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दिल्ली हिंसा: व्यक्ति की मौत, भीड़ का जन्म

‘जय श्री राम’ और ‘हर हर महादेव’ ने, जो पवित्र नारे हैं और जय का उद्घोष माने जाते हैं, इनके दिमाग़ कुंद कर दिए और उनके  रचनात्मक स्वभाव को जैसे लकवा मार गया।….और तब भीड़ दंगाइयों में बदल गई….।’
अपूर्वानंद
‘जाँच पड़ताल और गवाहों के बयान से मालूम होता है कि ....मुसलमानों से बदला लेने के लिए, इस तरह के प्रचार के बेइंतहाई अहमकपन को समझने में असफल, उस इलाक़े के कुछ नौजवानों ने अपने समुदाय की रक्षा करने के नाम पर एक वहाट्सऐप ग्रुप  बनाया। इन लोगों ने अपनी व्यक्तिमत्ता गँवा दी और एक भीड़ के दिमाग़ की तरह  काम करने लगे। ‘जय श्री राम’ और ‘हर हर महादेव’ ने, जो पवित्र नारे हैं और जय का उद्घोष माने जाते हैं, इनके दिमाग़ कुंद कर दिए और उनके  रचनात्मक स्वभाव को जैसे लकवा मार गया।….और तब भीड़ दंगाइयों में बदल गई….।’

चीफ़ मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट पुरुषोत्तम पाठक ने फ़रवरी में उत्तर पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा के दौरान मारे गए आमिर ख़ान की हत्या के 11 अभियुक्तों के ख़िलाफ़ दायर की गई चार्जशीट का संज्ञान लेते हुए यह टिप्पणी की।

भीड़ का निर्माण

क़ायदे से अगले दिन और आगे भी इस टिप्पणी पर सम्पादकीय लिखे जाने चाहिए थे और समाजशास्त्रियों और सामाजिक मनोवैज्ञानिकों को इस टिप्पणी की व्याख्या करनी चाहिए थी। अभी तक ऐसा नहीं हुआ तो आगे भी नहीं होगा, यह मान लेने का कारण नहीं है। पाठक ने जो कहा है, उसके मानी बहुत गहरे हैं। दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में सामूहिक हत्याकांडों, जनसंहारों की पड़ताल करनेवालों ने पहले भी लगभग यही बात कही है।

क्रम बहुत स्पष्ट है: एक हिंसक दुष्प्रचार, उसे सच समझना, अपनी व्यक्ति-सत्ता को भूल जाना और खुद को एक भीड़ में विसर्जित कर देना। ऐसा करने के लिए इतनी उत्तेजना पैदा करना कि दिमाग़ की रचनात्मकता को लकवा मार जाए और वह जड़ हो जाए। दिमाग़ में विचार की जगह उन्माद भरने के लिए नारे बहुत कारगर होते हैं। 
व्यक्ति का लोप-चिंतन शक्ति का जड़ होना-भीड़ का निर्माण और फिर उस भीड़ का दंगाई बन जाना। हर जगह, हर बार, हर जनसंहार में यही क्रम देखा गया है।

मुख्य अपराधी कौन?

अगर इस सिलसिले को ख़त्म करना है तो हमें सबसे पहले बिंदु तक पहुँचना होगा। वह जो किसी एक समूह के ख़िलाफ़  घृणा-प्रचार की शुरुआत करता है, वह मुख्य अपराधी है।

अपराधी वह दो का है: एक तो उनका जो मारे गए या हिंसा के शिकार हुए। जब वह उनके ख़िलाफ़ प्रचार करता है तो उन्हें भी वह एक समूह में बदल देता है। वह उस समूह के सदस्यों की अद्वितीयता या विलक्षणता, दूसरे शब्दों में उनकी व्यक्तिमत्ता  से उन्हें वंचित करके जातिवाचक या समूहवाचक संज्ञा में बदल देता है। 

फिर वह उस समूह पर कोई गुण या अवगुण आरोपित करता है और उसके सारे सदस्यों को उसी से परिभाषित करता है। फिर वह यह बतलाता है कि वह उस अवगुण को सह नहीं सकता और इसीलिए उसे उस समूह को समाप्त करना होगा क्योंकि वे उसके वाहक हैं।
उस समूह के सदस्यों में किसी भी प्रकार की निजता से वह इनकार करता है। चूँकि सारी गड़बड़ी उस समूह से उनके रिश्ते में है, वे व्यक्ति की गरिमा के योग्य नहीं और उनका संहार किया ही जाना चाहिए। ये ‘दूसरे’ हैं, हानिकारक, उससे भी आगे ख़तरनाक।
वह उनका भी मुज़रिम है जिनके दिमाग़ों को उसने अपने प्रचार से कुंद कर दिया, जिनकी रचनात्मकता का अपहरण कर लिया, इस तरह उनके सोचने की क्षमता समाप्त कर दी और उनकी व्यक्तिमत्ता को उनसे छीनकर उन्हें भीड़ में बदल दिया।

भीड़ की मानसिकता

यह भीड़ इस दूसरे समूह की अपेक्षा ही अपने अस्तित्व को समझ पाती है। वह इस निरंतर प्रचार के कारण उन्हें अपनी तरह का इंसान नहीं मानती, इस दूसरे समूह के व्यक्तियों से भी वह मानवीय संबंध नहीं बना पाती। यह भीड़ उनकी है जिनको वह अपने लोग कहता है।
यह हत्या से कोई कम संगीन अपराध नहीं। यह इसलिए कि एक ख़ुदमुख़्तार इकाई के रूप में व्यक्ति का उदय अपने आप नहीं हुआ है। व्यक्ति वह है जो स्वाधीन है, स्व की सत्ता पर जो किसी और का नियंत्रण नहीं होने देता। गांधी के स्वराज का भी यही मतलब था। इस व्यक्ति के जन्म का पथ रक्तरंजित है।
धर्म की सत्ता, राजा की सत्ता, राज्य की सत्ता और समाज या समुदाय की सत्ता से संघर्ष करते हुए, ढेर सारी शहादतों के बाद व्यक्ति की स्वायत्तता को क़बूल किया गया।

व्यक्ति की स्वायत्तता

व्यक्ति है, उसके मौलिक अधिकार हैं, उनका स्रोत वह खुद है, यानी उनकी वैधता के लिए उसे किसी बाहरी स्वीकृति की आवश्यकता नहीं, यह समझना इतना आसान नहीं था। अभी भी नहीं है।  व्यक्ति का जन्म ही एक प्रकार का विद्रोह है। 

निर्मल वर्मा प्रेमचंद पर लिखते हुए व्यक्ति के जन्म का अर्थ बताते हैं, “…’कफ़न’ तक आते-आते अचानक प्रेमचंद के पात्रों को अहसास होता है, जिसे वह सर्वग्रासी साँप समझे  बैठे थे, वह महज़ रस्सी है, सामाजिक मर्यादाओं और कर्तव्यों की कच्ची, जर्जरित, तार-तार होती हुई रस्सी जिसे एक झटके से तोड़कर मुक्त हुआ जा सकता है।…एक सामंतवादी समाज में एक संस्कारग्रस्त धर्मशील व्यक्ति का विद्रोह केवल दूषण के रूप में हो सकता है-वह उन समस्त मर्यादाओं को दूषित और हास्यास्पद बना देता है, जिन्हें हम प्राचीनकाल से पुनीत और पवित्र मानते आए हैं।’

निर्मल वर्मा के अनुसार जिस क्षण ‘कफ़न’ के बाप और बेटा बहू और पत्नी के कफ़न के पैसों से शराब के कुल्हड़ में मुँह लगाते हैं, उस क्षण हिंदी साहित्य में व्यक्ति पहली बार स्वतंत्रता का स्वाद चखता है।

व्यक्ति की स्वायत्तता का अर्थ

व्यक्ति की स्वतंत्रता या  स्वायत्तता का अर्थ  यह नहीं है कि वह समाजनिरपेक्ष है। एक व्यक्ति के होने का अर्थ ही है दूसरे व्यक्ति का भी होना। वे स्वतंत्र हैं, स्वाधीन हैं लेकिन एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। कहा जा सकता है कि एक वह आईना है जिसमें दूसरा खुद को देख पाता है। इस तरह व्यक्ति के अस्तित्व के लिए दूसरे की मध्यस्थता आवश्यक है। 

समाज भी एक मध्यस्थ है। व्यक्ति के होने का मतलब इस प्रकार की अंतर्निर्भरता और सहअस्तित्व है। कोई भी अपनी व्यक्तिमत्ता को रिश्तों के इस जाल के भीतर ही हासिल करता है। वह कितनी समृद्ध या कंगाल है, यह इससे तय होगा कि वह कितने क़िस्म के रिश्तों में है। ये सारे रिश्ते सहानुभूति पर आधारित होंगे।

सीमित पहचान

जिसे एक ही तरह के रिश्ते में सुरक्षा का अहसास होता है, वह निश्चय ही उसके मुक़ाबले हीनतर है जो कई क़िस्म के रिश्ते बना पाता है। एक परशुराम समिति, ब्रह्मर्षि समिति या वैश्य समाज या बरेलवी या देवबंदी समाज की सदस्यता व्यक्ति की पहचान को सीमित और विकृत कर सकती है। व्यक्ति की एक और विशेषता है अपने दायरे से बाहर जाने की ताक़त। उसका दायरा जो जितना संकुचित करता है, वह उसके भीतर की संभावना का उतना ही विनाश करता है।

व्यक्ति की सबसे बड़ी विशेषता है उसमें आत्मचिंतन की क्षमता। जो वह करता है, उसपर विचार करने की उसकी प्रस्तुति। इससे रचनात्मकता का सीधा संबंध है। अगर वह यह नहीं कर पाता तो वह व्यक्ति नहीं।

शिक्षा चिंतन या आत्मचिंतन या ‘रिफ़्लेक्शन’ के लिए हमें तैयार करती है। लेकिन शिक्षा की जगह जब प्रचार  ले ले तब वह होगा जो अपनी टिप्पणी में पुरुषोत्तम पाठक ने नोट किया, मूर्खतापूर्ण प्रचार को ही सच मन लिया जाता है।

व्यक्ति का भीड़ में बदलना

तुर्की में आर्मेनियाई ईसाइयों का जनसंहार हो, यूरोप में यहूदियों का या रवांडा का जनसंहार हो या सर्बिया में बोस्नियायी मुसलमानों का संहार या बर्मा में रोहिंग्या  लोगों का, हर जगह क्रम एक ही है: सतत प्रचार के द्वारा दिमाग़ को कुंद कर देना, आत्मचिंतन की क्षमता को नष्ट कर देना, रिश्तों को संकुचित कर देना, इस तरह वयक्तिमत्ता गँवा देना और व्यक्ति को भीड़ में बदल देना। फिर वह  हिंसा का एक औज़ार मात्र रह जाता है। यह उसका भी अपमान है।

दिल्ली की हिंसा के बाद उसकी जाँच और इंसाफ़ की खोज के क्रम में प्रायः निराशा ही हाथ लगी है। लेकिन  पुरुषोत्तम पाठक ने एक बड़ा सवाल उठाया है जिसके लिए उन्हें धन्यवाद देना ही चाहिए।

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