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RSS के पत्र ने लिखा- 2024 में सिर्फ मोदी मैजिक और हिन्दुत्व से काम नहीं चलेगा

आरएसएस के अंग्रेजी मुखपत्र ऑर्गनाइजर ने कर्नाटक चुनाव के बाद एक लेख प्रकाशित किया है, जिसमें कहा गया है कि यह समय आत्मनिरीक्षण का है। सिर्फ मोदी मैजिक और हिन्दुत्व के दम पर चुनाव नहीं जीते जा सकते। प्रफुल्ल केतकर के इस लेख को ऑर्गनाइजर ने हाल ही में प्रकाशित किया था। पूरा लेख पढ़ने से पता चलता है कि कर्नाटक चुनाव के बाद आरएसएस क्या सोचता है।

सत्य हिन्दी पर ऑर्गनाइजर के उस लेख को इस आशय से प्रकाशित किया जा रहा है, ताकि पाठक और अन्य लोग तमाम राजनीतिक फैक्टर्स को समझ सकें।
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प्रफुल्ल केतकर ने ऑर्गनाइजर में लिखा है कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों ने कई लोगों को चौंकाया है, हालांकि ये चौंकाने वाले नहीं हैं। परिणामों और संभावित प्रभाव का विश्लेषण करने के लिए विविध राय होगी। हालांकि इसके जरिए 2024 के आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी के पक्ष में परिणाम निकालना एक साहसिक प्रस्ताव है, यह निश्चित रूप से आम तौर पर विपक्ष और विशेष रूप से कांग्रेस पार्टी का मनोबल बढ़ाएगा। लेकिन इन नतीजों को अलग करके देखें तो राजनीतिक दलों और आम मतदाताओं के विचार करने के लिए कुछ बिंदु हैं। सुरेश केतकर लिखते हैं-

भाजपा के लिए स्थिति का जायजा लेने का यह सही समय है। आगामी चुनावों में क्षेत्रीय स्तर पर मजबूत नेतृत्व और प्रभावी डिलीवरी के बिना, प्रधान मंत्री मोदी का करिश्मा और हिंदुत्व ही पर्याप्त नहीं होगा।


वो लिखते हैं राज्यस्तरीय शासन में पॉजिटिव कारण, विचारधारा और नेतृत्व, भाजपा की वास्तविक संपत्ति हैं। प्रधानमंत्री मोदी के केंद्र में सत्ता संभालने के बाद पहली बार भाजपा को कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भ्रष्टाचार के आरोपों का बचाव करना पड़ा। सत्तारूढ़ दल ने राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रमों से मतदाताओं को जोड़ने की पूरी कोशिश की, जबकि कांग्रेस ने इसे स्थानीय स्तर पर बनाए रखने की पूरी कोशिश की। उच्च मतदान वाले चुनावों में पिछले वोट शेयर में भाजपा महत्वपूर्ण रूप से जोड़ने में विफल रही, जिसके परिणामस्वरूप खराब नतीजे आए। 

मौजूदा मंत्रियों के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर भाजपा के लिए चिंता का विषय होना चाहिए।


ऑर्गनाइजर के लेख में कहा गया है कि राज्य चुनाव में राष्ट्रीय स्तर के नेतृत्व की भूमिका न्यूनतम होने पर कांग्रेस को फायदा होता है और चुनाव प्रचार को स्थानीय स्तर पर रखा जाता है। परिवार द्वारा संचालित पार्टी ने राज्य स्तर पर एकीकृत चेहरा पेश करने की कोशिश की और 2018 के चुनावों की तुलना में पांच प्रतिशत अतिरिक्त या ज्यादा वोट हासिल किए। जनता दल (सेक्युलर) ने अपनी चमक खो दी है और इसलिए नतीजों के बाद सौदेबाजी की ताकत भी। 
लेख में कहा गया है कि यह तो समय ही बताएगा कि कांग्रेस कहां तक ​​स्थिर सरकार दे पाती है और लोगों से किए गए बड़े-बड़े वादों को पूरा कर पाती है। अगर कांग्रेस की अंदरूनी कलह और भ्रम जारी रहता है, जैसा कि राजस्थान में हुआ। और कर्नाटक की नई सरकार केंद्र सरकार के साथ टकराव की राजनीति में शामिल होना चाहती है, तो कर्नाटक के लोगों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। एक अहम सवाल यह भी है कि सेमीकंडक्टर कॉरिडोर जैसी महत्वाकांक्षी परियोजनाओं का क्या होगा, जो दीर्घकालिक तकनीकी आत्मनिर्भरता की कुंजी है।
प्रफुल्ल केतकर लिखते हैं कि कर्नाटक जैसे सूचना प्रौद्योगिकी केंद्र और विकसित क्षेत्र माने जाने वाले राज्य में जिस तरह से जाति आधारित लामबंदी का खुलेआम इस्तेमाल और चर्चा की जाती है, वह परेशान करने वाला है। वोट बटोरने में भाषाई और धार्मिक पहचान की भूमिका भी लंबी अवधि के नतीजों पर विचार किए बिना खुली थी। जिस तरह से मुस्लिम नेताओं ने कांग्रेस नेतृत्व के सामने अपनी मांगों को रखा और चर्च ने कांग्रेस की जीत में अपनी संस्थागत भूमिका के बारे में खुलकर बात की, वह काफी डरावना है। क्षेत्रवाद और उप-क्षेत्रवाद एक बढ़ती हुई प्रवृत्ति रही है, और कर्नाटक चुनाव ने एक बार फिर भाषाई पुनर्गठन के खतरों की याद दिला दी जिसके बारे में डॉ. अंबेडकर ने चेतावनी दी थी। 

जिस तरह से कुछ लोग वोटिंग पैटर्न पर उत्तर बनाम दक्षिण कार्ड खेलने के लिए तुरंत कूद पड़े हैं, वह एक और खतरनाक चाल है जिसे हमें देखना चाहिए और पता करना चाहिए।


ऑर्गनाइजर के लेख के मुताबिक कर्नाटक में कांग्रेस की जीत लोकतंत्र के खतरे में पड़ने के विपक्ष के नेरेटिव को निश्चित रूप से खत्म कर देगी। लोकतंत्र में चुनावी नतीजों को एक जनादेश के रूप में देखा जाना चाहिए और लोगों के दिमाग को पढ़ने के लिए इसका इस्तेमाल किया जाना चाहिए। दोनों राजनीतिक दल इस फैसले से अपने-अपने सबक सीख सकते हैं और भविष्य के लिए अपना आकलन कर सकते हैं। यह मतदाताओं के लिए भी उनके मतदान व्यवहार पर आत्मनिरीक्षण करने का अवसर भी है। 

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प्रफुल्ल केतकर ने अंत में लिखा है कि 2024 के आम चुनाव के करीब आते हुए, बीच में कुछ विधानसभा चुनावों के साथ, प्रचार में और कड़वाहट आ सकती है। न तो राजनीतिक दलों और न ही मतदाताओं या सामाजिक समूहों को राष्ट्रीय एकता और अखंडता को टारगेट करने और हमारे आंतरिक मामलों में बाहरी शक्तियों को दखल देने का लाइसेंस देने के लिए चुनाव प्रक्रिया या परिणामों का उपयोग करने की अनुमति दी जानी चाहिए। राजनीतिक दलों के साथ-साथ मीडिया, सामाजिक और बौद्धिक नेतृत्व को इस संबंध में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है।

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क़मर वहीद नक़वी
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