वायरल वीडियो में एक केंद्रीय मंत्री बोलते दिखे- कोरोना के इलाज में पापड़ सहायक।
अगर संस्कृत के ज्ञान से भारतीय प्राचीन औषधि विज्ञान को समझा जा सकता है और प्रकृति से संश्लेषण का नया दृष्टिकोण मिल सकता है तो दुनिया के लिए यह प्रकाश-स्तम्भ बन सकता है। लेकिन तार्किक सोच पर अंकुश लगा कर यानी पापड़ से कोरोना का इलाज करवा कर हम देश की गत्यात्मक सोच को जड़वत करेंगे और तब कोई भाभा, जगदीश चन्द्र बोस पैदा नहीं होगा।
कोरोना तो, बकौल एक केन्द्रीय मंत्री, पापड़ खा कर ख़त्म किया जा सकता है। सोचिये, दुनिया के 715 करोड़ लोग, हज़ारों वैज्ञानिक, सैकड़ों संस्थान और 16 वैक्सीन पर चल रहे शोध के बाद भी इतनी साधारण सी बात विश्व विज्ञान को समझ में नहीं आयी कि पापड़ से कोरोना वायरस कैसे भागता है।
सोचना प्रधानमंत्री को है कि वह किस क़िस्म की आत्म-निर्भरता चाहते हैं। पूरे जोश-खरोश से शुरू हुआ ‘स्किल इंडिया’ अभी तक असफल रहा, ‘मेक इन इंडिया’ एक क़दम भी नहीं बढ़ सका और अब ‘आत्म-निर्भर भारत’ मंत्रियों और उनके सिपहसालारों की कूपमंडूकता का शिकार बन गया।
2 फ़रवरी, 1835 को तत्कालीन कलकत्ता में लॉर्ड मैकाले ने भारत में शिक्षा में सुधार के लिए नीति बनाने वाली बैठक में बताया कि अधिकांश युवाओं के पत्र मिले जिनमें यह शिकायत है कि ‘सरकार ने ज़िंदगी के 12 साल संस्कृत और उर्दू के ज्ञान दे कर हमें रोज़गार के लायक भी नहीं छोड़ा। कृपया ऐसी शिक्षा दें जिससे हमें रोज़गार मिले’।