मोहनदास करमचंद गांधी किसी कॉलेज या विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर न थे।न जवाहरलाल नेहरू। न ही भीमराव अंबेडकर। बालगंगाधर तिलक भी कहीं नहीं पढ़ाते थे।गोखले भी नहीं।पेरियार साहब भी अध्यापक न थे।लेकिन विश्वविद्यालयों, स्कूलों में गांधीवादी, अम्बेडकरवादी या पेरियार के अनुयायी अनेक थे।शिक्षक भी और छात्र भी। अगर भारत से बाहर निगाह ले जाएँ तो सिमोन द बुआ की ख्याति अध्यापिका की नहीं थी।मार्क्स का जीवन पुस्तकालयों में ज़रूर बीता लेकिन अध्यापक वे न बन पाए।लेनिन कहीं पढ़ाते नहीं थे। हो ची मिन्ह भी नहीं और न मार्टिन लूथर किंग या नेल्सन मांडेला। चारु मजूमदार भी बंगाल के किसी कॉलेज में न थे।
क्या विश्वविद्यालय विचारधाराएँ गढ़ते हैं या विचारधाराएँ उनको गढ़ती हैं?
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- 13 Oct, 2025

जेएनयू में छात्र आंदोलन का फाइल फोटो
गांधी, आंबेडकर, मार्क्स या मंडेला कोई अध्यापक नहीं थे, फिर भी उन्होंने करोड़ों को प्रेरित किया। क्या विचार विश्वविद्यालयों में जन्म लेते हैं या बाहर से आते हैं? जाने-माने चिंतक और स्तंभकार अपूर्वानंद का विचारोत्तेजक लेख ज़रूर पढ़िएः