचैन हैं।
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पिछले बंगाल चुनाव में आपने क्या किया था?

अब आप ही याद करिए श्रीमान्! पिछली बार आप जब बंगाल फतेह के लिए गए थे आपके इस अभियान में तब जयश्रीराम का नारा आपके साथ था। इसी के बल पर आपने बंगाल की महिला मुख्यमंत्री, जो सनातनी हिन्दू ही हैं, दीदी ओ दीदी कहकर उनकी हँसी उड़ाई और उड़वाई थी। वंदे मातरम् का नारा तब क्यों नहीं था? जब आप सनातन की बात कर रहे थे तब भी वंदे मातरम् कहाँ था। यहाँ तक कि हरियाणा और बिहार के चुनाव तक आपको बंकिम बाबू और वंदे मातरम् की याद नहीं आई थी। अब चूँकि श्रीमान को बंगाल की फतेह पर निकलना है तो आप भूल गए जयश्रीराम और सनातन और याद आने लग रहा है केवल वंदे मातरम्। वाह रे राष्ट्र भक्त! जयश्रीराम बेमानी साबित। सनातन भी बेमानी। अब इकलौता सच आपके लिए है बस वंदे मातरम्।

वाह कितनी जबरदस्त चालें चलते हैं आप! क्या जबरदस्त दिमाग पाया है कि अच्छे अच्छे खुरापाती दिमाग भी हुजूर के आगे पानी भरें।

बस निवेदन भर है कि बंकिम बाबू के वंदे मातरम् को पूरा गाने से पहले उस संविधान जिसे आप लोगों को धोखा देने के लिए जब तब माथे से लगाते रहते हैं, उससे तो पूछ लीजिये कि क्या इस देश की महिमा अकेले सनातनी हिन्दुत्व के बल पर गाई जा सकती है? क्या इसकी आजादी में मुगल सम्राट बहादुर शाह ज़फर, अशफाक उल्ला खाँ, डंका शाह के खून का योगदान नहीं हैं? बिस्मिल, भगत सिंह, लाला लाजपत राय और ऊधम सिंहों का क्या कोई योगदान नहीं है? आम्बेडकर और उनके अनुयायियों का योगदान भी नहीं है?

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संविधान की मंशा क्या?

क्या राष्ट्रगीत के वे टुकड़े जिन्हें आप और आपकी सरकार अब मिलकर गाना चाहती है, क्या इन सबकी आस्था वाले देवी देवता वहाँ गीत के उन अंशों में हैं? अगर नहीं हैं तो आपकी यह कोशिश क्या सिर्फ सनातनी हिन्दुत्ववादियों और उन्हीं के देवी, देवताओं को राष्ट्र मानने की धीमी कोशिश और पहल में है? क्या हमारा संविधान और उसकी मंशाएँ यही हैं? अगर नहीं हैं तो आप ऐसे सवालों को देश की सबसे बड़ी पंचायत में कहीं इसलिए तो नहीं उठा रहे कि आपसे पहले के लोगों ने देश के प्रति सिर्फ और सिर्फ गद्दारी और अपराध किए हैं और अब आप राजा भगीरथ बन कर उनके पापों को धोने के लिए अवतार ले चुके हैं?

कौन नहीं जानता कि आपसे बड़ा और दिव्य अवतार इस देश ने अब तक पैदा ही कहाँ किया था! गीता वाले कृष्ण भी आपकी शक्तियों के सामने पानी भरें! झख मारें!

खैर,अब आप बंगाल जीतने के लिए जा रहे हैं तो जाइए। आप तो बिहार जीत चुकने पर देश के सामने यह घोषणा पहले ही कर ही चुके हैं कि बिहार वाली गंगा बंगाल तक भी जाती है भले ही वहाँ उसे हुगली कहा जाता है। जरूर जाइए श्रीमान्! इस बार वंदे मातरम् लेकर जाइए। पर याद कीजिए पिछली बार जब आप गुरुदेव टैगोर की दाढ़ी बढ़ा कर गए थे तब गुरुदेव ने आपका साथ ठीक उसी तरह नहींं दिया था जैसे कर्नाटक में हनुमान जी ने आपका साथ नहीं दिया था। इस बार के बंगाल में आप वंदे मातरम् लेकर जाइए। काली भी वहीं हैं, दुर्गा और सरस्वती तो वहाँ हैं ही। जाइए और खूब वंदे मातरम् कीजिए। पर याद रखिए वो बंगाल है और वहाँ एक जीती जागती दुर्गा, काली और सरस्वती बैठी हुई है। बंगाल जानता है कि वो कोई आपका हर दिन बदलता हुआ विश्वास और नारा नहीं है। शब्दों की कोरी रंगीन लफ्फाजी भी नहीं है। हम भी आपका यह जाना देखते रहेंगे। पर अपने चुनावी सैनिकों को कहिएगा कि वे बंकिम बाबू का समूचा गीत याद करके जरूर जाएँ। कहीं ऐसा न हो कि तृणमूल वाले आपको सामने खड़ा कर पूरा वंदेमातरम् सुनाने को कहने लगें और चारों खाने चित्त हो पड़ें।
(विजय बहादुर सिंह के फ़ेसबुक वाल से साभार)