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पहले भी अपने सियासी दांव से पायलट को चित कर चुके हैं गहलोत

राजस्थान में अशोक गहलोत के ख़िलाफ़ सचिन पायलट का अब तक का हर दांव ग़लत साबित हुआ है। गहलोत को साल 2018 में विधानसभा चुनाव न लड़ने देने का मामला हो या चुनाव जीतने के बाद विधायक दल के नेता का चयन गुप्त मतदान की पद्धति से न होना हो, हर दांव में गहलोत ने बाजी मारी और चुनाव में जीत के बाद एक बार फिर से मुख्यमंत्री पद की कुर्सी पर काबिज हो गए थे। 

राजस्थान में ऐसा पहली बार नहीं हुआ कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष को विधानसभा चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी न दी जाए। यह समीकरण उस समय भी फेल हुआ था जब परसराम मदरेणा कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष थे और उनके नेतृत्व में ही राज्य में चुनाव लड़ा गया लेकिन जब मुख्यमंत्री बनने की बारी आयी तो गहलोत ने बाजी मारी। 

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साल 2008 में भी कुछ ऐसी ही स्थिति थी। वरिष्ठ जाट नेता शीशराम ओला और कभी गहलोत के ख़ास माने जाने वाले डॉ. सी.पी. जोशी ने भी मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदारी रख दी थी। उस समय यह निर्णय किया गया कि विधायकों का गुप्त मतदान कराया जाए। उस समय कांग्रेस के 96 विधायकों में से 92 ने अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी पसंद बताया था। डॉ. सी.पी. जोशी और शीशराम ओला ने अपनी दावेदारी ज़रूर पेश की, लेकिन उन्हें विधायकों का समर्थन नहीं मिला और गहलोत मुख्यमंत्री बन गए। 
सचिन पायलट ने इन बातों को ध्यान में रखकर 2018 में मुख्यमंत्री पद का फ़ैसला हाई कमान से कराने पर बल दिया था।

पायलट को शायद इस बात का भरोसा था कि राहुल गांधी उनके पक्ष में खड़े रहेंगे और वे आसानी से मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल कर लेंगे। लेकिन राहुल गांधी ने बीच का रास्ता निकाला और गहलोत को अहमियत दी। दरअसल, सचिन पायलट को उस समय भी इस बात का अंदाजा था कि अगर विधायकों से मतदान कराया जाएगा तो गहलोत ही पहली पसंद बनकर उभरेंगे। इसलिए उन्होंने दूसरा रास्ता चुना जिसका उन्हें फायदा भी हुआ और उप मुख्यमंत्री पद की कुर्सी भी मिली और कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी भी उनके पास बरकरार रही। 

गहलोत को घेरते रहे पायलट

दरअसल, सचिन पायलट को गहलोत को राजनीतिक तरीके से मात देनी चाहिए थी लेकिन वे हमेशा गांधी परिवार से अपनी निकटता की वजह से उनसे संघर्ष करते ही नजर आते रहे। उप मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने बयान दिया कि प्रदेश में एक नहीं दो मुख्यमंत्री हैं। वे गहलोत को उनके निर्णयों के लिए घेरते रहे। लेकिन एक बात उन्होंने याद नहीं रखी कि गहलोत उनके पिता राजेश पायलट के जमाने के नेता हैं और राजीव गांधी से गहलोत की निकटता वैसी ही रही जैसी राजेश पायलट की हुआ करती थी। 

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राजीव गांधी के बाद सोनिया गांधी और राहुल गांधी से भी गहलोत ने अपने संबंधों को और मजबूत ही बनाया तथा पार्टी को जहां भी ज़रूरत पड़ी, डटकर खड़े रहे। और शायद इसीलिए गहलोत को कांग्रेस का संगठन महासचिव बनाया गया जो पार्टी प्रमुख के बाद दूसरा सबसे महत्वपूर्ण पद है।

गहलोत को प्रभारी बनाकर राहुल गांधी ने गुजरात विधानसभा चुनाव में पार्टी को सत्ता के करीब पहुंचा दिया था। और शायद इसीलिए जब सचिन पायलट लगातार प्रयास कर रहे थे कि गहलोत को विधानसभा चुनाव लड़ने से ही रोक दिया जाए, तो राहुल गांधी ने गहलोत को चुनाव लड़ने को कहा। 

पायलट चाहते थे कि मध्य प्रदेश में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह राजस्थान में भी, वे तथा गहलोत चुनाव नहीं लड़ें। ऐसा कराकर दरअसल वे राज्य के पार्टी नेताओं को यह सन्देश देना चाहते थे कि प्रदेश के अगले मुख्यमंत्री वे ही हैं। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। 

पायलट को दिया झटका 

अशोक गहलोत को जब राहुल गांधी ने दिल्ली बुलाकर राष्ट्रीय स्तर पर संगठन महासचिव पद की जिम्मेदारी दी तो ये ख़बरें फैलाई जाने लगी थीं कि वे अब राष्ट्रीय राजनीति में ही रहेंगे। लेकिन एक दिन एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में गहलोत ने अचानक विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। यह घोषणा राजस्थान की राजनीति में किसी बड़े धमाके से कम नहीं थी। क्योंकि इस तरह की ख़बरें गर्म थीं कि उस दौरान कांग्रेस की कमान संभाल रहे सचिन पायलट न तो ख़ुद विधानसभा का चुनाव लड़ना चाहते थे और न ही अशोक गहलोत को चुनाव मैदान में उम्मीदवार की हैसियत से उतरता हुआ देखना चाहते हैं।  

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दौसा से बीजेपी सांसद हरीश मीणा ने जब 2018 में कांग्रेस का हाथ थामा तो कांग्रेस के 24, अकबर रोड, नई दिल्ली स्थित मुख्यालय में प्रेस कॉन्फ्रेंस चल रही थी। गहलोत ने हरीश मीणा की पार्टी में अगवानी करते हुए यह एलान कर दिया कि वे विधानसभा का चुनाव अपनी परंपरागत सीट सरदारपुरा से ही लड़ेंगे और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट भी प्रत्याशी की हैसियत से चुनाव मैदान में उतरेंगे। 

गहलोत की इस घोषणा से पायलट और राजस्थान के प्रभारी महासचिव अविनाश पांडे तो सकपकाए ही, राजनीतिक विश्लेषक भी भौंचक्के रह गए थे।

प्रेस कॉन्फ्रेंस में पायलट ने यह तो नहीं बताया कि वे कहां से चुनाव मैदान में उतरेंगे, लेकिन गहलोत की घोषणा पर मुहर ज़रूर लगा दी थी। पायलट ने कहा था, ‘राहुल गांधी जी के निर्देश और अशोक गहलोत जी के निवेदन पर मैं भी विधानसभा का चुनाव लड़ूंगा। गहलोत जी भी चुनाव लड़ेंगे।’

यह था अशोक गहलोत का पहला दांव जिसमें पायलट चारों खाने चित हो गए थे। पायलट के राजस्थान का मुख्यमंत्री बनने की राह में सबसे बड़ी चुनौती गहलोत का चुनाव लड़ना ही थी।  

पायलट को उस वक्त ही गहलोत के कद और गांधी खानदान में उनकी पकड़ का अंदाजा लगा लेना चाहिए था। लेकिन वे ऐसा नहीं कर सके। यदि किया होता तो बिना बड़ा समर्थन जुटाए वे इस तरह के बगावती तेवर नहीं अख्तियार करते?

यहां भी अशोक गहलोत ने अपने दांव से उन्हें परेशानी में डाल दिया। गहलोत ने इसे पार्टी में उनके ख़िलाफ़ बढ़ते आक्रोश की बजाय कांग्रेस बनाम बीजेपी के टकराव का रूप दे दिया। उन्होंने इस पूरे खेल में जो बात प्रमुखता से उठायी वह यह कि बीजेपी उनकी सरकार को अस्थिर करना चाहती है और सचिन पायलट बीजेपी के हाथों में उसी तरह खेल रहे हैं जैसे ज्योतिरादित्य सिंधिया खेले थे। 

प्रदेश में राज्यसभा चुनाव के दौरान जिस तरह से विधायकों को खरीदने का दांव चला या जिस तरह से ज्योतिरादित्य सिंधिया ने बीजेपी से मिलकर मध्य प्रदेश की सरकार गिराई, उसे देख दिल्ली में बैठे कांग्रेस के नेताओं को भी गहलोत के इस दावे पर भरोसा होने लगा और उन्होंने ताबड़तोड़ निर्णय करने शुरू कर दिए। 

अब पायलट गहलोत के दावे की सफाई यह कहकर दे रहे हैं कि वह बीजेपी में नहीं जाना चाहते। लेकिन जब तक उनकी तरफ से यह बयान सार्वजनिक रूप से सामने आता तब तक गहलोत ने उनके तथा समर्थकों के मंत्री पद ही नहीं संगठन के पदों पर भी अपने करीबियों को बैठा दिया।
सचिन पायलट कांग्रेस में बने रहते हैं या नहीं, यह उन्हें तय करना है लेकिन एक बात स्पष्ट है कि अशोक गहलोत जैसे मंजे हुए खिलाड़ी जिसकी कांग्रेस हाई कमान या गांधी परिवार में गहरी पकड़ है, से उन्हें लड़ाई राजनीतिक दांव-पेच से ही लड़नी होगी। इस तरह की स्टंटबाजी उनके लिए नुक़सान का सौदा साबित हो सकती है। 
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संजय राय
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