गोपाल राय
आप - बाबरपुर
जीत
गोपाल राय
आप - बाबरपुर
जीत
मनीष सिसोदिया
आप - जंगपुरा
हार
आतिशी
आप - कालकाजी
जीत
अलका लांबा
कांग्रेस - कालकाजी
हार
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को महिमामंडित करने की जो परियोजना कुछ वर्ष पहले शुरू हुई थी, वह अब तेजी से परवान चढ़ती जा रही है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान उत्तर भारत के कई शहरों में गोडसे के मंदिर बनाने के प्रयास हुए हैं और अब इस सिलसिले में गांधी हत्याकांड में गोडसे के सहयोगी रहे अन्य अभियुक्तों को भी 'शहीद’ के तौर पर स्थापित करने की मुहिम शुरू हो गई है।
ताजा मामला है मेरठ में गोडसे और उसके मुख्य सहयोगी रहे नारायण आप्टे का मंदिर बनाने का। इस कृत्य को 15 नवंबर को अंजाम दिया गया। इसी दिन 1949 में गोडसे और आप्टे को अंबाला की जेल में फांसी पर लटकाया गया था।
गोडसे और आप्टे की मूर्तियां मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर में बन कर तैयार हुई थीं और सितंबर में इन्हें मेरठ भेज दिया गया था। पहले हिंदू महासभा का इरादा इन मूर्तियों को 2 अक्टूबर यानी गांधी जयंती के मौके पर स्थापित करने का था, लेकिन स्थानीय प्रशासन की सख्ती के चलते ऐसा नहीं हो सका। मगर आज स्थानीय पुलिस प्रशासन ने कुछ नहीं किया और मेरठ के हिंदू महासभा भवन में दोनों मूर्तियां स्थापित कर दी गईं।
नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे की मूर्तियां बनवाने और उन्हें स्थापित करने के पीछे कौन सी ताकतें हैं, उनका क्या राजनीतिक मकसद है और मूर्ति लगाने के लिए मेरठ शहर का ही चयन क्यों किया गया है, इन सारे सवालों की पड़ताल करने से पहले यह जान लेना दिलचस्प होगा कि नारायण आप्टे महात्मा गांधी की हत्या के मामले में दोषसिद्ध अपराधी होने के अलावा क्या था और किस चरित्र का व्यक्ति था!
महात्मा गांधी की हत्या में नाथूराम गोडसे सहित 9 अभियुक्त थे, जिनमें विनायक दामोदर सावरकर और नारायण आप्टे भी शामिल थे।
सावरकर को पर्याप्त सबूतों के अभाव में संदेह का लाभ देकर बरी कर दिया गया था, जबकि नारायण आप्टे को नाथूराम के साथ ही फांसी की सजा सुनाई गई थी। अन्य 6 अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सजा हुई थी, जिनमें नाथूराम का छोटा भाई गोपाल गोडसे भी शामिल था। एक अन्य आरोपी दिगंबर रामचंद्र बड़गे था जो सरकारी गवाह बन कर क्षमा पा गया था। अदालत में उसने ही अपनी गवाही में सावरकर को महात्मा गांधी की हत्या की साजिश का सूत्रधार बताया था।
नारायण आप्टे पुणे के संस्कृत विद्वानों के परिवार में जन्मा था। उसने बॉम्बे यूनिवर्सिटी से विज्ञान में स्नातक की डिग्री ली थी। वह 1939 में हिंदू महासभा से जुड़ गया था और उसने गोडसे के साथ मिल कर अग्रणी नामक अखबार भी निकाला था। ब्रिटिश वायुसेना में नौकरी कर चुका आप्टे गणित का शिक्षक भी रह चुका था।
30 जनवरी 1948 यानी महात्मा गांधी की हत्या से एक दिन पहले 29 जनवरी को नाथूराम गोडसे अपने जिन दो साथियों के साथ दिल्ली पहुंचा था उनमें एक नारायण आप्टे था और दूसरा था मदनलाल पाहवा। तीनों दिल्ली में एक होटल में ठहरे थे। तीनों ने 29 जनवरी की रात को एक ढाबे में खाना खाया था। आप्टे शराब पीने का शौकीन था और उसने उस दिन भी शराब पी थी।
खाना खाने के बाद गोडसे सोने के लिए होटल के अपने कमरे में चला गया। पाहवा गया था सिनेमा नाइट शो देखने और आप्टे पहुंचा था पुरानी दिल्ली स्थित वेश्यालय में रात गुजारने। वह रात उसके जीवन की यादगार रात रही, ऐसा खुद उसने अपनी उस डायरी में लिखा था, जो बाद में गांधी की हत्या के मुकदमे के दौरान दस्तावेज के तौर पर पुलिस ने कोर्ट में पेश की थी।
गोडसे और आप्टे को 15 नवंबर 1949 को अंबाला जेल में फांसी दी गई थी। उस दिन का अंबाला जेल के दृश्य का आंखों देखा हाल गांधी हत्याकांड के मुकदमे का फैसला सुनाने वाले जस्टिस जीडी खोसला ने अपने संस्मरणों में लिखा है, जिसके मुताबिक गोडसे और आप्टे को उनके हाथ पीछे बांध कर फांसी के तख्ते पर ले जाया जाने लगा तो गोडसे लड़खड़ा रहा था। उसका गला रुंधा था और वह भयभीत तथा विक्षिप्त दिख रहा था। आप्टे उसके पीछे चल रहा था और उसके माथे पर भी डर तथा शिकन साफ दिख रही थी।
चूंकि गोडसे का संबंध पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से था और महात्मा गांधी की हत्या के बाद तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया था। हालांकि संघ का हमेशा कहना रहा है कि गोडसे बहुत थोड़े समय ही आरएसएस से जुड़ा रहा और वह गांधीजी की हत्या के बहुत पहले ही संघ से अलग हो गया था। अपनी इस सफाई को पुख्ता करने के लिए आरएसएस के शीर्ष पदाधिकारी गोडसे को औपचारिक तौर पर गांधी का हत्यारा भी मानते हैं और उसके कृत्य को निंदनीय करार भी देते हैं।
लेकिन सवाल है कि आखिर क्या वजह है कि केंद्र में भारतीय जनता पार्टी के सत्तारूढ़ होने के बाद ही गोडसे और उसके साथियों को महिमामंडित करने का सिलसिला शुरू हुआ?
ऐसा क्यों होता है कि बीजेपी और संघ से जुड़ा कोई पदाधिकारी, केंद्र सरकार के मंत्री, सांसद और विधायक खुलेआम गोडसे को देशभक्त बताते हैं और संगठन उनके बयान को उनकी निजी राय बता कर अपना पल्ला झटक लेता है? यही नहीं, राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर बैठे लोग भी गोडसे का स्तुति गान करते हैं और उन्हें कोई रोकता-टोकता नहीं है।
गौरतलब है कि चार साल पहले 15 नवंबर 2017 को अखिल भारतीय हिंदू महासभा ने ग्वालियर में अपने कार्यालय में ही नाथूराम गोडसे का मंदिर बना कर उसमें उसकी मूर्ति स्थापित कर दी थी। ग्वालियर के दौलतंगज में स्थित हिंदू महासभा का यह कार्यालय पिछले करीब 80 वर्षों से मौजूद है। इस कार्यालय में नाथूराम गोडसे ने 1947 में भी एक सप्ताह बिताया था।
कार्यालय में नाथूराम गोडसे की मूर्ति स्थापित किए जाने का कृत्य स्थानीय पुलिस प्रशासन की जानकारी में अंजाम दिया गया था, लेकिन इसे रोकने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की गई थी।
जब इस कृत्य को सोशल मीडिया के माध्यम से ग्वालियर में वरिष्ठ पत्रकार व गांधीवादी कार्यकर्ता डॉ. राकेश पाठक ने सार्वजनिक किया तो फिर देशभर के अखबारों में इसकी खबरें भी छपीं। ग्वालियर में कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने भी इस मुद्दे को लेकर प्रशासन का ध्यान आकर्षित करने के लिए प्रदर्शन किया था और धरने पर बैठे थे। तब कहीं जाकर प्रशासन हरकत में आया था और उसने गोडसे की मूर्ति को जब्त कर उसे पुलिस थाने के मालखाने में जमा करा दिया था।
स्थानीय प्रशासन ने उस समय मूर्ति भले ही जब्त कर ली, लेकिन इससे हिंदू महासभा की आपत्तिजनक गतिविधियों पर कोई असर नहीं पड़ा। मूर्ति जब्त कर लिए जाने के बाद भी हिन्दू महासभा के कार्यालय में हर साल 19 मई को गोडसे का जन्मदिन और उसकी फांसी वाले दिन 15 नवंबर को उसका 'बलिदान दिवस’ मनाया जाता है। इन कार्यक्रमों में उसे 'चिंतक’ और यहां तक कि 'देशभक्त’, 'स्वतंत्रता सेनानी’ और 'शहीद’ भी बताया जाता है।
दरअसल, ग्वालियर शहर शुरू से ही हिंदू महासभा की गतिविधियों का प्रमुख केंद्र रहा है। उसे देश की आजादी से पहले आजादी के बाद भी कई वर्षों तक ग्वालियर राजघराने का आश्रय मिलता रहा। कहा यह भी जाता है कि महात्मा गांधी की हत्या में इस्तेमाल की गई पिस्तौल की आपूर्ति भी ग्वालियर के राजमहल से ही हुई थी।
आजादी के पहले तक मुसलिम लीग के बरअक्स हिंदूवादी राजनीतिक संगठन के तौर पर हिंदू महासभा को ही जाना जाता था। लेकिन आजादी के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक इकाई के तौर पर जनसंघ का उदय होने और उसके साथ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जुड़ जाने से हिंदू महासभा राजनीतिक तौर पर हाशिए पर चली गई। आज भी हिंदू महासभा कहने को तो अखिल भारतीय संगठन है, लेकिन उसकी गतिविधियां आमतौर पर सिर्फ मध्य प्रदेश और उसमें भी सिर्फ ग्वालियर तक ही सीमित रहती हैं।
ऐसे में सवाल है कि आप्टे की मूर्ति लगाने के लिए उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर का ही चयन क्यों किया गया? दरअसल मेरठ से नारायण आप्टे या नाथूराम गोडसे का कभी कोई नाता नहीं रहा, लेकिन समझा जाता है कि कुछ महीनों बाद होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को ध्यान में रख कर मूर्ति स्थापित करने के लिए मेरठ का चयन किया गया है। मेरठ पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रमुख शहर है।
पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बूते अच्छी खासी कामयाबी हासिल की थी। यह ध्रुवीकरण सांप्रदायिक दंगों के चलते हुआ था। इन दंगों की वजह से जाट और मुसलिम समुदाय की पारंपरिक एकता टूट गई थी, जिसका लाभ बीजेपी को मिला था। लेकिन इस बार कृषि कानूनों के खिलाफ पिछले एक साल से जारी किसान आंदोलन के चलते वह ध्रुवीकरण अब पूरी तरह खत्म हो गया है। ऐसे में बीजेपी को इस इलाके में अपनी जमीन खिसकती नजर आ रही है।
इसी स्थिति को को ध्यान में रखते हुए हिंदू महासभा को मोहरा बना कर महात्मा गांधी के हत्यारों की मूर्ति के बहाने माहौल गरमाने और ध्रुवीकरण करने की कोशिश की जाएगी।
हालांकि बीजेपी ने जाहिरा तौर पर हिंदू महासभा की इस कवायद से दूरी बनाए रखी है और संभव है कि स्थानीय पुलिस प्रशासन भी आने वाले दिनों में गोडसे और आप्टे की मूर्तियों को जब्त कर लेगा।
About Us । Mission Statement । Board of Directors । Editorial Board | Satya Hindi Editorial Standards
Grievance Redressal । Terms of use । Privacy Policy
अपनी राय बतायें