मैं ‘सम्पूर्ण क्रांति दिवस’ 5 जून 1974 के उस ऐतिहासिक दृश्य का स्मरण कर रहा हूँ जो पटना के प्रसिद्ध गाँधी मैदान में उपस्थित हुआ था और मैं जयप्रकाशजी के साथ मंच के निकट से ही उस क्रांति की शुरुआत देख रहा था।
कोरोना के कारण सबसे ज़्यादा मौतें अमेरिकी अस्पतालों में हुई हैं पर देश के एक शहर में पुलिस के हाथों हुई एक अश्वेत नागरिक की मौत ने सभी पश्चिमी राष्ट्रों की सत्ताओं के होश उड़ा रखे हैं।
देश जब दिक्कतों का सामना कर रहा हो, जनता या तो घरों में बंद हो या सड़कों पर पैदल चल रही हो, आपदा प्रबंधन के तहत सारी शक्तियाँ कुछ व्यक्ति-समूहों में केंद्रित हो गई हों, उस स्थिति में अदालतों, विपक्ष और मीडिया को क्या काम करने चाहिए?
बिहार की पंद्रह-वर्षीय बहादुर बालिका ज्योति कुमारी पासवान के अप्रतिम साहस और उसकी व्यक्तिगत उपलब्धि को अब सत्ता प्रतिष्ठानों से जुड़े हुए लोग लॉकडाउन की देन बताकर उसे सम्मानित और पुरस्कृत करना चाह रहे हैं।
कोरोना के इलाज के लिए वैक्सीन की खोज का काम इस समय अरबों-खरबों डॉलर का धंधा बन गया है। दुनियाभर की दवा कम्पनियाँ और विश्वविद्यालय इस काम में रात-दिन जुटे हुए हैं।
कोरोना संकट के दौर में मीडिया की भूमिका कैसी है? मीडिया क्या वाजिब सवाल उठा रहा है? दुनिया के एक सौ अस्सी देशों में प्रेस की आज़ादी को लेकर हाल ही में जारी रैंकिंग में भारत 142वें क्रम पर पहुँच गया है।
देश की वित्त मंत्री आरोप लगा रही हैं कि राहुल गाँधी ड्रामेबाज़ी कर रहे हैं। वित्त मंत्री ने ‘दुख’ के साथ कहा कि राहुल ने मज़दूरों के साथ बैठकर, उनसे बात करके उनका समय बर्बाद किया।
क्या हम नब्बे दिन बाद ही पड़ने वाले इस बार के पंद्रह अगस्त पर लाल क़िले की प्राचीर से प्रधानमंत्री के तिरंगा फहराने और सामने बैठकर उन्हें सुनने वाली जनता के परिदृश्य की कल्पना कर सकते हैं?
लाखों की संख्या में जो मज़दूर इस समय गर्मी की चिलचिलाती धूप में भूख-प्यास झेलते हुए अपने घरों को लौटने के लिए हज़ारों किलोमीटर पैदल चल रहे हैं उन्हें शायद बहुत पहले ही आभास हो गया था कि देश को ही आत्म-निर्भर होने के लिए कह दिया जाएगा।
आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि लॉकडाउन खोलने को लेकर नागरिकों के मन में जैसी चिंताएँ हैं वैसी उन लोगों के मनों में बिलकुल नहीं हैं जो दुनिया भर में सरकारों में बैठे हुए हैं।
एक ख़बर सरकार के एक आधिकारिक प्रवक्ता द्वारा दी गई यह जानकारी है कि देश को अब कोरोना के वायरस के साथ ही जीना सीखना होगा। इस ख़बर को बहस में आने ही क्यों नहीं दिया गया?
हम जो कुछ भी इस समय अपने ईर्द-गिर्द घटता हुआ देख रहे हैं उसमें नया बहुत कम है, शासकों के अलावा। केवल सरकारें ही बदलती जा रही हैं, बाक़ी सब कुछ लगभग वैसा ही है जो पहले किसी समय था।
राज्यों की सीमाओं पर अभी ‘कच्ची’ दीवारें उठ रही हैं, प्रदेशों को जोड़ने वाली सड़कों पर अभी ‘अस्थायी’ गड्ढे खोदे जा रहे हैं। सब कुछ कोरोना से बचाव के नाम पर हो रहा है। कोई न तो सवाल कर रहा है और न कोई जवाब दे रहा है।
राजीव बजाज ने हाल ही में सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि लॉकडाउन बेमतलब का है। न सिर्फ़ किसी भी स्वास्थ्य समस्या का इससे समाधान नहीं निकलेगा, इससे आर्थिक संकट का भी निराकरण नहीं होगा।
ये कुछ ऐसी कहानियाँ हैं जिनका कि रिकॉर्ड और याददाश्त दोनों ही में बने रहना ज़रूरी है। कोरोना को एक-न-एक दिन ख़त्म होना ही है, ज़िंदा तो अंततः इसी तरह की लाखों-करोड़ों कहानियाँ ही रहने वाली हैं।
आपात स्थितियाँ नागरिकों की तरह ही प्रजातंत्र और उससे सम्बद्ध संस्थानों की इम्युनिटी को भी किस हद तक प्रभावित या कमज़ोर कर देती हैं उसका पता वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में नहीं लगाया जा सकता।
इस कठिन समय में सरकार के समक्ष भी विकल्प चुनने का संकट है कि लोगों की ‘ज़िंदगी’ और ‘रोज़ी-रोटी’ में से पहले किसे बचाए? मौजूदा संकट को भी एक युद्ध ही बताया गया है।
इंदौर के टाटपट्टी-बाखल इलाक़े की ही तरह मुरादाबाद में भी स्वास्थ्य और पुलिसकर्मियों पर हमला हुआ। इसके बाद कई सवाल खड़े हो रहे हैं, जिनके जवाब मिलने बेहद ज़रूरी हैं।