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प्रदर्शन करते जेएनयू के छात्र। फ़ोटो साभार - ट्विटर

क्या जेएनयू को राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वी मानती है मोदी सरकार?

जेएनयू साढ़े पांच सालों से केंद्र की सरकार और सत्ताधारी दल के निशाने पर है। लेकिन ऐसा क्यों है? शायद, इसलिए कि जेएनयू में उन्हें एक विचार, एक संस्कृति और एक अलग किस्म का समाज दिखाई देता है। संभवतः इसीलिए वे जेएनयू को अपने किसी राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वी से भी ज्यादा ख़तरनाक मान रहे हैं। उन्हें एक संस्था के रूप में जेएनयू बहुत बड़ा वैचारिक प्रतिद्वन्द्वी नज़र आता है।
उर्मिेलेश

विश्वयुद्ध के बाद आधुनिक विश्व का शैक्षिक परिदृश्य देखें तो उसमें जेएनयू और सत्ता के रिश्तों जैसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलेगा! मैंने बहुत जानने-खोजने की कोशिश की पर ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिला, जहां किसी देश के शासक और शासक दल के करोड़ों समर्थक अपने ही देश एक श्रेष्ठ विश्वविद्यालय के विरुद्ध ज़हरीले और अनर्गल प्रचार में लिप्त हों और उस संस्थान को ध्वस्त करने के लिए लगातार अभियान चला रहे हों! इस मायने में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) सिर्फ़ भारत का ही नहीं, समूची दुनिया का अनोखा विश्वविद्यालय साबित हो चुका है। 

जेएनयू तकरीबन साढ़े पांच सालों से केंद्र की सरकार और सत्ताधारी दल के निशाने पर है। वैसे तो उसके ख़िलाफ़ दुष्प्रचार अभियान का सिलसिला और भी पुराना है पर सत्ता में आने के बाद भारतीय जनता पार्टी और उसकी अगुवाई वाली सरकार ने जेएनयू पर ताबड़तोड़ निशाने साधे हैं। मुझे तो लगता है, सरकार के द्वारा मुख्य विपक्षी पर किए गए हमलों से भी ज्यादा हमले जेएनयू पर किये गये हैं। शायद, इसलिए कि जेएनयू में उन्हें एक विचार, एक संस्कृति और एक अलग किस्म का समाज दिखाई देता है। संभवतः इसीलिए वे जेएनयू को अपने किसी राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वी से भी ज्यादा ख़तरनाक मान रहे हैं। उन्हें एक संस्था के रूप में वह बहुत बड़ा वैचारिक प्रतिद्वन्द्वी नज़र आता है।

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फीस बढ़ोतरी और वापसी का सच-अर्द्धसत्य!

जेएनयू एक बार फिर चर्चा में है। फीस बढ़ोतरी, तरह-तरह के खर्चे में भारी वृद्धि और छात्रों पर थोपी जा रही कड़ी बंदिशों की वहां के छात्र मुखालफत कर रहे हैं और प्रशासन आंदोलनकारी छात्रों के निर्वाचित प्रतिनिधियों के विरूद्ध कार्रवाई की योजना बना रहा है। इसके लिए प्रशासन ने नया शिगूफा छोड़ा है - स्वामी विवेकानंद की मूर्ति के कथित तौर पर क्षतिग्रस्त किए जाने का। लेकिन सबसे पहले संक्षेप में देखते हैं कि फीस, अन्य खर्चों में बढ़ोतरी और बंदिशों की क्या सच्चाई है? क्या यह वाकई जरूरी है और जेएनयू के छात्र बेवजह उसका विरोध कर रहे हैं? 

सारी फ़ीस बढ़ोतरी को मिलाकर देखें तो जेएनयू में प्रति-छात्र आने वाले आर्थिक बोझ में साढ़े चार सौ गुना बढ़ोतरी प्रस्तावित है। अब तक ‘वन-टाइम मेस-कैंटीन सेक्युरिटी’ मद में 5500 रुपये लिया जाता रहा है, उसे बढ़ाकर 12000 प्रस्तावित किया गया। इसी तरह कई अन्य मद में भी बढ़ोतरी की गई है। मेस बिल में भी भारी बढ़ोतरी होनी है क्योंकि विश्वविद्यालय यानी सरकार छात्रों को किसी तरह की सब्सिडी देने के पक्ष में नहीं है। 

सब्सिडी सांसद-मंत्री और नौकरशाह खाएं तो ठीक पर सामान्य पृष्ठभूमि से आए प्रतिभाशाली छात्रों को मिले तो गलत! ऐसा सामाजिक या सरकारी विवेक सिर्फ़ अपने ही देश में हो सकता है!
जेएनयू के हॉस्टल-मेस में अभी तकरीबन 2500 रुपये मासिक का बिल आता है। समझा जाता है कि इसमें भी भारी बढ़ोतरी हो सकती है। सवाल यह है कि आख़िर ग़रीब छात्र इतना बोझ कैसे उठाएंगे?

जेएनयू प्रशासन की अपनी रिपोर्ट के मुताबिक़, विश्वविद्यालय में 40 फीसदी बच्चे ऐसे घरों से आते हैं, जिनके माता-पिता की कुल आय 12000 रुपये प्रतिमाह से भी कम होती है। छात्रों पर हॉस्टल आदि की फीस की कुल बढ़ोतरी 3000 रुपये प्रतिमाह की है। यानी सालाना 36000 रुपये। ऐसे में 12000 रुपये मासिक आमदनी वाला परिवार अपने बच्चों को कैसे जेएनयू में शिक्षा दिला पायेगा? ये बच्चे अपनी स्कॉलरशिप के अलावा जेएनयू की कम फीस और अच्छी सुविधाओं के कारण पढ़-लिखकर आगे बढ़ते हैं। इधर, स्कालरशिप्स में भी कटौती की गई है और इस तरह की कटौती देश के तकरीबन सभी विश्वविद्यालयों में हुई है। मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज में तो स्कॉलरशिप कटौती के सवाल पर बड़ा आंदोलन हुआ था। 

अब आप सोचिए, फीस बढ़ोतरी का यह फ़ैसला किन वर्गों पर सीधा हमला है? ‘सबका साथ-सबका विकास’ जैसे नारे के साथ इसका कोई मेल बैठता है?

छात्रों के भारी प्रतिरोध के बाद मानव संसाधन मंत्रालय ने कुछ दिनों पहले घोषणा की कि जेएनयू में फीस आदि की जो बढ़ोतरी की गई थी, उसका ‘बड़ा हिस्सा’ वापस लिया जा रहा है! जेएनयू प्रशासन ने भी कहा कि पहले के निर्णय को बदलने की अधिसूचना जारी की जा रही है। लेकिन क्या फीस और अन्य मदों में की गई भारी बढ़ोतरी से वाकई छात्रों को कोई बड़ी राहत दी गई है? मजे की बात है कि फीस बढ़ोतरी की वापसी की सूचना सबसे पहले मंत्रालय के एक अफसर ने ट्विटर पर दी। पर यह नहीं बताया कि बढ़ोतरी में कितनी रकम की कटौती हुई है? 

दुर्भाग्यवश, छात्रों के कुछ बाहरी हितैषियों ने भी सोशल मीडिया में इसका खूब प्रचार किया कि छात्रों के दबाव में सरकार झुकी। जेएनयू में फीस बढ़ोतरी वापस ली गई! पर यह सच नहीं था। अर्द्धसत्य भी नहीं, सिर्फ़ पांच-दस फीसद सच था। इस बारे में छात्रों के निर्वाचित प्रतिनिधियों ने दो दिन पहले दिल्ली में प्रेस से बातचीत कर सरकारी प्रोपेगैंडे का ठोस दलीलों के साथ खंडन किया। 

छात्रों के प्रतिनिधियों के मुताबिक़, सिर्फ़ हॉस्टल रूम के रेंट में बढ़ोतरी को वापस लिया गया है। 90 से 95 फीसदी बढ़ोतरी दूसरे मदों की है, जिसे प्रशासन या सरकार ने छुआ तक नहीं है और वह पहले की तरह बरकरार है। इसमें यूटिलिटी चार्जेज और हॉस्टल मेंटेनेंस चार्जेज आदि शामिल हैं। प्रशासन इस बढ़ोतरी को 1700 रुपये बताता है पर छात्रों का आकलन है कि यह कम से कम 3000 रुयपे प्रतिमाह की बढ़ोतरी है, जो मंत्रालय के कथित ‘रौलबैक’ के बाद भी बरकरार है।

हॉस्टल व्यवस्था की आउटसोर्सिंग/निजीकरण

जेएनयू के छात्र और शिक्षक संघ के प्रतिनिधियों के मुताबिक़, विश्वविद्यालय प्रशासन हॉस्टल आदि की समूची व्यवस्था को आउटसोर्स करने की योजना बना चुका है। आउटसोर्सिंग योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए ही उपयोगिता, मेटनेन्स या सेवा क्षेत्र के नाम पर भारी बढ़ोतरी की गई है। इसमें बिजली-पानी का खर्च भी शामिल किया गया है। 

जेएनयू प्रशासन सरकार में बैठे ‘निजीकरण और विनिवेशीकरण प्रेमी लोगों’ को खुश करने के लिए हॉस्टल आदि के खर्च का सारा बोझ छात्रों पर थोपना चाहता है ताकि वह बता सके कि किस तरह वह कम खर्चे में विश्वविद्यालय चलाने का ‘कौशल’ हासिल कर चुका है। कौन जाने, इस ‘कौशल’ के बदले वह संभवतः भविष्य में अपने लिए किसी बड़े इनाम का जुगाड़ करना चाह रहे हों! पर किफायती होने या कम सरकारी खर्च में विश्वविद्यालय चलाने के इस कौशल की पोल खुलती है, दूसरे मदों में प्रशासकीय फिजूलखर्ची देखकर। 

सुरक्षा खर्च में की बढ़ोतरी 

जेएनयू शिक्षक संघ के मुताबिक़, हाल के वर्षों में विश्वविद्यालय प्रशासन ने अपना सुरक्षा खर्च 10 करोड़ से बढ़ाकर 17 करोड़ किया है। शिक्षक संघ ने नवम्बर, 2018 के आंकड़ों की रोशनी में इस बात का खुलासा किया। केंद्र सरकार से इसके लिए अतिरिक्त बजट नहीं आया। फिर निश्चय ही, सुरक्षा में इस अतिरिक्त बजटीय प्रावधान को संस्थान ने अपने निर्धारित बजट में ही एडजस्ट किया होगा। क्या यह छात्रों के हितों पर होने वाले खर्च में सेंधमारी नहीं है? 

प्रवेश परीक्षा को किया ऑनलाइन 

इसी तरह प्रवेश परीक्षा को ऑनलाइन करने से विश्वविद्यालय पर 6 से 9 करोड़ का अतिरिक्त बोझ पड़ा है। पहले प्रवेश परीक्षा पर 3 करोड़ का खर्च आता था, अब इसके 9 से 12 करोड़ होने का अनुमान है। इस तरह तकरीबन कुल 13 से 16 करोड़ रुपये का अतिरिक्त खर्च प्रशासकीय कुप्रबंधन का नतीजा माना जा रहा है। लेकिन बोझ डाला जा रहा है छात्रों पर। गरीब और सामान्य पृष्ठभूमि के छात्रों पर इसका सबसे ज्यादा असर पड़ेगा। 

जेएनयू, विवेकानंद और सांप्रदायिक हिन्दुत्व!

जेएनयू में आंदोलन चल ही रहा था कि इसी बीच खबर आई कि छात्रों के एक समूह ने कैंपस में लगी विवेकानंद की प्रतिमा के पास कुछ नारे लिख दिये या कि उसे क्षतिग्रस्त कर दिया। विचित्र है न! छात्र अपनी जरूरी मांगों को छोड़कर विवेकानंद की मूर्ति को क्षतिग्रस्त करने जैसा वाहियात कदम क्यों उठायेंगे? इस तरह का काम वे क्यों करेंगे, यह तो वे ही लोग कर सकते हैं, जिन्हें मंदिर-मसजिद के झगड़े फैलाने या मूर्तियों को क्षतिग्रस्त करने का पुराना अनुभव होगा। मूर्तियां अम्बेडकर की हों, नेहरू या विद्यासागर की। विवेकानंद जैसे एक विचारशील और सुसंगत संन्यासी भला जेएनयू के जनवादी छात्रों के निशाने पर क्यों होंगे? 

कट्टरता के घोर विरोधी थे विवेकानंद

हमारे देश के दक्षिणपंथी और कट्टरपंथी-सांप्रदायिक तत्व पता नहीं क्यों अक्सर विवेकानंद का नाम लेते रहते हैं। कभी-कभी उन्हें अपना आदर्श भी बता देते हैं। शायद इसलिए कि उनका लिबास गेरुआ या भगवा था, किसी अन्य भारतीय संन्यासी की तरह। इसका मतलब ये सिर्फ़ विवेकानंद के लिबास पर जाते हैं। अच्छी बात है कि ये लोग पढ़ते-लिखते नहीं। अगर विवेकानंद को पढ़ लेते तो उनकी तरफ़ कतई नहीं देखते। उनसे बहुत दुखी होते क्योंकि विवेकानंद विवेक और ज्ञान के संन्यासी थे और सांप्रदायिकता और कट्टरता के घोर विरोधी थे। 

11 सितम्बर,1893 में शिकागो के जिस ऐतिहासिक भाषण को हमारे देश और परदेस में काफी सराहा गया, उसे ही पढ़ लीजिए। उनके भाषणों का एक संग्रह है - Lectures from Colombo to Almora. इसमें स्वामी जी के धर्म, ज्ञान और समाज की समस्याओं पर केंद्रित कुछ बेहद महत्वपूर्ण व्याख्यान हैं। 

शिकागो के भाषण में विवेकानंद ने कहा था, ‘सांप्रदायिकता, कट्टरता और इसके भयानक वंशजों के धार्मिक हठ ने लंबे समय से इस खूबसूरत धरती को जकड़ रखा है। उन्होंने इस धरती को हिंसा से भर दिया है और कितनी बार यह धरती खून से लाल हो चुकी है। न जाने कितनी सभ्यताएं तबाह हुई हैं और कितने देश मिटा दिए गए। यदि ये खौफनाक राक्षस नहीं होते तो मानव समाज कहीं ज्यादा बेहतर होता, जितना कि अभी है।’ 

छात्र-छात्राओं की बेरहमी से पिटाई

फिर लौटते हैं, जेएनयू पर। जिस दिन विश्वविद्यालय का दीक्षांत समारोह था यानी 11 नवम्बर को, उस दिन देश के पहले शिक्षामंत्री और महान स्वाधीनता सेनानी अबुल कलाम आजाद का जन्म दिन भी था। आधुनिक शिक्षा में उनके योगदान को देखते हुए 11 नवम्बर को राष्ट्रीय शिक्षा दिवस मनाया जाता है। लेकिन उसी दिन जेएनयू को किसी रणक्षेत्र में तब्दील कर दिया गया। छात्रों पर दुश्मन की तरह निशाना साधा गया। छात्र फीस बढ़ोतरी के मसले पर कैंपस में आए मानव संसाधन मंत्री से मिलना चाहते थे पर प्रशासन ऐसा हरगिज नहीं चाहता था। बाद में छात्र प्रतिनिधियों की मंत्री से संक्षिप्त मुलाकात हुई पर पुलिस ने छात्र-छात्राओं को बेरहमी से पीटा। 

हां, कुछ छात्रों द्वारा कुलपति कार्यालय के अंदर के गलियारे या पास के इलाक़े में दीवारों और शीशे के गेट पर नारे लिखना पूरी तरह अनुचित लगा। छात्र संघ को ऐसे छात्रों को हरगिज़ रोकना चाहिए। ऐसी गतिविधियों से उनकी वाजिब बातें भी बेवजह के विवादों में उलझेंगी। 

हमले मनुवादी प्रोजेक्ट का हिस्सा!

छात्रों पर दमन-उत्पीड़न की यह कहानी सिर्फ़ जेएनयू की नहीं है, देश के दस-बारह विश्वविद्यालय या संस्थान जिन्हें मौजूदा शासक सर्वाधिक नापसंद करते हैं, उनका पूरा बस चले तो वे इन संस्थानों को बुल्डोजर के हवाले कर दें या कम से कम उनका रातों-रात हुलिया बदल डालें! पर क्या करें, इस बचे-खुचे लोकतंत्र की कुछ तो अड़चनें हैं। 

इस वक्त कोलकाता का जादवपुर विश्वविद्यालय, मुंबई का टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज, हैदराबाद का केंद्रीय विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ स्थित पंजाब विश्वविद्यालय, श्रीनगर स्थित एचएन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय, यूपी स्थित इलाहाबाद विश्वविद्यालय, दिल्ली का जामिया और दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ कॉलेज सहित अनेक ऐसे संस्थान इनके निशाने पर हैं। क्यों? क्योंकि ऐसे संस्थानों के शिक्षकों और छात्रों का एक हिस्सा आज भी शिक्षा और शिक्षण की संस्कृति को बचाये रखना चाहता है। यह सिर्फ़ शिक्षा के किसी कथित भगवाकरण का मामला नहीं है, यह शिक्षा के ध्वंस का मामला है, जो आज हो रहा है। 

इसमें कुछ और बातें भी निहित हैं, जैसै - हमारे मौजूदा शासक और इनके थिंकटैंक के संचालक नहीं चाहते कि आधुनिक शिक्षण संस्थानों में इतनी भारी संख्या में समाज के हर वर्ग और हर वर्ण के छात्र-युवा आजादी के साथ शिक्षा पाएं। वे उच्च शिक्षा का दायरा बिल्कुल सीमित कर देना चाहते हैं ताकि योजनाकार, उच्चाधिकारी, सेनानायक, बड़े राजनेता, वैज्ञानिक, दार्शनिक, पत्रकार और बुद्धिजीवी सिर्फ़ कुछ समृद्ध, कुलीन और खास दायरे के लोग ही बनें। 

अगर विश्वविद्यालयों की एडमिशन पॉलिसी, फीस संरचना, माहौल और वहां की नौकरशाही को पूरी तरह बदल डाला जाये तो फिर उच्च शिक्षण संस्थानों में सामान्य समूहों के छात्र-युवा कैसे आयेंगे?
इन विश्वविद्यालयों के दमन, फीस आदि की बढ़ोतरी और सीटों की कटौती के पीछे असल कहानी यही है। यह शिक्षा के कथित भगवाकरण से ज्यादा बड़ा और बहुआयामी खतरे का मामला है। वे गांधी-नेहरू-अम्बेडकर, भगत सिंह के सपनों के भारत को सिर के बल खड़ा कर इस मुल्क को फिर अंधेरे में डालना चाहते हैं। 

‘स्वर्णिम हिन्दुस्थान’ की बात क्यों?

यह संयोग नहीं है कि अक्सर हमारे मौजूदा शासक देश को अतीत के ‘स्वर्णिम हिन्दुस्थान’ की तरफ ले जाने की बात करते रहते हैं। वह ‘स्वर्णिम हिन्दुस्थान’ क्या था? उस ‘हिन्दुस्थान’ में सबको पढ़ने-लिखने की इजाजत नहीं थी और न हैसियत थी! सिर्फ़ राजे-महराजे, बड़े जमींदार, द्विज और अन्य कुलीन परिवार के लोग ही पढ़ने जाते थे!

मध्य काल में भी वह सिलसिला काफ़ी हद तक जारी रहा! ब्रिटिश काल में सिलसिला टूटता नजर आया और आजादी के बाद शिक्षा का यह क्षेत्र चंद लोगों के एकाधिकार से मुक्त हुआ! अवर्ण, गैर-कुलीन और सबाल्टर्न हिस्सों से पढ़ने वालों की संख्या हर साल बढ़ती गई! आजादी के बाद के शासकीय प्रयासों के अलावा ज्योति बा फुले, डॉ. अम्बेडकर और भगत सिंह आदि की शिक्षाओं और आह्वानों का भी जबरदस्त असर पड़ा!!

इससे मनुवादी और हिन्दुत्ववादी मान-मूल्यों को गंभीर चुनौती मिलने लगी! समाज में समता, सुसंगत लोकतंत्र और सौहार्द्र की आवाजें उठने लगीं! शिक्षा ने सदियों से दबे-कुचले लोगों की दुनिया ही बदल दी! यह बात 'कुछ खास लोगों' को भला कैसे अच्छी लगती?

अपने मुल्क में आज ऐसे ही 'खास लोगों' के पास सत्ता है, जो भारत को पुराने जमाने वाला 'हिन्दुस्थान' बनाना चाहते हैं, जहां पढ़ना-लिखना, खासकर उच्च शिक्षा 'कुछ ही लोगों' तक सीमित रहे! जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में इस वक्त जो कुछ हो रहा है, वह भारत को 'हिन्दुस्थान' बनाकर सदियों पीछे ले जाने के 'मनुवादी प्रोजेक्ट' का हिस्सा है! 

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