इतिहास में मशहूर फिलाडेल्फिया कन्वेंशन, जिसमें दुनिया के पहले लिखित अमेरिकी संविधान की रचना हुई थी, के अंतिम दिन-- 17 सितम्बर, 1787—की बैठक के बाद एक महिला एलिज़ाबेथ पॉवेल ने संविधान निर्माताओं में से प्रमुख बेंजामिन फ्रेंक्लिन से पूछा, “तो डॉक्टर, हमें क्या मिला. गणतंत्र या राजतंत्र?”. फ्रेंकलिन कुछ क्षण रुके और फिर बोले “गणतंत्र, अगर आप इसे रख सकीं”. इसी संविधान के पहले संशोधन में अभिव्यक्ति की आजादी को गणतंत्र के लिए कभी न ख़त्म होने वाला अनिवार्य शर्त करार दिया गया.

अब 238 साल के बाद अमेरिकी जनता ने “अमेरिका फर्स्ट” और “अमेरिका को फिर से महान बनाना” के नारों पर एक ऐसा नेता चुना जिसे सरकार के खिलाफ आवाज उठाने पर ऐतराज है, जिसे फिलस्तीन-समर्थक नारों से इतना गुस्सा आता है कि छात्रों को देश-निकाला देता है और जब कोर्ट्स इसे गलत बताती हैं तो जजों को महाभियोग लगा कर हटाने की धमकी देता है. 

दुनिया के सबसे शक्तिशाली, आर्थिक रूप से वैश्विक जीडीपी का एक तिहाई देने वाले और 236 साल के लिखित और समुन्नत संविधान और फर्स्ट अमेंडमेंट का गौरव हासिल करने वाले देश अमेरिका में जनता के वोटों से चुना गया का राष्ट्रपति क्या निकृष्ट झूठ सार्वजानिक रूप बोल सकता है? राष्ट्रपति ट्रम्प ने कहा कि चीन के राष्ट्रपति जिन पिंग के उनसे फ़ोन पर बात की और टैरिफ का मसला सुलझ गया. चीन का तत्काल जवाब आया “झूठ फैलाना बंद करें ट्रम्प”. जब 29 ट्रिलियन डॉलर वाले सामरिक रूप से सबसे शक्तिशाली देश का राष्ट्रपति ऐसे घटिया चरित्र का हो तो दुनिया का खतरा बढ़ जाता है. 

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लेकिन क्या समस्या केवल ट्रम्प में है या उनमें जिन्होंने “मागा” (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) और एक उद्योगपति को, जो नॉन-स्टेट (गैर-राजकीय) एक्टर है और जिसकी जनता या संसद के प्रति कोई जवाबदेही नहीं, सिस्टम में ला कर अमेरिकी लोगों को सरकारी विभागों से निकाल रहा है डिपार्टमेंट ऑफ़ गवर्नमेंट एफिशिएंसी (डोगे) के नाम पर?  

ट्रम्प का घटता इकबाल

क्या अमेरिकी जनता की सोच जड़वत होती जा रही है? शायद नहीं. पिउ रिसर्च की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार ट्रम्प की रेटिंग तेजी से गिरती जा रही है. पद पर आने के बाद 47 प्रतिशत के मुकाबले आज 40 प्रतिशत जबकि उनके पूर्ववर्ती राष्ट्रपति बाइडेन की वर्ष 2021 में शपथ के बाद 58 प्रतिशत थी. लेकिन सिर्फ रेटिंग घटना काफी नहीं है क्योंकि धीमे रेस्पोंस पर ट्रम्प अगले कुछ महीनों में देश का जो अहित करने जा रहे हैं वह दशकों तक असर करेगा. 

ट्रम्प ने एजुकेशन पर कुठाराघात करते हुए तमाम कॉलेजों पर दबाव बनाया. लेकिन एक शर्मनाक बयान में अपने को सही ठहराते हुए कहा कि “ हार्वर्ड यूनिवर्सिटी” “यहूदी-विरोधी” और “धुर वाम” विचारधारा वाली संस्था है. किसी अमेरिका जैसे आधुनिक समाज के संवैधानिक शासन (जहां अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य सुनिश्चित करने वाले फर्स्ट अमेंडमेंट को बाइबिल की पवित्रता से देखा जाता हो) का मुखिया अगर दुनिया के सबसे नामी संस्था का फण्ड इस आधार पर रोके कि वह किसी खास विचारधारा का है, तो वह अमेरिकी जनता की कुंठित मानसिकता को दर्शाता है. चिंता यह है कि अभी तक यह जनता सड़कों पर पूरी तरह से क्यों नहीं आयी. 

संवैधानिक नैतिकता

संवैधानिक-प्रजातान्त्रिक गवर्नेंस मॉडल में शासक के लिए कुछ बातें अलिखित रूप से प्रतिबंधित होती हैं. उनमें एक है – शिक्षा संस्थाओं की वैचारिक उन्मुक्तता, दूसरी है, दबाव या धमकी दे कर किसी संप्रभु देश की जमीन न हड़पना और तीसरी है पूर्व में किसी मुल्क को किये गए मदद के लिए ब्लैकमेल न करना. ट्रम्प ने तीनों का खुलेआम उल्लंघन किया.  

ट्रम्प न्यायापालिका को धमका रहे हैं, सिक्यूरिटी एस्टाब्लिश्मेंट में छटनी हो रही है, शिक्षा विभाग खत्म हो गया है, स्वास्थ्य नीतियों पर लाल पेन चलाया जा रहा है, चार दिन चीन के खिलाफ टैरिफ भौंडे गली-कूचे की लड़ाई की तरह लगाई जाती है फिर उनका मंत्री कहता है “यह टैरिफ रेट ज्यादा दिन नहीं चलाया जा सकता”. ट्रम्प फिर से चीन से हाथ मिलाने लगे हैं जबकि चीन के तेवर कहीं से ढीले नहीं दिखते.

रूस-उक्रेन युद्ध पर समझौते का दावा करते हैं और कभी जेलेंस्की को धमकाते हैं तो कभी पुतिन को तेवर दिखते हैं. जबकि दोनों का मानना है कि अमेरिका किसी पर पर भी प्रभावी दबाव नहीं डाल रहा है. इसी बीच उक्रेन को सामरिक मदद के एवज में बहुमूल्य खनिज देने के लिए सार्वजानिक रूप से ब्लैकमेल करते हैं. अंतरराष्ट्रीय स्टेज पर इतना भौंडा ब्लैकमेल शायद हीं कभी देखा गया है. कनाडा को अमेरिका में शामिल होने के लिए और डेनमार्क को ग्रीनलैंड देने के लिए धमकाना एक बेहूदा राजनीतिक उपक्रम है जो कोई बेशर्म व्यक्ति ही कर सकता है.  

ट्रम्प समर्थक जनता को समझना चाहिए कि यह अमेरिका का अपना फैसला था कि मैन्युफैक्चरिंग से तीन दशकों से अपने को बाहर किया और अपने सामर्थ्य को सर्विसेज या सॉफ्टवेयर में लगाया यह मानते हुए कि सस्ते श्रम और खनिज वाले देशों से सामान का आयात बेहतर रणनीति होगी. और इसका फायदा भी मिला. लेकिन जब देश में अति-समृद्धि ने टैलेंट पैदा करने बंद कर दिया और इसके लिए अमेरिकी यूनिवर्सिटीज बाहर के टैलेंट को अच्छी सुविधा दे कर बुलाने लगीं तो अमेरिकियों को अपने सुविधाभोगी युवाओं के रोजगार की चिंता हुई. यह भूल कर कि “अमेरिका फर्स्ट” टैरिफ बढाने से नहीं, टैलेंट पैदा करने से होगा,