पद्मा कुमारी के कहानी संग्रह अपरूपा के माध्यम से भारत में नमीवाद और उसके वर्तमान स्वरूप को समझना
संसदीय लोकतंत्र की तमाम ख़ामियों और नाकामियों के बावजूद मैं इसे भारत के संदर्भ में अपरिहार्य व्यवस्था मानता हूं- शायद यह हमारे संस्कारों में इतना रच-बस गई है कि हमारे भीतर चाहे जितने भी फासीवादी तत्व हों, वे जैसे भी वोट जुटाएं, लेकिन उन्हें संसदीय बहुमत की मान्यता शासन के लिए ज़रूरी लगती है।
इसी संस्कार की वजह से किसी बदलाव या क्रांति के लिए हिंसा का तरीक़ा मुझे स्वीकार्य नहीं होता। लेकिन इसकी दो-तीन वजहें और हैं। पहली बात तो यही लगती है कि हिंसा चाहे जितने भी बड़े मक़सद के लिए की जाए, वह हिंसा करने वाले को कुछ बदल डालती है। हम कलम थामते हैं तो कुछ और होते हैं, बंदूक थामते हैं तो कुछ और हो जाते हैं। कविता लिखते हैं तो कुछ और होते हैं और गोली चलाते हैं तो कुछ और हो जाते हैं। रूस और चीन जैसे कामयाब हिंसक क्रांतियों वाले देशों का अनुभव बताता है कि वहां हुक़्मरान किस तरह बदले और अवाम को अपने पुराने कृत्यों पर कैसी हैरानी होती है। चीन के लेखक अब सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर हुए दमन और उत्पीड़न को लेकर पश्चाताप और अफ़सोस में डूबे दिखते हैं। रूस में स्टालिन के शासन काल का एक पक्ष ऐसा स्याह है कि उसे कम्युनिस्ट भी याद करने से डरते हैं। वैसे भी रूस साम्यवादी नहीं बचा और चीन का साम्यवाद पूंजीवाद से गठजोड़ करके मज़बूत हुआ, सर्वहारा की क्रांति से नहीं।
सत्ता की ताक़त
यह सच है कि क्रांति के खयाल ने हमें लेनिन, चेग्वेरा, फीदेल कास्त्रो और हो ची मिन्ह जैसे नायक दिए। लेकिन जिस दौर में और जिन देशों में वे क्रांतियां कर रहे थे, उनके मुक़ाबले आज के हालात काफ़ी बदल चुके हैं। चेग्वेरा की गुरिल्ला युद्ध-योजनाएं आज के सूचना युग में अगर बेमानी नहीं तो बेहद असहाय हो चुकी हैं। दूसरी तरफ़ राज्य सत्ता की ताक़त बेशुमार बढ़ी है। क्रांति के नाम पर की जाने वाली हिंसा फिर राज्य की हिंसा को वैधता देती है। भारत के सुदूर गांव देहातों में बरसों से चल रहे और काफ़ी कुछ सिकुड़ चुके माओवादी आंदोलन का सच यही है। उसकी हिंसा के बाद राज्य चौगुनी ताक़त के साथ हमला करता है और इस हमले में कहना मुश्किल होता है कि कितने माओवादी मारे गए और कितने गांव वाले। पिछले दिनों जब ऑपरेशन सिंदूर चल रहा था, तो उसके समानांतर एक ऑपरेशन छत्तीसगढ़ में भी जारी था- माओवादियों के सफाये का। कई दिन चले इस अभियान के दौरान अलग-अलग दिनों मारे जाने वाले माओवादियों की तस्वीरें आती रहीं और देश के गृह मंत्री बताते रहे कि 2026 तक माओवाद का समूल नाश हो चुका होगा। इसके पहले मनमोहन सिंह सरकार भी माओवादियों को देश का सबसे बड़ा दुश्मन घोषित कर चुकी थी।
लेकिन कौन हैं ये नासमझ लोग जो नक्सली या माओवादी बन जाते हैं? कहां से उनमें इतना गुस्सा चला आता है, इतनी हताशा पैदा होती है कि वे बंदूक उठा कर अपने से हज़ारगुना शक्तिशाली ताक़त के सामने खड़े हो जाते हैं?
वे किन सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक हालात के शिकार होते हैं कि वोट की ताक़त पर भरोसा खोकर बंदूक पर भरोसा करने लगते हैं? क्यों इनका ‘डॉक्ट्रिनेशन’ संभव हो पाता है? हमारा संसदीय लोकतंत्र अपने इन भटके हुए नागरिकों को न्याय और समानता का भरोसा क्यों नहीं दिला पा रहा?
अर्बन नक्सल के नाम पर प्रताड़ना?
इन दिनों ऐसे सवाल पूछना भी ख़तरनाक है। माओवाद के तौर-तरीक़ों से आपकी असहमति मायने नहीं रखती, माओवाद के ख़ात्मे के नाम पर हो रही हिंसा की आलोचना करना भी जुर्म है। आपको अर्बन नक्सल बता कर जेल में डाला जा सकता है। सत्तर और अस्सी के दशकों में हिंदी साहित्य ऐसी कविताओं और कहानियों से भरा पड़ा था जिनमें इस माओवाद के वैचारिक समर्थन का आग्रह हुआ करता था। बेशक, उसके पीछे बौद्धिकता कम और रोमानी भावुकता ज़्यादा थी, लेकिन आज तो ऐसा साहित्य भी संभव नहीं है।
तेलुगू लेखिका पद्मा कुमारी का कहानी संग्रह ‘अपरूपा’ पढ़ते हुए ये सारी बातें ध्यान में आईं। मुझे नहीं मालूम- पद्मा कुमारी कौन हैं, यह वास्तविक नाम है या कोई छद्म नाम है- लेकिन ये कहानियां अचानक हमारे सामने एक नई दुनिया खोल देती हैं- उन परिवारों की दुनिया जहां से ये माओवादी लड़के निकलते हैं, जंगलों में जाते हैं और एक दिन सुरक्षा बलों के हाथों मारे जाते हैं। इन कहानियों में वे बहनें हैं जो अपने भाई के नक्शे क़दम पर चलते हुए एक दिन जंगल में उतर आती है और कई दिन पैदल चलने के बाद पाती है कि भाई आख़िरी सांसें गिन रहा है। इन कहानियों में वे मांएं हैं जो अपने सामने अपने बच्चों के शव देख रही हैं और याद कर रही हैं कि बचपन में वह कितना खिलंदड़ा और मासूम था। इन कहानियों में सुरक्षा बलों के हाथ मारे गए लड़कों के शव लेने एक एंबुलेंस पर दो दिन तक सफ़र कर आंध्र से छत्तीसगढ़ पहुंचते लोग हैं जिन्हें रास्ते में सुरक्षा बलों और सलवा जुड़ुम दोनों का ख़तरा है और जो इन सबको पार कर जब अस्पताल पहुंचते हैं तो पाते हैं कि उनके आत्मीय जनों के शवों पर कीड़े लगे हुए हैं और उन्हें लाना संभव नहीं है। इन कहानियों में इन सारी मायूसियों के बावजूद बचा हुआ क्रांति का जज़्बा है जिसमें अपने मारे गए साथियों के स्मारक बनाने और वहां कार्यक्रम करने का हौसला शामिल है। इन कहानियों में एक न बुझने वाली आग है जो शायद बुझाए जाने की कोशिश से और भड़क उठती है।
लड़ने के लिए बंदूकें नहीं पेंसिलें चाहिए!
कुल मिलाकर यह वह भारत है जिसे हम पहचानते नहीं या जिससे हम बहुत दूर हो चुके हैं। जिन्हें माओवादी कहा जाता है, वे भी इस देश के नागरिक हैं, इस देश के गांव-देहातों में उनके घर हैं, बूढ़े होते मां-बाप हैं, डरे हुए छोटे भाई-बहन हैं जिन्हें कभी भी पुलिस उठा कर ले जा सकती है- यह खयाल हमें नहीं आता। इन गांवों में स्कूल होते, अस्पताल होते, शिक्षक होते, डॉक्टर होते तो शायद बंदूक नहीं होती। लेकिन यहां एंबुलेंस है, सुरक्षा बलों के कैंप हैं, सड़कें हैं जिन पर उनकी गाड़ियां दौड़ती हैं। कुछ लोग बताते हैं कि माओवादियों को भी स्कूल-अस्पताल पसंद नहीं, क्योंकि इससे क्रांति का उनका स्वप्न कुछ तिरोहित होने लगता है। लेकिन अंततः इनसे लड़ने के लिए बंदूकें नहीं पेंसिलें चाहिए, पोस्टमॉर्टम के इंतज़ाम भर नहीं दवाएं और मलहम चाहिए, सड़कें ही नहीं, दूसरे साधन भी चाहिए।
लेकिन यह सोचना भी जुर्म है। यह टिप्पणी लिखते हुए भी मेरा कुछ भीरू दिमाग़ डर रहा है कि इसे सार्वजनिक किया जाए या नहीं। लेकिन पद्मा कुमारी की कहानियां मजबूर कर रही हैं कि इनका ज़िक्र करूं- बताऊं कि इस मुल्क के जिस्म के एक हिस्से में कितने ज़ख़्म हैं और उन्हें कितने मलहम की भी ज़रूरत है। यह उम्मीद भी करूं कि कुछ और लोग ऐसी कहानियां और सच्चाइयां लिखते रहें।
तेलुगू से हिंदी में इस संग्रह का अनुवाद एन आर श्याम ने किया है। अनुवाद में कुछ मुश्किलें हैं, लेकिन कहानियां इनके बावजूद आसानी से अपनी बात कह जाती हैं।