6 दिसंबर की तारीख़ गुजर चुकी है। इस तारीख़ के पास आते ही यह सवाल उठने लगता है कि इसे याद करें या न करें। धर्मनिरपेक्ष लोगों और मुसलमानों में दुविधा देखी जाती है: क्या एक गुजर गए ‘वाक़ए’ को, जो दुःस्वप्न सा है, याद करें? और क्यों? इस याद से क्या लाभ होता है? क्या यह कड़वाहट ही नहीं पैदा करती? क्या यह मुसलमानों में और निराशा का भाव ही नहीं भरती है? क्या यह मुनासिब नहीं कि इसे एक बुरे सपने की तरह भुला दिया जाए और अधिक उपयोगी और आवश्यक मसलों पर ध्यान दिया जाए? यह दुविधा वास्तविक है और ईमानदार है।क्या हमें अतीत का बंदी रहना चाहिए?
क्या हम स्मृतियों के समाज के रूप में ही जीवित रहना चाहते हैं? ख़ासकर वैसी स्मृति को जीवित रखना कितना स्वास्थ्यकर है जो हमें बार-बार हमारी असहायता और विफलता का अहसास ही कराती हो? आख़िरकार 6 दिसंबर और क्या है अगर वह धर्मनिरपेक्षता की पराजय की तारीख़ नहीं है? और मुसलमानों के लिए वह तारीख़ इसकी याद दिलाती है कि उसके ख़िलाफ़ हिंसा में संगठित बलवाई भीड़ के साथ राज्य की सारी संस्थाएँ या तो खामोशी से या सक्रिय रूप से शामिल रहती हैं। धर्मनिरपेक्ष हिंदुओं या ग़ैर मुसलमानों के लिए पराजय और निरुपायता और मुसलमानों के लिए सक्रिय अन्याय: ये दो भाव 6 दिसंबर से जुड़े हैं।
एक बड़ा हिस्सा यह कहता रहा है कि 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद का ध्वंस एक ऐतिहासिक अन्याय को समाप्त करने के अभियान का हिस्सा था, वह आज के भारत के मुसलमानों के ख़िलाफ़ नहीं था।लेकिन याद रहे, 6 दिसंबर , 1992 को बाबरी मस्जिद के गिराए जाने के साथ ही अयोध्या, फ़ैज़ाबाद में बड़े पैमाने पर मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा की गई जिसमें 20 से अधिक मुसलमान मार डाले गए, सैकड़ों घर-दुकानें जला दी गईं और दर्जनों मस्जिदों और क़ब्रिस्तानों को तबाह किया गया।
उसी समय मुंबई में भी मुसलमानों के ख़िलाफ़ संगठित हिंसा हुई जिनमें कोई 900 लोग मारे गए, उनसे कहीं अधिक ज़ख़्मी हुए।हज़ारों घर-दुकानों को बर्बाद किया गया।अनेकानेक मुसलमानों को स्थायी तौर पर अपनी जगह बदल लेनी पड़ी।इस हिंसा की रिपोर्ट आज तक जारी नहीं की गई, उसपर कार्रवाई की बात दूर रही।
6 दिसंबर सिर्फ़ एक तारीख़ नहीं है। वह कोई एक दशक लंबे या दशकों लंबे मुसलमान विरोधी अभियान का एक अहम पड़ाव है।जिन्हें लालकृष्ण आडवाणी की ‘रथ यात्रा’ की याद होगी, वे बता सकते हैं कि वह वास्तव में एक मुसलमान विरोधी घृणा और हिंसा का अभियान ही था।आडवाणी ने इस यात्रा के ज़रिए भारत के हिंदुओं के बड़े हिस्से में मुसलमानों के खिलाफ नफ़रत भरी।6 दिसंबर से इस घृणा को अलग करना असंभव है। वह घृणा हिंदुओं में बढ़ती गई है।क्या उस घृणा का 6 दिसंबर से कोई रिश्ता है?
क्या 6 दिसंबर किसी समापन की तारीख़ है या मुसलमान विरोधी घृणा और हिंसा के 100 साल लंबे सिलसिले का ही एक बिंदु है? 6 दिसंबर को हम इस घृणा और हिंसा से अलग करके कैसे याद करें? या इस घृणा के जीवित रहते हम 6 दिसंबर को कैसे भुला पाएँगे? 6 दिसंबर को भूल जाएँ लेकिन उस तारीख़ के बाद जो हिंसा रोज़ रोज़ हो जारी है,उससे आँख कैसे मोड़ लें? 6 दिसंबर को भूल जाने से क्या यह घृणा और हिंसा अभियान ख़त्म हो जाएगा?
एक तर्क यह दिया जाता है कि मुसलमानों के इस पुराने ज़ख़्म को बार-बार कुरेदने से उन्हें आगे बढ़ने में क्या मदद मिलेगी? लेकिन यह सवाल करनेवालों को ख़ुद से पूछना चाहिए कि 1992 के बाद निरंतर मुसलमानों को जो ज़ख़्म दिए जा रहे हैं, जिसमें कल के हर ज़ख़्म को आज का ज़ख़्म पुराना कर देता है, उसमें उन्हें किस-किस ज़ख़्म पर ध्यान न देने की सलाह देनी चाहिए? या यह कहा जाएगा कि चूँकि उन्होंने पुराना ज़ख़्म याद रखा, उसकी प्रतिक्रिया में नए घाव देने पड़ते हैं?
गुजरात 2002, 2013 तो बड़े घाव हैं।ट्रेन, बस, सड़क, बाज़ार, स्कूल और कॉलेज: मुसलमान अब किसी भी जगह बिलकुल निश्चिंत नहीं हो सकते। ’मॉब लिंचिंग’ प्रायः मुसलमानों के ख़िलाफ़ ही होती है। एखलाक़, पहेलू ख़ान, ज़ुनैद और सैकड़ों मुसलमान जिनकी हत्याएँ असाधारण हिंसा का नमूना नहीं।उनका ज़ख़्म क्या सिर्फ़ उनके परिवारों को लगा या भारत के सारे मुसलमान उनके ख़िलाफ़ हिंसा से ज़ख़्मी हुए? हमें क्या मुसलमानों को यह कहना चाहिए कि ये व्यक्तिगत मौतें हैं, उनके ख़िलाफ़ हिंसा को सामूहिक मसला नहीं बनाया जाना चाहिए ? या यह कि इन हत्याओं से यह साबित नहीं होता कि मुसलमान भारत में मुसलमान होने के कारण असुरक्षित हैं?
क्या यह धारावाहिक हिंसा मुसलमानों के ख़िलाफ़ इसलिए हो रही है कि वे 6 दिसंबर को भूलने से इनकार करते रहे हैं?
6 दिसंबर पर मिट्टी डाली जा सकती थी अगर 9 नवम्बर, 2019 न होती, 22 जनवरी, 2022 न होती या 25 नवंबर, 2025 न होता। इन सारी तारीख़ों का 6 दिसंबर से एक रिश्ता है। 6 दिसंबर को कौन जीवित रख रहा है?
इससे आगे यह सवाल भी है कि क्या 6 दिसंबर सिर्फ़ मुसलमानों का मसला है? क्या 6 दिसंबर का महत्त्व हिंदुओं के लिए कुछ नहीं? क्या यह तारीख़ इस बात के लिए सजग नहीं करती कि एक बड़ी आबादी में एक काल्पनिक ऐतिहासिक घाव गढ़ा जा सकता है? कि एक बड़ी आबादी के स्वभाव को बदला जा सकता है और उसमें घृणा और हिंसा भरी जा सकती है? कि अगर वे अपने पूर्वग्रहों के प्रति सावधान नहीं रहे तो उन पूर्वग्रहों का इस्तेमाल करके उन्हें अपराधी बनाया जा सकता है?
आख़िरकार 6 दिसंबर के ध्वंस में शामिल सभी लोग अपराधी ही तो हैं? क्या सर्वोच्च न्यायालय ने 6 दिसंबर के बाबरी मस्जिद के ध्वंस को अपराध नहीं कहा था?
6 दिसंबर हिंदुओं की बड़ी आबादी को सक्रिय रूप से अपराधी बनाए जाने के अभियान की सफलता की कहानी है। मुसलमानों के लिए तो वह राज्य के संरक्षण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा आयोजित हिंसा और अन्याय की याद की अनेकानेक तारीख़ों में से एक है। अगर हिंदू गौर करें तो उन्हें यह तारीख़ इसकी याद दिलाएगी कि उन्हें मूर्ख, हिंसक और अपराधी बनाया गया और चूँकि उन्होंने ख़ुद इसे अन्याय नहीं माना,उन्हें मूर्खता और घृणा का यह नशा देकर उनपर क़ब्ज़ा कर लिया गया है और बुद्धि के साथ वे मानवीयता भी खो बैठे हैं।