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लालू जेल में रहें या बाहर, बिहार चुनाव के केंद्र में रहेंगे

बिहार के विधानसभा चुनाव में एक बात तय है कि लालू प्रसाद यादव चाहे ज़मीन पर हों या जेल में, वे और उनका परिवार इस बार भी चुनाव के केंद्र में होगा। इसके अलावा चुनाव ‘नीतीश लाओ और नीतीश हटाओ’ पर भी केंद्रित होगा। लेकिन राजनीति की प्रयोगशाला के रूप में बार-बार इस्तेमाल होने वाले बिहार के चुनावी समर में कई तरह के खुलासे होने बाक़ी हैं।
आलोक वर्मा

बीजेपी बिहार को वर्चुअल रैली का वृहद स्वरूप दिखा चुकी है, लालू की संपत्तियों का ब्यौरा पटना के चौराहों पर टांगा जा चुका है और लालू के बेटों को लेकर तंज कसने का अभियान शुरू हो चुका है। राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) में जान फूंकने की पूरी कोशिश तेजस्वी भी कर रहे हैं और किसी भी ओर जाकर राजनीतिक दावं-पेच में मुख्य भूमिका निभाने की कोशिश में पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी भी हैं। तरूण टाइप नाम उछालकर राजनीति की कड़ाही में थ्रिल, एक्शन और भावुकता का छौंक लगाने की कोशिशें होने लगी हैं। 

कुल मिलाकर राजनीति की प्रयोगशाला के रूप में बार-बार इस्तेमाल होने वाला बिहार एक बार फिर तैयार है। एक्शन, रोमांच, रहस्य और भावुकता सहित सभी गुणों को समेटे बिहार चुनावी समर की तैयारी कर रहा है।

2015 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने कई प्रयोग किए थे। बिहार के विकास के लिए लंबे-चौड़े पैकेज की घोषणा खुद पीएम नरेंद्र मोदी से करवाई गई। मोदी हर सभा में लालू की कड़ी आलोचना करते रहे लेकिन जब परिणाम आया तो बीजेपी के हिस्से में 53 और एनडीए के हिस्से में 58 सीटें आईं थीं। लालू अपनी रणनीति से 80 सीटें जीतने में कामयाब हुए थे।   

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बिहार विधानसभा चुनाव 2020 को लेकर विद्वत मंडलियों में चर्चा शुरू हो चुकी है और सभी को अपनी समझ के प्रति विश्वास है। बीजेपी को झारखंड में मिली हार को तोड़ने की बेचैनी है और विरोधी दलों को चुनाव जीत कर सत्ता में आने की। लेकिन चुनावी समर पूरी तरह आरंभ होने से पहले भी हालात कम दिलचस्प नहीं हैं। 

किसी चीज के विशेषज्ञ को उस चीज के बारे में सबसे ज्यादा जानकारी होती है। लेकिन हमारे देश में बिना डिग्री के डॉक्टर और बिना डिप्लोमा वाले मैकेनिकों की कमी नहीं है। ये अलग बात है कि इन डॉक्टरों और मैकेनिकों की सलाह को मानने का जोख़िम नहीं लिया जा सकता। 

सोशल मीडिया पर सक्रिय 'उस्ताद'

जाहिर है कि नेताओं को राजनीति के बारे में जनता से ज्यादा मालूम होता है और इसलिए वे राजनीति करते हैं और जनता राजनीति भुगतती है। लेकिन देश में बिहार शायद इकलौता ऐसा राज्य है जहां आप सड़कों पर राजनीति के 'उस्ताद' देख सकते हैं। हालांकि कोरोना काल की वजह से सड़कों के ये 'उस्ताद' आजकल वॉट्स ऐप ग्रुप और सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर ज्यादा सक्रिय दिखते हैं। 

बिहार में कोई चाय-पानी की दुकान या कचहरी में (वर्तमान में डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर) लगने वाली मंडली नहीं होगी जिसके लोग बिहार के राजनीतिक समीकरण का गहन अध्ययन करके ना बैठे हों। हर शख्स आपको बता देगा कि अगर लालू किसी तरह जेल से बाहर आ जाते हैं या उनकी वीडियो अपील बाहर आती है तो किस तरह के वोट का कितना प्रतिशत किधर जाने वाला है। 

क्यों नहीं बदले हालात?

मगर सौ टके का सवाल यही है कि इतनी गहरी राजनीतिक समझ और सक्रियता के बाद भी बिहार की हालत ऐसी क्यों है? क्यों सिल्क सिटी के रूप में मशहूर भागलपुर पहुंचने के लिए इतने साल बाद भी समुचित साधन नहीं हैं? क्यों आरा से पटना के बीच कोइलवर में आज भी जाम लगता है? और क्यों अभी भी बिजली नहीं आती? 

आख़िर क्यों बिहार चुनाव में महिला उम्मीदवारों की संख्या (2005-2015 के बीच सिर्फ 390) काफी कम होती है और क्यों कोसी में हर साल आने वाला उफान कई जिंदगियों को लील लेता है?

इन सबके बीच, राजनीति की प्रयोगशाला के रूप में बार-बार इस्तेमाल होने वाले बिहार के चुनावी समर में कई तरह के खुलासे होने हैं। कई ऐसी राजनीतिक करवट होंगी कि बिहार पूरी दुनिया का ध्यान बांधे रखेगा।

रहस्यों से उठेगा पर्दा

उदाहरण के लिए, पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी बीजेपी में जाएंगे या उससे गठबंधन करेंगे या फिर नीतीश से उनका गठजोड़ होगा या फिर वो अकेले ही मैदान में होंगे? आरजेडी के बाग़ी सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव अगला दांव क्या खेलेंगे? आरजेडी और जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के बाग़ी नेताओं का क्या होगा? ऐसे और इस जैसे कई और रहस्यों का उद्घाटन अभी होना बाकी है।

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इतना तय है कि इस बार फिर बिहार का चुनाव ‘नीतीश लाओ और नीतीश हटाओ’ पर केंद्रित होगा। बीजेपी-जेडीयू गठबंधन की बात साफ हो चुकी है। यह भी लगभग तय है कि 2015 की तरह बिहार के राजनीतिक स्टार लालू प्रसाद यादव लोगों के बीच नहीं होंगे लेकिन यह भी तय है कि लालू चाहे जमीन पर हों या जेल में, वे और उनका परिवार इस बार भी चुनाव के केंद्र में होगा। 

नीतीश कुमार का जादू बिहार बीजेपी के दिग्गज सुशील मोदी और एलजेपी के रामविलास पासवान के सिर चढ़ता है या फिर भीतरघात होता है, यह भी मायने रखेगा। 

चाहे कुछ भी हो, इस बार भी बिहार में शख्सियतें राजनीतिक चुनाव प्रचार पर भारी रहेंगी। इन सबके बीच डर सिर्फ यह है कि कहीं फिर एक बार बिहार की समस्याओं का अंबार नेताओं की शख्सियत में ना फंसकर रह जाए।

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