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सिद्दीक़ कप्पन के लिए न्याय एक संयोग है, नियम नहीं

अपने मुक़दमे का इन्तजार कर रहे कैदी से ज़िंदगी का हक़ छिन नहीं जाता। यह राज्य का जिम्मा है कि वह उसे हर मुमकिन सहूलियत मुहैया करवाए जिससे वह सेहतमंद रह सके। लेकिन मेहता साहब ने जिस तरह कप्पन के खिलाफ़ बहस की, उससे एक तो यह लगता था कि साबित हो चुका है कि वे अपराधी हैं और दूसरे कि उन्हें बहैसियत इंसान इज्ज़त से जीने का कोई हक नहीं।

अपूर्वानंद

न्याय और न्यायाभास। न्यायाभास से बेहतर और सटीक होगा- इन्साफ़ का धोखा। यानी आपको जान पड़े कि इंसाफ मिल रहा है और वह कभी हाथ न आए। जो सिद्दीक़ कप्पन के साथ किया गया, उसे इन्साफ़ का मज़ाक ही कहेंगे। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बाद सिद्दीक कप्पन को मथुरा से दिल्ली के ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज़ में इलाज के लिए लाया गया और गुपचुप तरीके से  बिना उनके परिवार और वकील को खबर किए वापस मथुरा जेल पहुँचा भी दिया गया।

कप्पन को अस्पताल से वापस जेल भेजने में जो तत्परता बरती गई वह इससे जाहिर है कि वे 6-7 मई की रात 2.30 बजे मथुरा पहुँचा दिए गए। रातोंरात दिल्ली से मथुरा भगा ले जाना, वह भी तब जब उनकी पत्नी केरल से खासकर उन्हें देखने ही दिल्ली आई थीं, लेकिन उन्हें मिलने देना तो दूर, यह बताया भी नहीं गया कि उनके पति को वापस जेल भेजा जा रहा है। 

कप्पन के मामले में जल्दबाजी क्यों?

कप्पन की पत्नी रेहाना ने यह खबर मिलने के बाद कि कप्पन को मथुरा के एक हस्पताल में रखा गया है, वहाँ उन्हें हथकड़ी से खाट से बाँध दिया गया है और वे फारिग होने के लिए बाथरूम तक भी नहीं जा सकते और खाने पाने का कोई ठिकाना नहीं, सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। इस अर्जी के साथ कि या तो उन्हें वापस जेल भेज दिया जाए या उत्तर प्रदेश से बाहर किसी अच्छे अस्पताल में इलाज के लिए दाखिल कराया जाए।

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क्या कहा सॉलिसिटर जेनरल ने?

अदालत में भारत के सॉलिसिटर जेनरल तुषार मेहता ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया कि कप्पन को यह राहत न मिल सके। हम सब लोगों के लिए अदालत में उनके और न्यायमूर्तियों के बीच हुए संवाद को ध्यान से पढ़ने की ज़रूरत है। उसके बाद यह समझ में आएगा कि क्यों वे, भारत सरकार के प्रतिनिधि, दिल्ली हो या कर्नाटक, किसी को भी उसके हिस्से का या उसका चाहा हुआ ऑक्सीजन देने के खिलाफ़ क्यों पूरा दम लगा देते हैं।

कप्पन को बेहतर अस्पताल देने के खिलाफ़ जो तर्क मेहता साहब ने दिए लगभग वैसे ही तर्क कर्नाटक और दिल्ली को ऑक्सीजन देने के खिलाफ़ दिए। जब अदालत ने कहा कि कप्पन की हालत देखते हुए उन्हें दिल्ली लाना अच्छा होगा तो मेहता साहब ने कहा कि अगर आप उन्हें दिल्ली के किसी अस्पताल में बिस्तर देंगे तो  मुझे एक कोरोना के मरीज का बिस्तर छीनकर यह करना होगा। उसी तरह दिल्ली को उसके हिस्से का ऑक्सीजन देने के खिलाफ़ उन्होंने दलील दी कि दिल्ली की माँग पूरी करने के लिए उन्हें दूसरे राज्य का हिस्सा काटना होगा।

अदालत ने ऑक्सीजन के मामले में मेहता साहब की हुज्जत तकरीबन दो हफ्ता बर्दाश्त की और आखिर में तंग आकर कहा कि  दूसरे राज्य का हिस्सा कट जाएगा अगर दिल्ली को उसका हिस्सा देना पड़े,अपनी इस दलील के पक्ष में उन्होंने ठोस सबूत पेश नहीं किया? है। इसे हम बिहार में कठदलीली कहते हैं।

मेहता साहब यह कहना चाहते थे लेकिन शायद भारत अभी भी इतना गिरा नहीं है कि वह यह कह सकें। लेकिन उनकी जुबान पर यही बात थी कि वह ऑक्सीजन के भण्डार के मालिक हैं और उनकी जब जैसी मर्जी होगी, वैसे वे राज्यों को ऑक्सीजन का प्रसाद बाटेंगे। यानी यह राज्यों का अधिकार नहीं है, केंद्र की उनपर अनुकम्पा है!

ख़तरनाक दहशतगर्द?

दलील की यही पद्धति वे सिद्दीक़ कप्पन के मामले में अपना रहे थे। कप्पन की पत्नी की याचिका सिर्फ उनके स्वास्थ्य की रक्षा की थी। वह उन्हें न मिल सके इसके लिए अदालत को इस तरफ से बदजन करने के लिए मेहता साहब ने कप्पन को एक ख़तरनाक दहशतगर्द साबित करने में कोई कसर न छोड़ी। 

अपने मुक़दमे का इन्तजार कर रहे कैदी से ज़िंदगी का हक़ छिन नहीं जाता। यह राज्य का जिम्मा है कि वह उसे हर मुमकिन सहूलियत मुहैया करवाए जिससे वह सेहतमंद रह सके। लेकिन मेहता साहब ने जिस तरह कप्पन के खिलाफ़ बहस की, उससे एक तो यह लगता था कि साबित हो चुका है कि वे अपराधी हैं और दूसरे कि उन्हें बहैसियत इंसान इज्ज़त से जीने का कोई हक नहीं।

यही बेहिसी राज्यों को ऑक्सीजन न देने के मामले में केंद्र ने दिखलाई है जिससे आजिज आकर अदालत ने अपनी तरफ से एक समिति बना दी है जो देश भर में ऑक्सीजन आपूर्ति का तरीका तय करेगी। अभी हम उस विषय पर बात नहीं कर रहे, सिर्फ सिद्दीक कप्पन के साथ हुए बर्ताव में हम सबके लिए छिपे या प्रत्यक्ष चेतावनी को सुनने की कोशिश कर रहे हैं। 

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याद कर लेना मुनासिब होगा कि केरल के निवासी और मलयालम भाषा के पत्रकार कप्पन को उनके साथियों के साथ तब गिरफ़्तार कर लिया गया था, जब वे हाथरस में एक दलित युवती के साथ हुए बलात्कार और उसकी हत्या के बाद उसके गाँव जा रहे थे। उनका इरादा रिपोर्टिंग का था। लेकिन बीच में ही उत्तर प्रदेश पुलिस ने उन्हें और उनके साथियों को रोक कर गिरफ़्तार कर लिया। यह इल्जाम लगाते हुए कि वे वहाँ जातिगत विद्वेष और हिंसा भड़काने के इरादे से जा रहे थे।

उनका रिश्ता पॉपुलर फ्रंट ऑफ़ इंडिया से है,वे दहशतगर्द गतिविधियों में संलग्न रहे हैं, इस तरह के बेसिर पैर के आरोप उनपर लगाकर उन्हें जेल में डाल दिया गया। उनपर सबसे ख़तरनाक कानून यूएपीए की धाराएँ लगा दी गईं। 

इसकी खबर उनके परिवारवालों को देना ज़रूरी न समझा गया,उन्हें लम्बे अरसे तक अपने वकील से भी नहीं मिलने दिया और उसके लिए भी  न्यायालय को दखल देना पड़ा। 

यानी भारत के नागरिक का जो अधिकार है कि वह अपनी रक्षा किसी भी इल्जाम से कर सके, उस अधिकार से भी सीनाजोरी करके कप्पन को वंचित रखा गया। इस बीच उनके ख़िलाफ़ जनसंचार माध्यमों में दुष्प्रचार किया जाता रहा।

सरकार का रवैया

कप्पन के साथ जो हुआ वह उत्तर प्रदेश में अब उनके साथ किया जा रहा है जो ऑक्सीजन की कमी की  शिकायत कर रहे हैं। अस्पतालों और पत्रकारों पर आपराधिक मामले दर्ज किए जा रहे हैं क्योंकि उन्होंने ऑक्सीजन आपूर्ति में बदइंतजामी की शिकायत की है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में भी तो राज्य सरकारों को चेतावनी दी थी कि वे दवा या ऑक्सीजन या स्वास्थ्य सेवा में इंतजाम की शिकायत पर कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं करेंगे। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने कम से कम तीन मामलों में अदालत को धता बताते हुए यह किया है।

चाहे तो अदालत दलील दे सकती है कि हमारा जिम्मा सिर्फ कप्पन की सेहत की देखभाल करने का था। उनकी पत्नी उनसे मिलें या वकील उनके मामले में बाखबर रहें, यह मसला हमारे सामने न था। लेकिन हम जानते हैं कि मेहता साहब की नाराज़गी के बावजूद सर्वोच्च न्यायालय ने जिस इंसानियत की दुहाई देकर कप्पन के इलाज का इंतजाम किया उसी इंसानियत का तकाजा था कि कप्पन को कम से कम अपनी पत्नी और वकील से मिलने दिया जाए।

इंसानियत तकनीकी बहानों से स्थगित नहीं की जा सकती। अगर इंसानियत आधी-अधूरी है तो न्याय भी आधा-अधूरा ही होगा।

मानवीयता को रखा ताक पर

कप्पन को इस हड़बड़ी में वापस जेल पहुँचा दिए जाने के मामले में मथुरा जेल के अधिकारी का वक्तव्य भी अधिकारमद से भरे हुए असंवेदनशील व्यक्ति का बयान जान पड़ता है। उनका यह कहना कि मैं किसी के परिवार वाले के प्रति जवाबदेह नहीं हूँ, क्या मैं हर किसी के परिवार को बताता फिरूँ कि वह कैसा है, मैं सिर्फ अदालत से बात करूँगा, यही प्रदर्शित करता है कि भारत में किसी भी अधिकारवाले पद पर बैठने के लिए मानवीयता को ताक पर रख देना होता है। वे कम से कम पत्नी से हमदर्दी जता सकते थे, अपनी सीमा बता सकते थे लेकिन उनका स्वर अधिकार के दंभ से भरा हुआ था।

यही अहंकार महाराष्ट्र की ताजोला जेल के अधिकारी के स्वर में था जब उन्होंने सुधा भारद्वाज के स्वास्थ्य को लेकर चिंता पर यह कहा कि वह रिहाई के लिए बीमारी का बहाना बना रही हैं। इसी तरह वरवर राव को अस्पताल से रातोरात वापस जेल भेज देने की हड़बड़ी की जा रही थी। वह तो उनके वकीलों को खबर हो गई और वे उसी वक्त सक्रिय हो गए और न्याय का संयोग भी बैठ गया कि वैसा न हो सका।

कप्पन इतने भाग्यशाली न थे। न्याय इस भारत में सिद्दीक़ कप्पन नामधारी व्यक्ति के लिए एक संयोग है, नियम नहीं। लेकिन जब न्याय के सांयोगिक होने को लोकप्रिय मान्यता मिल जाती है तो वह नियम बन जाता है। यह ऑक्सीजन और टीके के मामले में वे भी देखेंगे जिनका नाम कप्पन जैसा नहीं है।

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