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एमपी में अखिलेशः 72 सीटें, 24 रैलियां, मंदिरों के चक्कर, बड़ी-बड़ी बातें, नतीजा= 0

इसमें कोई शक नहीं कि समाजवादी पार्टी (सपा) यूपी की प्रमुख विपक्षी पार्टी है और पिछले कुछ वर्षों से वो भाजपा को चुनावी राजनीति में बराबर चुनौती दे रही है। यूपी में 2022 के विधानसभा चुनाव में वो दूसरे नंबर पर रही। अब वो आगामी लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर 60 सीटों पर लड़ने की बात कह रही है। लेकिन इस पार्टी का मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव 2023 में क्या हाल रहा, इसे यूपी के नजरिए से जानना चाहिए। सपा ने इस बार मध्य प्रदेश में 72 उम्मीदवार उतारे थे। अखिलेश ने खुद चुनाव अभियान संभाला था। उसे शून्य सीट मिली और उसका वोट शेयर 0.43% रहा। लेकिन एमपी में सपा के चुनाव लड़ने ने इंडिया गठबंधन के लिए एक तरह से संकट पैदा किया, विवाद खड़ा किया। 

2023 के एमपी विधानसभा चुनाव में तो सपा का प्रदर्शन 2018 से भी खराब रहा। 2018 में सपा ने 52 उम्मीदवार उतारे थे, एक सीट जीती थी और कुल वोट शेयर 1.30% था। जबकि इस बार 72 उम्मीदवारों के बीच उसका वोट शेयर 0.43 फीसदी है। हर सीट पर जमानत जब्त हो गई। उसे निवाड़ी विधानसभा में सबसे ज्यादा 32,670 वोट मिले और चांदला में 24,977 वोट मिले। इन दोनों सीटों पर भाजपा जीती है। कांग्रेस दूसरे नंबर पर रही। इनके अलावा बाकी सीटों पर सपा पांच-छह हजार या दो-तीन हजार वोटों पर सिमट गई।


इस चुनाव ने यह साफ कर दिया कि इंडिया गठबंधन में क्षेत्रीय दलों का दंभ कितना बड़ा है। सपा ने कांग्रेस पर "धोखाधड़ी" करने का आरोप लगाते हुए, अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया था। मुद्दा यह था कि वो कांग्रेस से बहुत ज्यादा सीटें समझौते में मांग रही थी। उसकी मांग को और उससे संबंधित अखिलेश के बयानों को मीडिया में खूब जगह मिली थी।
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सपा और अखिलेश की इस आक्रामकता का संबंध यूपी और अगले लोकसभा चुनाव से था। उन्होंने 2024 के लोकसभा चुनावों में पार्टी के कार्यकर्ताओं पर पकड़ बनाए रखने और इंडिया गठबंधन के अंदर यूपी में कांग्रेस के मुकाबले अपना महत्व बनाए रखने के लिए मध्य प्रदेश में पूरी ताकत झोंक दी। उनके निशाने पर कांग्रेस थी और वो मध्य प्रदेश के मतदाताओं को बता रहे थे कि कांग्रेस और भाजपा के बीच सिद्धांतों और कार्यक्रमों में कोई अंतर नहीं है। उनके भाषणों को मीडिया में राहुल के भाषणों से ज्यादा जगह मिल रही थी।
एमपी चुनाव 2023 में सिर्फ अखिलेश ही नहीं, पूरी सपा चुनाव लड़ने भोपाल पहुंच गई थी। ऐसा पहली बार हुआ जब सपा का शीर्ष नेतृत्व किसी दूसरे राज्य में इतने बड़े पैमाने पर जाकर प्रचार अभियान चला रहा था। अखिलेश ने खुद 24 रैलियां कर डालीं। कई सीटों वाले क्षेत्रों में "रथ यात्राएं" निकालीं। उनकी पत्नी और मैनपुरी से सांसद डिंपल यादव भी महिला मतदाताओं को जोड़ने के लिए रैलियों को संबोधित करती दिखाई दीं। डिंपल ने इससे पहले यूपी से बाहर जाकर कहीं चुनाव प्रचार नहीं किया था। पति-पत्नी ने कमलनाथ के सॉफ्ट हिन्दुत्व से सीखते हुए एमपी के मंदिरों में जाकर पूजा-पाठ तक कर डाला।
कांग्रेस मध्य प्रदेश में सपा की हैसियत जानती थी। इसलिए उसने सपा को कोई तवज्जो नहीं दी। कांग्रेस का मानना था कि वो बड़ी पार्टी है, इसलिए जितनी सीटें सपा को दी जाएं, वो चुपचाप उन पर चुनाव लड़ ले। लेकिन सपा इसके लिए तैयार नहीं हुई। उसे बड़ा हिस्सा चाहिए था। पूरे अक्टूबर और नवंबर में, दोनों दलों ने एक-दूसरे पर बार-बार भाजपा की "बी-टीम" होने का आरोप लगाया। 
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अखिलेश यादव को राजनीतिक विरासत के रूप में एक ऐसी पार्टी मिली, जिसका वोट बेस उनके पिता मुलायम सिंह यादव ने यादव+मुस्लिम और अन्य ओबीसी पर बनाकर गए थे। लेकिन अखिलेश ने उस बेस को खराब करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उनकी अपरिपक्व राजनीति ने सपा को संकट में डाल दिया है। वो लगातार चुनाव दर चुनाव खराब प्रदर्शन कर रहे हैं। 2017 के चुनाव में अखिलेश के नेतृत्व में सपा पहली बार हारी थी। 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा का खराब प्रदर्शन रहा, जबकि उसके मुकाबले बसपा दस सीटें ले गई थी। 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में भी सपा का खराब प्रदर्शन रहा। आज हालात ये हैं कि यूपी में उनसे मुस्लिम नाराज हैं, बड़ी तादाद में यादव भाजपा खेमे में जा चुके हैं। ओबीसी मतदाताओं प अब भाजपा का कब्जा है। उनकी नीतियों से तमाम ओबीसी नेता सपा से छिटक चुके हैं।
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क़मर वहीद नक़वी
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