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`ठेके पर मुशायरा’: शायरी और शायरों पर एक नाटक

इरशाद खान सिकंदर उर्दू- हिंदी के शायर भी हैं और नाटककार भी। ये बहुत कम होता है कि उर्दू के शायर को हिंदी का शायर भी कहा या माना जाए। यों पिछले कई बरसों से हिंदी में गजल लेखन का सिलसिला आगे बढ़ते हुए एक लंबी दूरी तय कर चुका है फिर भी लोंगों के जेहन में उर्दू में गजल अलग है और हिंदी अलग। पर इरशाद खान सिकंदर उर्दू के ऐसे गजलगो हैं जिनको हिंदी का गजलगो भी कहा जा सकता है। इसलिए कि उनकी गजलों की जो शब्दावली है उसके आधार पर इस बात का फर्क करना कठिन है कि कौन सा शब्द सिर्फ हिंदी का और कौन सा सिर्फ उर्दू का। यानी उनके यहां गजल का रूप तो फारसी गजल का है लेकिन शब्दावली अपवादों को छोड़ दें तो हिंदी वाली। लेकिन उर्दू की परंपरागत शायरी पर भी उनकी पूरी पकड़ है। इसका एक बड़ा सबूत तो उर्दू के मशहूर शायर जॉन एलिया पर लिखा उनका नाटक है `ज़ॉन एलिया का जिन्न’। इसे कई महीने पहले रंजीत कपूर ने निर्देशित किया था। इसे हिंदी और उर्दू- दोनों के ही दर्शकों ने सराहा था।

बहरहाल, इरशाद खान सिकंदर का एक नया नाटक भी रंगमंच पर आ चुका है जिसका नाम है `ठेके पर मुशायरा।‘ इसे युवा रंगकर्मी दिलीप गुप्ता ने निर्देशित किया है और पिछले रविवार को ही निर्माण विहार के भारती आर्टिस्ट कोरोनी में इसे खेला गया। नाम से ही जाहिर है कि इस नाटक में शायरी का बोलबाला है। लेकिन ऐसी शायरी जो आपको हंसने के लिए मजबूर भी करे और आपको अदबी माहौल से भी जोड़ दे। और साथ ही उस दर्द का एहसास भी दिला दे जिससे आज का बेहतर शायर गुजर रहा है।

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`ठेके पर मुशायरा’ कुछ शायरों और शायरी प्रेमियों की कहानी है। इसके कुछ चरित्र उर्दू के शायर हैं। एक हैं कमान लखनवी जिनको शायरी की दुनिया में शोहरत और मुकाम हासिल है पर इसके बावजूद माली हालत  बहुत ख़राब है। वे महीनों से घर का किराया नहीं दे पा रहे हैं। मकान मालिक कहता है किराया दो वरना मकान खाली करो। वे किसी तरह मकान मालिक से बचने की कोशिश करते हैं। जो दूसरे चरित्र हैं उनके अंदाज भी अजीब हैं। एक शायरा है मैना सहगल जो उस्ताद कायम लखनवी की शायरी खरीद कर अपने नाम से मुशायरों में सुनाती है और वाहवाही लूटती हैं। वैसे उस्ताद में भी एक और तरह की उस्तादी है। वे एक गजल को कई शायराओं को बेच देते हैं और वे शायराएं आपस में झगड़ती रहती हैं। 

दूसरे चरित्रों मे एक युवा है अनुराग आहन जो उस्ताद  का शागिर्द है और उन्हीं पर ही बैठा रहता है। बाग देहलवी नाम का एक शायर चरित्र भी है जो विचित्र हरकतें करता रहता है। तेवर खयालपुरी नाम का एक मंच संचालक भी है जो उस्ताद के घर पर बैठ कर दिन भर चाय बनाता रहता है।

लेकिन एक मजेदार चरित्र है जो उस्ताद को फंसा देता है। वो एक राम भरोसे `गालिब’ नाम का सस्ता शायर है। वो उस्ताद से कहता है कि पैसा कमाना है तो एक ओपन माइक कार्यक्रम में शिरकत करे और बदले में आय़ोजक से मोटी रकम की मांग करे। उस्ताद जी कहते हैं कि ऐसे में मुशायरे की तहजीब का क्या होगा? राम भरोसे कहता है कि किराया चुकाना है तो तहजीब को मारो गोली। खैर, मरता क्या न करता। तो उस्ताद जी अपने चेलों के साथ ठेके पर मुशायरे करने चले भी जाते हैं। इस ओपेन माईक कार्यक्रम का आय़ोजक बीच बीच में इस तरह की सूचनाएं भी देता रहता है कि आयोजन मंडली के एक सदस्य को एक कुत्ते ने दौड़ा लिया है और कुछ वालंटियर उस शख्स को कुत्ते से छुड़ाएं। इसी सब के दौरान शायरी भी सुनाई जाती है। खैर, किसी तरह कार्यक्रम समाप्त होता है लेकिन आयोजक उस्ताद को पैसा दिए बिना चंपत हो जाता है।
irshad khan sikandar theke par mushayra drama played - Satya Hindi

बतौर नाटक `ठेके पर मुशायरा’ शुरू से अंत तक हंसाते हंसाते लोटपोट कर देता है। हर चरित्र का अपना नायाब स्टाईल है। कमान लखनवी की भूमिका में नरेंद्र कुमार ने एक संजीदा शायर की भूमिका निभाई है तो बाग देहलवी की भूमिका में आमिर खान और तेवर खयालपुरी की भूमिका में राज तंवर ने जो कॉमिक सीन बनाए वो बेहद दिलचस्प थे। निर्देशक दिली गुप्ता ने राम भरोसे गालिब की भूमिका भी निभाई जो अपने संवादों और शरारतों से माहौल को हमेशा हल्का-फुल्का बनाए रखता है। आयोजक छांगुर ऑलराउंडर की भूमिका में गौरव कुमार अपने छोटे व नुकीले संवादों और मंच पर दी जा रही सूचनाओं से वातावरण को मजाकिया बनाए रखते हैं।

अब आखिर में इस नाटक में पेश की गई शायरी की चंद मिसालें जिसके बिना यें अंदाज लगाना मुश्किल है कि इसमें कैसे हास्य कविता वाले तत्व आ गए हैं।

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है अब चारो तऱफ चर्चा हमारा

हसीनाओं ने घर लूटा हमारा

रकीबों हट भी जाओ रास्ते से

तुम्हें दौड़ा न ले कुत्ता हमारा

किसी के इश्क के कांटों से उलझे

उलझकर फट गया कुर्ता हमारा

जहां भी आपके आखें मिली हैं

वहीं पर खुल गया ठेका हमारा

`ठेके पर मुशायरा’ हिंदी नाटकों की दुनिया में उस तरह का स्वाद लेकर आय़ा है जिसमें उर्दू की रिवायतें भी हैं और वे सस्ती कारगुजारियां जो आजकल की संस्कृति को छिछला बना रही हैं।

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रवीन्द्र त्रिपाठी
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