अब तक 11 जाँच आयोग बिठाए जा चुके हैं और यह सिलसिला ख़त्म होने की कोई उम्मीद नहीं है। भारतीय राज्य के लिए यह एक रिवाज बन गया है कि पंजाब और दिल्ली (जहाँ सिख मतदाताओं की बड़ी तादाद है) में जब भी चुनाव होने वाले हों, एक नए आयोग की घोषणा कर दी जाये या क़त्लेआम में मारे गए लोगों के परिवारों को कुछ और मुआवज़ा देने का एलान कर दिया जाए।
लगभग पिछले तीन दशकों से मैं हर नवम्बर महीने के आरम्भ में देश को, 1984 में संयोजित ढंग से किये गए सिखों के क़त्लेआम के बारे में इस सच्चाई से अवगत कराता रहा हूँ कि इस शर्मनाक जनसंहार के मुज़रिमों को सज़ा देना तो दूर की बात रही, क़ातिलों की पहचान तक नहीं हो पाई है। देश के दूसरे सबसे बड़े धार्मिक अल्पसंख्यक सम्प्रदाय के जनसंहार पर प्रजातान्त्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारतीय गणतंत्र और न्यायपालिकाएँ, सभी मूक दर्शक बने रहे हैं या मुज़रिमों की तलाश का पाखंड किया है।
राजसत्ता का पाखंड
1984 नवम्बर के आरम्भ में हत्यारी टोलियों को खुली छूट देने के बाद, देश में राज कर रही राजीव गाँधी की कांग्रेसी सरकार को, विश्व भर में मिल रही धिक्कार के बाद इस क़त्लेआम के ज़िम्मेदार आतंकवादियों के ख़िलाफ़ क़दम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा। 'दंगों' की जाँच के लिए एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी, वेद मारवाह की अगुआई में जाँच आयोग 1984 के अंत में नियुक्त किया गया। जब मारवाह आयोग अपनी विस्फोटक रपट लगभग तैयार कर चुका था, इसे 1985 के मध्य बर्ख़ास्त कर दिया गया।
अब सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश रंगनाथ मिश्र की अध्यक्षता में '1984 दंगों' पर एक नया आयोग बनाया गया। मिश्र आयोग ने 1987 में अपनी रपट पेश कर दी।
मिश्र आयोग के अनुसार, 'ये दंगे सहज रूप से शुरू हुये, लेकिन बाद में इसका नेतृत्व गुंडों के हाथों में आ गया।' न्यायाधीश मिश्र ने इस क़त्लेआम को 'दंगे' (इस का मतलब होता है जब दोनों ओर से हिंसा हो) 'सहज' घोषित कर दिया।
सरकार ने बाद में उन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया था।
अब तक 11 जाँच आयोग बिठाए जा चुके हैं और यह सिलसिला ख़त्म होने की कोई उम्मीद नहीं है। भारतीय राज्य के लिए यह एक रिवाज बन गया है कि पंजाब और दिल्ली (जहाँ सिख मतदाताओं की बड़ी तादाद है) में जब भी चुनाव होने वाले हों, एक नए आयोग की घोषणा कर दी जाये या क़त्लेआम में मारे गए लोगों के परिवारों को कुछ और मुआवज़ा देने का एलान कर दिया जाए। मशहूर वकील एच. एस. फूलका, जिन्होंने 1984 के जनसंहार के ज़िम्मेदार तत्वों को सजा दिलाने के लिए बेमिसाल काम किया है, बहुत दुःख के साथ बताते हैं कि 'इस क़त्लेआम में शामिल बहुत सारे नेता किसी सज़ा के भागी होने के बजाए शासक बन बैठे और वह भी इस वजह से कि उन्होंने इस जनसंहार में हिस्सा लिया था।'
कहाँ है जाँच रिपोर्ट?
यह शर्मनाक खेल किस तरह लगातार खेला जा रहा है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि 16 अगस्त, 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने 2 भूतपूर्व न्यायधीशों वाली समिति गठित की थी जिसे 1984 की हिंसा के 241 मामलों के बंद किये जाने के 3 महीने के भीतर जाँच करके रपट देनी थी। नवम्बर 2019 आ पहुंचा है लेकिन 3 महीने ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहे हैं।
बीजेपी-आरएसएस का रवैया
मोदी ने कांग्रेस से कहा था कि 'वह यह बताए कि वे कौन लोग थे जिन्होंने 1984 में हज़ारों सिखों का क़त्ल किया था' और 'क्या किसी एक को भी सिखों के जनसंहार के लिए सजा मिली है?'
बीजेपी-आरएसएस के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी मोदी ने 2014 के चुनावों के दौरान पंजाब और इसके बाहर लगातार 1984 में 'सिखों के क़त्लेआम' का मुद्दा उठाया, जो बहुत जायज़ था। मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद 31 अक्तूबर, 2014 को इस सच्चाई को माना था कि
इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद घटी सिख विरोधी हिंसा एक तरह का एक खंजर था जो भारत देश के सीने में घोंप दिया गया। हमारे अपने लोगों के क़त्ल हुए, यह हमला किसी एक सम्प्रदाय पर नहीं बल्कि पूरे राष्ट्र पर था।
क्या किया वाजपेयी सरकार ने?
हिंदुत्व की प्रतिमा और आरएसएस के विचारक, प्रधानमंत्री मोदी इस बात पर दुख जताते रहे हैं कि 1984 के जनसंहार के मुज़रिमों की तलाश और उनको सज़ा देने का काम कांग्रेस की सरकारों ने नहीं किया। लेकिन मोदी इस सच को छुपा गए कि 1984 के बाद सत्तासीन अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार जिसने 1998 से 2004 तक देश पर राज किया, उसने भी हत्यारों को पहचानने और उन्हें सज़ा दिलाने के लिए चुप्पी ही साधे रखी।
मोदी इस सच को भी छुपा गए कि उनके राजनैतिक गुरु, लाल कृष्ण आडवाणी ने अपनी आत्मकथा में (पृष्ठ 430) इस बात का गुणगान किया है कि कैसे बीजेपी ने इंदिरा गाँधी को 'ऑपरेशन ब्लू स्टार' के लिए प्रेरित किया था।
मशहूर पत्रकार, मनोज मित्ता ने 1984 के क़त्लेआम पर लिखी अपनी पुस्तक में साफ़ लिखा कि :
बीजेपी की हुक़ूमत के बावजूद ऐसी कोई भी इच्छाशक्ति देखने को नहीं मिलती, जिससे यह ज़ाहिर हो कि जो क़त्लेआम कांग्रेस के राज में हुआ था उसके ज़िम्मेदार लोगों को सज़ा दिलानी है। ऐसा लगता है मानो 1984 और 2002 (गुजरात में मुसलमानों का क़त्लेआम) के आयोजकों के बीच एक मौन सहमति हो।
आरएसएस के अभिलेखागार से!
ऐसा मत केवल आरएसएस के आलोचकों का ही नहीं है, बल्कि आरएसएस के अभिलेखागार में उस काल के दस्तावेज़ों के अध्ययन से यह सच उभरकर सामने आता है कि आरएसएस ने इस क़त्लेआम को एक स्वाभाविक घटना के रूप में लिया था, इंदिरा गाँधी की महानता के गुणगान किए थे और नए प्रधानमंत्री के तौर पर राजीव गाँधी को पूरा समर्थन देने का वायदा किया था।
संघ विचारक देशमुख के क्या थे विचार?
इस संबंध में 1984 में सिखों के कत्लेआम पर एक स्तब्धकारी दस्तावेज़ के बारे में जानना ज़रूरी है। इसे आरएसएस के सुप्रसिद्ध विचारक और नेता नानाजी देशमुख ने लिखा और वितरित किया था।
देशमुख द्वारा प्रसारित मूल दस्तावेज़ पूर्व रक्षामंत्री जार्ज फ़र्नांडिस को मिला था और उन्होंने इसे अपनी हिंदी पत्रिका 'प्रतिपक्ष' में 'इंका-आरएसएस गठजोड़' शीर्षक से छापा था। इस लेख में लिखा था :
नानाजी के इस लेख के बावजूद संघ परिवार लगातार कांग्रेस पर तो 84 के नरसंहार के लिये तीखे हमले करता है पर वह अपने गिरेबान में नहीं झांकता।