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नागरिकता क़ानून: केंद्र से टकराव के रास्ते चुनावी तैयारियों में जुटीं ममता

पश्चिम बंगाल सरकार एक बार फिर केंद्र के साथ टकराव के रास्ते पर है। लोगों को वे दिन याद आ रहे हैं जब ज्योति बसु की अगुआई में वाम मोर्चा सरकार ने केंद्र की इंदिरा गाँधी और बाद में राजीव गाँधी सरकारों का ज़बरदस्त विरोध किया था। यह विरोध प्रशासनिक स्तर पर था, जिसमें राज्य सरकार केंद्र पर राजनीतिक कारणों से भेदभाव के आरोप लगाती थी। 

राज्य की राजनीति में एक बार फिर वह दौर आ रहा है। नागरिकता संशोधन क़ानून, 2019, ने पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार को वह मौका दे दिया। बनर्जी इसका भरपूर फ़ायदा उठाएँगी और इस बहाने केंद्र सरकार ही नहीं, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के ख़िलाफ़ एक ज़बरदस्त विरोध और जनाक्रोश का माहौल तैयार करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगी। 
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ममता की रणनीति

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने खुले आम एलान कर दिया है कि वह किसी कीमत पर पश्चिम बंगाल में इस क़ानून को लागू नहीं करेंगी। इसका प्रशासनिक पहलू जो हो, पर राजनीतिक मोर्चेबंदी में राज्य की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस पार्टी ने बाज़ी मार ली है।
ममता बनर्जी की कार्यशैली पर नज़र रखने वालों के लिए यह समझना कठिन नहीं है कि केंद्र सरकार ने तृणमूल को बैठे बिठाए एक मौका दे दिया है और वह इसका भरपूर फ़ायदा उठाएगी।
जनता के बीच आन्दोलन कर और पुलिस की लाठी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कैडर के हमलों के बीच ही उन्होंने अपनी राजनीतिक पारी खेली और अपना कद इतना बड़ा कर लिया है। इस तरह के आन्दोलन, सत्याग्रह और बात-बात में बावेला खड़ा कर ही ममता बनर्जी ने सीपीआईएम जैसी कैडर आधारित और राजनीतिक विचारधारा के प्रति समर्पित पार्टी को उखाड़ फेंका। 

सड़क पर मुख्यमंत्री

मोदी सरकार ने एक भावनात्मक मुद्दा उछाल दिया है और ममता बनर्जी ने इसे लपक लिया है। उन्होंने  नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ कार्यक्रमों की एक कड़ी तैयार कर ली है और उसके एक हिस्से का एलान भी कर दिया है। इसके तहत सोमवार को रेड रोड स्थित बी. आर. आम्बेडकर की मूर्ति से उत्तर कोलकाता स्थित जोड़ासांकू ठाकुरबाड़ी तक बड़ी पदयात्रा निकाली जाएगी। इसके बाद बुधवार को दक्षिण कोलकाता के जादवपुर बस स्टैंड से एक पदयात्रा भवानीपुर स्थिति जदुबाबू बाज़ार तक जाएगी। 
पश्चिम बंगाल की राजनीति पर नज़र रखने वाले अच्छी तरह समझ रहे हैं कि तृणमूल कांग्रेस ने आंबेडकर की मूर्ति और जोड़ासांकू ठाकुरबाड़ी को क्यों चुना है। जोड़ासांकू स्थित ठाकुरबाड़ी रवींद्रनाथ ठाकुर का पैतृक घर है, जहाँ रवींद्र भारती विश्वविद्यालय चलता है। यह विश्वविद्यालय कला-संस्कृति को समर्पित है और इसका अपना सामाजिक महत्व है।
ममता बनर्जी रवींद्रनाथ के बहाने ‘बांगाली ऐतिज्यो’ (बंगाली पहचान) का मुद्दा उछालना चाहती हैं और इसे बीजेपी के उग्र हिन्दुत्व के सामने खड़ा करना चाहती हैं।

बंगाली पहचान की लड़ाई

इसके पहले लोकसभा चुनाव के दौरान कोलकाता के विद्यासागर कॉलेज में विद्यासागर की प्रतिमा को तोड़ने को उन्होंने बहुत बड़ा मुद्दा बना दिया था। उसके बाद भी उन्होंने एक के बाद एक कई पदयात्राएं निकाली थीं और सबका नेतृत्व ख़ुद किया था। इसमें हज़ारों लोगों ने शिरकत की, जिनमें वे लोग भी थे, जो तृणमूल से जुड़े हुए नहीं थे और जिन्हें राजनीति से ख़ास लगाव नहीं था। 

ममता बीजेपी के ‘जय श्रीराम’ के सामने ‘सोनार बांग्ला’ या ‘जय बांग्ला’ के नारे को इस तरह खड़ा करने की कोशिश में हैं कि बंगाली राष्ट्रीयता से उग्र हिन्दुत्व की राष्ट्रीयता को काटा जा सके।

बंगाली राष्ट्रवाद

पश्चिम बंगाल पड़ोसी बिहार या दूसरे राज्यों से इस मामले में अलग है कि वहाँ बंगाली उपराष्ट्रवाद की धारा हमेशा रही है, जो अंदर ही अंदर पलती रही है और एक अंडर करंट की तरह चलती रही है। इसे उभारने की ज़रूरत होती है। ममता बनर्जी इसे अच्छी तरह समझती हैं और उन्होंने इसे उभार कर उग्र राष्ट्रीयता को रोकने की रणनीति बना ली है। 
नागरिकता संशोधन अधिनियम पर पश्चिम बंगाल के लोगों की शुरुआती प्रतिक्रिया हिंसक रही है। उत्तर बंगाल के मुर्शिदाबाद के अलावा कोलकाता के नज़दीक उलबेड़िया में लोगों ने तोड़फोड़ की, थाने पर  पथराव किया, रास्तों पर जाम लगाया और टायर जला कर विरोध प्रदर्शन किया। लेकिन इस तरह विरोध प्रदर्शन से तृणमूल कांग्रेस को ख़ास फ़ायदा नही होगा। तृणमूल को फ़ायदा इसमें है कि वह लोगों के इस गुस्से को सांस्कृतिक लड़ाई में तब्दील कर दे और ‘बांगाली ऐतिज्यो’ का भावनात्मक मुद्दा उछाल दे। इसे रोकना बंगाल बीजेपी के लिए बेहद मुश्किल होगा। 

चुनाव की तैयारियाँ?

ममता बनर्जी यह सारा सबकुछ राजनीतिक फ़ायदे के लिए कर रही हैं और लगभग डेढ़ साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारी कर रही हैं, यह साफ़ है। पर इसे रोकना बीजेपी के लिए मुश्किल होगा। पश्चिम बंगाल बीजेपी की दिक्क़त यह है कि गुजराती नरेंद्र मोदी-अमित शाह या मध्य प्रदेश के कैलाश विजयवर्गीय (बंगाल बीजेपी के प्रभारी) इस बंगाली मानसिकता को नहीं समझ सकते।
उन्हें बस मुसलिम तुष्टीकरण की नीति ही समझ में आती है, जिसे पश्चिम बंगाल बीजेपी ने बखूबी उछाला है और उसे इससे फ़ायदा भी हुआ है। ममता बनर्जी पर मुसलिम तुष्टीकरण के आरोप बेबुनियाद नहीं हैं, उन्होंने कट्टरपंथी मुसलिमों के एक धड़े का इस्तेमाल कर सीपीआईएम से मुसलिमों का जनाधार छीना है।
ख़ुद सीपीआईएम ने तुष्टीकरण की नीति अपनाई थी, जो बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन के मामले में खुल कर सामने आ गई थी। 

पश्चिम बंगाल बीजेपी ने एनआरसी के मुद्दे पर रक्षात्मक रवैया अपनाया था। वह पश्चिम बंगाल से बाहरी लोगों को खदेड़ने की बात नहीं  कर सकती थी, क्योंकि ये बाहरी बांग्ला भाषी ही थे। इनमें बहुत बड़ी तादाद बांग्लादेश से आए हिन्दुओं की है। नागरिकता संशोधन क़ानून में हिन्दू शरणार्थियों को नागरिकता देने की बात की गई है, जो बीजेपी की रणनीति के मुफ़ीद है। इसका विरोध करना तृणमूल के लिए मुश्किल होगा। 

शरणार्थियों को लुभाने की कोशिश

इसलिए ममता बनर्जी ने इस क़ानून के पहले ही कुछ बेहद अहम फ़ैसले किए। राज्य सरकार ने बीते महीने ही एलान किया था कि शरणार्थियों की सभी कॉलोनियों को नियमित कर दिया जाएगा, जिनके नाम पट्टे अब तक नहीं है, उन्हें दे दिया जाएगा। इस पर तेज़ी से काम चल रहा है।

राज्य सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में ही एक स्कीम का एलान किया था, जिसमें यह प्रावधान था कि तमाम कच्ची बस्तियों और झुग्गी झोपड़ियों के कच्चे मकानों को तोड़ कर पक्के मकान बनवा लिए जाएं। यह काम उस मकान और ज़मीन का मालिक ख़ुद करे और राज्य सरकार उसके लिए पैसे देगी। लाखों लोगों ने इसका फ़ायदा उठाया। इसके ज़रिए शरणार्थी कॉलोनियों के बड़े हिस्से पक्के मकान में तब्दील हो चुके हैं। अब शरणार्थी कॉलोनियों को नियमित किया जा रहा है। इनमें हिन्दू-मुसलमान दोनों हैं, पर बड़ा हिस्सा हिन्दुओं का है। 

'बाहरी' कोई मुद्दा नहीं

बांग्लादेश युद्ध के ठीक पहले और उस दौरान यानी 1971 में तकरीबन एक करोड़ लोगों ने पश्चिम बंगाल के अलग-अलग हिस्सों में शरण ली थी। उनमें कुछ ही लौटे। बाकी लोग स्थायी हो चुके हैं, पूरी तरह रच-बस चुके हैं, वे नागरिक हो चुके हैं। यह काम 1977 में सत्ता में आई सीपीआईएम ने किया, नतीजतन उन इलाक़ों में इसका ज़बरदस्त जनाधार बन गया, वे इलाक़े उसके गढ़ बन गए।
इन लोगों को निकालने का कोई सवाल ही नहीं है। लिहाज़ा, वहाँ न तो एनआरसी का कोई डर था न ही अब नागरिकता अधिनियम का कोई जश्न है। बीजेपी की यही दिक्क़त है। वह एनआरसी के मुद्दे पर रक्षात्मक थी और अब नागरिकता संशोधन अधिनियम के मुद्दे पर आक्रामक नहीं हो पाएगी।

आर्थिक कारण

इस क़ानून में 2014 तक बाहर से आए हिन्दुओं की नागरिकता का जो प्रावधान है, उसका मामूली असर ही पड़ सकता है। बांग्लादेश से अब लोगों का आना लगभग रुक चुका है। वहाँ मोटे तौर पर अब उत्पीड़न नहीं होता है। इसके अलावा बीते 10 साल में बांग्लादेश तेज़ी से आर्थिक प्रगति कर रहा है, वहाँ रोज़गार के मौके बन रहे हैं।
पश्चिम बंगाल के कल-कारखाने बंद हो रहे हैं। जूट उद्योग लगभग बंद हो चुका है, फाउंड्री, लोहा, इंजीनियरिंग, कोयला सारे सेक्टर बदहाल हैं। यहाँ अब नौकरियाँ नहीं मिल रही हैं। स्थानीय लोग ही दिल्ली से लेकर कश्मीर तक नौकरी करने जा रहे हैं, बांग्लादेश से कोई नौकरी करने यहाँ भला क्यों आए!
इस वजह से बांग्लादेश से छिटपुट लोग ही आ रहे हैं, जो कोलकाता के आसपास या उत्तर बंगाल के मालदा-मुर्शिदाबाद के इलाक़ों में बस रहे हैं। इन सीमाई इलाक़ों में बीजेपी ने मुसलिम तुष्टीकरण का मुद्दा उठा कर और इस बहाने ध्रुवीकरण कर अपना आधार बनाया है। राज्य बीजेपी बस उसी इलाक़े में कुछ कर सकती है, वह कितना कामयाब होगी, लोगों का ध्यान इस पर है। 

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प्रमोद मल्लिक
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