14 अप्रैल, 2025 को भारतीय संविधान के शिल्पी डॉ. भीमराव आंबेडकर की 135वीं जयंती पूरे देश में धूमधाम से मनाई गई। इस मौक़े पर देश ने उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी। पक्ष-विपक्ष के नेताओं ने एक स्वर में उनकी महानता को याद किया, जिससे साफ़ है कि डॉ. आंबेडकर अब एक राष्ट्रीय नायक के रूप में स्वीकार किए जा चुके हैं। लेकिन क्या वास्तव में डॉ. आंबेडकर के विचारों को अपनाया जा रहा है, या यह महज उनकी प्रतिमा को फूल-मालाओं से सजाने की औपचारिकता है? आज जब हिंदू राष्ट्र की मांग का शोर तेज हो रहा है, तब डॉ. आंबेडकर के विचारों और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) तथा उससे प्रेरित भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की राजनीति के बीच टकराव को समझना ज़रूरी हो जाता है। ख़ासतौर पर जब डॉ. आंबेडकर ने हिंदू राज को हक़ीक़त में बदलने से रोकने की आह्वान किया था।

सामाजिक न्याय की हकीकत

डॉ. आंबेडकर का पूरा जीवन दलितों और शोषितों को बराबरी का हक दिलाने के लिए समर्पित था। लेकिन उनकी जयंती की पूर्व संध्या पर उत्तर प्रदेश के प्रयागराज से एक दिल दहलाने वाली ख़बर आई। करछना थाना क्षेत्र के इसौटा गांव में 30 वर्षीय दलित युवक देवीशंकर को कथित तौर पर ज़िंदा जला दिया गया। 12 अप्रैल की रात उसे गांव के एक दबंग के खेत में गेहूं काटने ले जाया गया, और अगली सुबह उसका अधजला शव मिला। यह घटना उस वर्ग की दर्दनाक हक़ीक़त को सामने लाती है, जिसके लिए डॉ. आंबेडकर ने जीवनभर संघर्ष किया। सवाल उठता है कि क्या यही है बीजेपी की ‘डबल इंजन’ सरकार का सामाजिक न्याय? उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ रामराज्य और हिंदू विजय का दावा करते हैं, लेकिन दलितों पर हो रहे अत्याचार क्या उनके दावों की पोल नहीं खोलते?

डॉ. आंबेडकर और हिंदू राष्ट्र

डॉ. आंबेडकर ने हिंदू राष्ट्र की अवधारणा पर साफ़ और कठोर विचार रखे थे। उन्होंने अपनी किताब पाकिस्तान ऑर दि पार्टीशन ऑफ इंडिया में लिखा, “अगर हिंदू-राज सचमुच एक वास्तविकता बन जाता है तो इसमें संदेह नहीं कि यह देश के लिए भयानक विपत्ति होगी, क्योंकि यह स्वाधीनता, समता और बंधुत्व के लिए ख़तरा है। इस दृष्टि से यह लोकतंत्र से मेल नहीं खाता। हिंदू राज को हर क़ीमत पर रोका जाना चाहिए।”


देवीशंकर की हत्या जैसी घटनाएँ उस विपत्ति की ओर इशारा करती हैं, जिसका ज़िक्र डॉ. आंबेडकर ने किया था। फिर भी, बीजेपी के नेता एक तरफ डॉ. आंबेडकर की जयंती पर उनकी प्रशंसा करते हैं, तो दूसरी तरफ़ हिंदू राष्ट्र की मांग को बढ़ावा देने वालों का समर्थन करते हैं। इसका उदाहरण है बागेश्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री, जो हिंदू राष्ट्र के लिए यात्राएँ निकालते हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने हाल ही में उन्हें अपना ‘छोटा भाई’ कहकर सम्मानित किया। यह दोहरा रवैया क्या दर्शाता है? क्या यह डॉ. आंबेडकर के विचारों को दबाने की कोशिश नहीं है?

आंबेडकर और आरएसएस का इतिहास

डॉ. आंबेडकर और आरएसएस के बीच वैचारिक टकराव का इतिहास पुराना है। 14 अप्रैल, 1891 को मध्य प्रदेश के महू में एक ‘अछूत’ महार परिवार में जन्मे बाबासाहेब ने बचपन से ही छुआछूत का दंश झेला। स्कूल में अलग बैठने और पानी न छू पाने जैसे अपमान उनके संघर्ष का आधार बने। कोलंबिया यूनिवर्सिटी और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद उन्हें भारत में भेदभाव का सामना करना पड़ा। 

1927 में महाड़ सत्याग्रह के ज़रिए उन्होंने दलितों को सार्वजनिक तालाब से पानी पीने का हक दिलाया। उसी साल 25 दिसंबर को उन्होंने मनुस्मृति का दहन किया, जो दलितों और महिलाओं के ख़िलाफ़ अमानवीय व्यवहार को धर्मसम्मत ठहराती थी। यह क़दम सदियों के अन्याय के ख़िलाफ़ बग़ावत था।

लेकिन जब 1949 में संविधान सभा ने समानता पर आधारित संविधान को स्वीकार किया तो आरएसएस ने इसका विरोध किया। उनके मुखपत्र ऑर्गनाइजर ने 30 नवंबर, 1949 को लिखा, “हमारे संविधान में प्राचीन भारत के अनूठे संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनु के नियम… आज भी दुनिया भर में प्रशंसा पाते हैं।” यह वही मनुस्मृति थी, जिसे डॉ. आंबेडकर ने 22 साल पहले जला दिया था।


1950 में जब डॉ. आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल के ज़रिए महिलाओं को तलाक, संपत्ति और विवाह में समान अधिकार देने की कोशिश की, तो आरएसएस ने इसका पुरजोर विरोध किया। देशभर में प्रदर्शन हुए, उनके पुतले जलाए गए। इतिहासकार रामचंद्र गुहा के अनुसार, “आरएसएस ने इसे ‘हिंदू समाज पर एटम बम से प्रहार’ बताया।” इस विरोध ने डॉ. आंबेडकर को इतना निराश किया कि उन्होंने 1951 में नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया।

हिंदू धर्म का त्याग और बौद्ध धर्म

डॉ. आंबेडकर को समझ आ गया था कि हिंदू धर्म के ढाँचे में दलितों को सम्मान नहीं मिल सकता। 1935 में येवला सम्मेलन में उन्होंने ऐलान किया, “मैं हिंदू के रूप में पैदा हुआ हूँ, क्योंकि मेरे पास कोई विकल्प नहीं था, लेकिन मैं हिंदू के रूप में मरूंगा नहीं।” आखिरकार, 6 दिसंबर, 1956 को नागपुर में लाखों अनुयायियों के साथ उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार किया।

इस मौके पर उन्होंने 22 प्रतिज्ञाएं दिलवाईं, जिनमें पहली चार थीं:

इन प्रतिज्ञाओं से साफ़ है कि डॉ. आंबेडकर हिंदुत्ववादी विचारधारा के पूरी तरह ख़िलाफ़ थे। फिर भी, आज उनकी प्रतिमाओं को माला चढ़ाकर उनके विचारों को दबाने की कोशिश की जा रही है।

आज की हकीकत

आज भी डॉ. आंबेडकर की प्रतिमाओं पर हमले हो रहे हैं। ये हमले सिर्फ़ ‘दबंगों’ की करतूत नहीं, बल्कि उन सवर्ण सामंती ताक़तों की साज़िश हैं, जो बीजेपी की सत्ता से संरक्षित हैं। ये ताक़तें समानता और बंधुत्व की बात करने वाले डॉ. आंबेडकर को कभी माफ़ नहीं कर सकतीं।


डॉ. आंबेडकर ने कहा था, “भारत के अल्पसंख्यकों का यह दुर्भाग्य है कि यहाँ राष्ट्रवाद ने एक नया सिद्धांत विकसित कर लिया है, जिसे बहुसंख्यकों का अल्पसंख्यकों पर शासन करने का दैवी अधिकार कहा जाता है।” आज हिंदू राष्ट्र और राष्ट्रवाद के नाम पर अल्पसंख्यकों और दलितों पर हमले उनकी इस चेतावनी को सही साबित करते हैं।


सच्चाई यह है कि आरएसएस को डॉ. आंबेडकर के विचारों से डर लगता है इसलिए वह उन्हें माला फूल के नीचे दबा देना चाहता है। हिंदू राष्ट्र का नारा हो या अल्पसंख्यकों पर हमले, ये सब डॉ. आंबेडकर के समानता और स्वतंत्रता के सपने पर चोट हैं। उनकी प्रतिमा पर माला चढ़ाने से हिंदुत्ववादी ताक़तों के इरादे छिप नहीं सकते।