कमलनाथ
कांग्रेस - छिंदवाड़ा
जीत
सारे आर्थिक और सामाजिक मुद्दों को किनारे करके मोदी सिर्फ़ राष्ट्रवाद का राग अलापने लगे हैं। देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस और बाक़ी क्षेत्रीय दल भी राष्ट्रवाद के मुद्दे पर ही मोदी को घेरने की कोशिश में हैं।
कांग्रेस और बाक़ी विपक्ष यह भूल गया है कि कुछ महीने पहले मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में उन्होंने बीजेपी और मोदी को किन मुद्दों पर घेर कर पछाड़ा था। तीनों राज्यों के विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी ने राम मंदिर के मुद्दे को गरमाने की कोशिश की थी और कांग्रेस इन राज्यों में बीजेपी के शासन के दौरान भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी और किसानों की दुर्दशा जैसे मुद्दों के साथ जनता के बीच गयी थी।
बीजेपी और मोदी के राम मंदिर, राष्ट्रवाद और देश भक्ति जैसे मुद्दे तीनों विधानसभा चुनावों में नहीं चले। उसके बाद से बीजेपी का ग्राफ़ लगातार नीचे की तरफ़ जा रहा था। चर्चा यहाँ तक गयी थी कि बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभर सकती है। लेकिन अकेले या अपने गठबंधन के बूते पर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं आ पाएगी।
एक के बाद एक करके दना-दन चुनाव पूर्व सर्वेक्षण अलग-अलग टी.वी चैनल और अख़बारों ने प्रसारित किए जिनमें बीजेपी को बहुमत से बहुत पीछे दिखाया गया। बीजेपी के लिए यह गंभीर चिंता की बात थी। बीजेपी के नेताओं ने भी दबे-छुपे शब्दों में मोदी और शाह के नेतृत्व पर संदेह करना शुरू कर दिया था।
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40 साल से आतंकवाद हिंदुस्तान के सीने में गोलियाँ दाग रहा है, लेकिन वोट बैंक की राजनीति में डूबे लोग क़दम उठाने से डरते थे। मुझे सत्ता या कुर्सी की परवाह नहीं है, मुझे देश की चिंता है, मेरे देश के लोगों की सुरक्षा की चिंता है।
नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री
एक अन्य भाषण में मोदी ने कहा ‘विपक्ष मुझ पर हमला कर रहा है और मैं आतंकवादियों पर।’ कुल मिलाकर मोदी यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि आतंकवाद से लड़ने की ताक़त सिर्फ़ और सिर्फ़ मोदी में है।
पुलवामा में आतंकवादियों के हमले और बालाकोट में वायुसेना की सांकेतिक कार्रवाई के बाद मोदी ने अच्छी तरह समझ लिया कि राष्ट्रवाद, देशभक्ति और आतंकवाद के ख़िलाफ़ बड़े-बड़े बोल ही चुनाव जीतने का कारगर हथियार हो सकते हैं। सरकार के पाँच सालों की उपब्धियों पर बात करना उसी तरह घातक साबित हो सकता है जिस तरह 2004 के लोकसभा चुनावों में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा घातक साबित हुआ था।
2015 दिसंबर में काबुल से दिल्ली लौटते समय प्रधानमंत्री मोदी अचानक लाहौर में उतर कर पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के घर एक शादी में शामिल होने पहुँच गए। इसके एक सप्ताह बाद ही 2 जनवरी 2016 को पठानकोट के सैनिक हवाई बेस पर आतंकवादियों ने हमला कर दिया। इस घटना के बाद मोदी ने पाकिस्तान के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की। उल्टे पाकिस्तान की ही एक टीम को पठानकोट में आने की अनुमति दे दी।
पठानकोट आई पाकिस्तान की टीम ने अपने देश वापस लौट कर बड़ी बेशर्मी से भारत के दावे को ठुकरा दिया और कहा कि पठानकोट हमले में पाकिस्तान का कोई हाथ नहीं है।
2016 में आतंकियों ने 6 बड़े हमलों को अंजाम दिया। अनंतनाग और पम्पोर में 12 सैनिकों की मौत हुई। काफ़ी हाय-तौबा के बाद सितंबर 2016 में सर्जिकल स्ट्राइक करने और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के कई आतंकवादी ठिकानों को ध्वस्त करने की कार्रवाई हुई।
मोदी ने सर्जिकल स्ट्राइक को अपनी वीरता के सबूत के तौर पर जमकर प्रचारित किया। लेकिन इसके बाद भी 2017 में अमरनाथ यात्रा और सीआरपीएफ़ कैम्प पर हमला हुआ।
14 फ़रवरी को पुलवामा में सीआरपीएफ़ के कारवाँ पर हमले के बाद पूरे देश में सदमा छा गया। 40 जवानों की मौत के बाद दुख और आक्रोश के बीच मोदी से वही सवाल पूछा जाने लगा जो मोदी ने प्रधानमंत्री बनने से पहले मनमोहन सिंह की सरकार से पूछा था। सवाल यह कि क़रीब एक हज़ार किलोग्राम विस्फोटक लाने में आतंकवादी कैसे सक्षम हो गए।
मोदी ने मनमोहन सिंह सरकार से पूछा था कि आतंकवादी जब गोला बारूद लाते हैं तो हमारी सुरक्षा और इंटेलिजेंस एजेंसियाँ क्या कर रही होती हैं? पुलवामा के बाद यही सवाल मोदी के लिए मौजूद है। देश के आक्रोश से भयभीत सरकार ने वायुसेना को आतंकी ठिकाने पर हमले की छूट दी। सेना ने अपनी ज़िम्मेदारी पूरी क्षमता से निभायी।
मोदी ने ऐसा कुछ नहीं किया है, जिसे इतिहास में याद किया जाए। लेकिन मोदी शब्द जाल बुनने में माहिर हैं। बड़ी चतुराई से उन्होंने आतंकवादी शिविरों पर बमबारी के बहाने ख़ुद को सबसे बड़ा देश भक्त और सक्षम साबित कर लिया। अपनी चुनावी सभाओं में वह इसे भुना रहे हैं और कांग्रेस समेत सारा विपक्ष अब अपनी राष्ट्रभक्ति साबित करने की क़वायद में जुटा है।
यह मोदी की मनोवैज्ञानिक जीत है लेकिन जब चुनाव हो रहे हों तो सरकार से उसके पाँच साल के काम काज पर सवाल पूछे जाने चाहिए। यह भी पूछा जाना चाहिए कि पिछले चुनाव में जो वादे किए गए थे वे पूरे हुए कि नहीं? मसलन किसान की स्थिति सुधरी या नहीं? साल में 6000 रुपये कुछ किसानों को दे देने से किसान की हालत सुधर जाएगी या नहीं? बेरोज़गारी ख़त्म या कम हुई या नहीं? नोटबंदी से कालाधन ख़त्म हुआ या नहीं? जीएसटी के बाद व्यापार सुगम हुआ या नहीं? इन सबसे ऊपर उपभोक्ता को राहत मिली या नहीं?
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