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बिजनौर पुलिस पर अदालत की तीखी टिप्पणी : जवानों के घायल होने का सबूत नहीं

क्या बिजनौर पुलिस बेकसूरों को फँसाने के लिए उन्हें झूठे मामलों में उलझाती है? क्या पुलिस बिना किसी सबूत के ही किसी को गिरफ़्तार कर जेल में डाल देती है और इसकी पूरी कोशिश करती है कि उन्हें अदालत से ज़मानत न मिले?

ये सवाल इसलिए उठते हैं कि बिजनौर की सत्र अदालत ने नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ चले आन्दोलन के दौरान गिरफ़्तार 2 लोगों को ज़मानत देते हुए पुलिस पर कड़ी टिप्पणी की है। अदालत ने कहा है कि पुलिस इसका कोई सबूत पेश नहीं कर पाई कि अभियुक्त गोलीबारी और आगजनी में शामिल थे।
अदालत ने यह भी कहा कि पुलिस इसके सबूत भी नहीं दे पाई है कि अभियुक्तों के पास से हथियार बरामद किए गए या पुलिस वाले उनकी गोली लगने से घायल हुए हैं।

पुलिस पर कड़ी टिप्पणी

इंडियन एक्सप्रेस ने इससे जुड़ी एक अहम ख़बर में दावा किया है कि उसके पास अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश संजीव पांडेय के आदेश की प्रति है। इस ज़मानत आदेश में जज ने पुलिस की तीखी आलोचना की है और उस पर कई सवाल खड़े किए हैं।
पुलिस ने बिजनौर से 100 से ज़्यादा लोगों को गिरफ़्तार किया, कई एफ़आईआर में उनके नाम डाले और उस पर कई तरह के आरोप लगाए। पुलिस ने कहना है कि उसने नहटपुर, नजीबाबाद और नगीना से इन लोगों को आगजनी, दंगा और हत्या की कोशिश करने के आरोपों में गिरफ़्तार किया। 

बिजनौर पुलिस ने यह स्वीकार किया है कि एक कांस्टेबल की गोलीबारी में मुहम्मद सुलेमान की मौत हो गई। कांस्टेबल मोहित कुमार ने आत्मरक्षा में गोली चलाई थी।

एफआईआर की पोल खुली?

ज़मानत आदेश बिजनौर के नजीमाबाद थाने के एक एफ़आईआर से जुड़ा हुआ है। इसमें शफ़ाक अहमद इमरान पर दंगा करने और हत्या की कोशिश करने के आरोप लगाए गए हैं। एफ़आईआर में कहा गया है, ‘पुलिस को जानकारी मिली कि 100-150 लोग जलालाबाद में एनएच 74 पर जमा हो गए हैं और उसे जाम कर दिया है। पुलिस वहाँ पहुँची तो पाया कि शफ़ाक और इमरान भीड़ का नेतृत्व कर रहे हैं। पुलिस ने भीड़ को समझाने-बुझाने की कोशिश की। पर भीड़ ने पुलिस वालों को जान से मारने की धमकी दी और वहीं वे बैठ गए।’

ज़मानत की सुनवाई के दौरान सरकारी वकील ने कहा कि भीड़ ने पथराव किया, आगजनी की और गोलियाँ चलाईं, जिससे पुलिस के जवान घायल हो गए। उन्होंने यह भी कहा कि पुलिस ने गोलियाँ बरामद भी की हैं। सरकारी वकील के मुताबिक़, पुलिस ने न्यूनतम बल का प्रयोग किया।

लेकिन सत्र न्यायाधीश ने ज़मानत देते हुए पुलिस पर गंभीर टिप्पणियाँ कीं और कई सवाल खड़े किए। उन्होंने कहा कि इमरान को छोड़ किसी अभियुक्त को वारदात की जगह से गिरफ़्तार नहीं किया गया।
पुलिस ने कहा कि गोलियाँ बरामद कीं, पर वह गोलियाँ पेश नहीं कर सकी। इसी तरह पुलिस ने दावा किया कि हथियार बरामद किए गए, पर वह वे हथियार पेश करने में नाकाम रही।

पुलिस का झूठ?

जज ने यह भी कहा कि पुलिस का दावा है कि पथराव की वजह से पुलिस वाले घायल हो गए, पर वह इसे साबित नहीं कर पाई। इसी तरह इसका कोई सबूत नहीं है कि गोलियों से पुलिस वाले घायल हो गए। 

उत्तर प्रदेश की पुलिस पर पहले भी ज़्यादातियाँ करने और  जानबूझ कर लोगों को झूठे मामलों में फँसाने के आरोप लगते रहे हैं। लेकिन नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ चल रहे आन्दोलन के दौरान इस तरह की अधिक शिकायतें मिली हैं। एक नहीं कई बार पुलिस के दावों को खोखला पाया गया है और अदालत ने पुलिस पर सवाल उठाए हैं। सवाल यह है कि इससे पुलिस की कार्यपद्धति तो दिखती ही है, पर क्या इससे यह भी मालूम होता है कि पुलिस पूर्वग्रह से ग्रस्त है?

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क़मर वहीद नक़वी
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