ग़ैर-भाजपाई विचारधारा वाले दलों से चुनिंदा नेताओं को बीजेपी में शामिल कर विपक्षी सरकारों को गिराने या चुनाव जीतने की कोशिशों पर जताई जाने वाली नाराज़गी और नज़रिए में थोड़ा सा बदलाव कर लिया जाए तो जो चल रहा है उसे बेहतर तरीक़े से समझा जा सकता है। भारतीय जनता पार्टी में सरकार के स्थायित्व को लेकर इन दिनों जैसी राजनीतिक हलचल दिखाई पड़ रही है वैसी पहले कभी नहीं दिखाई दी। अटल जी भी अगर दल-बदल करवाकर पार्टी के सत्ता में बने रहने के मोदी-फ़ार्मूले पर काम कर लेते तो 2004 में उनकी सरकार न सिर्फ़ फिर से क़ायम हो जाती, दस साल और बनी रहती।
आयातित चेहरे बीजेपी को बदल रहे हैं या खुद को!
- विचार
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- 16 Jun, 2021

यह काम काफ़ी रिस्क लेने जैसा है कि ज्योतिरादिय सिंधिया, शुभेंदु अधिकारी, हिमंत बिस्व सरमा, जितिन प्रसाद, स्वामी प्रसाद मौर्य, रीता बहुगुणा आदि बाहरी व्यक्तियों को पार्टी के तपे-तपाए और वर्षों से दरियाँ बिछा रहे पार्टी नेताओं को हाशियो पर धकेलते हुए महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियाँ सौंपने का सोचा जाए।
नैतिक दृष्टि से इसे उचित नहीं माना जा रहा है कि बीजेपी में दूसरे दलों से उन तमाम प्रतिभाओं की भर्ती की जा रही है जो पार्टी की कट्टर हिंदुत्ववादी छवि, उसकी साम्प्रदायिक विभाजन की राजनीति और रणनीति के सार्वजनिक तौर पर निर्मम आलोचक रहे हैं। पिछले कुछ सालों में (2014 के बाद से) मनुवाद-विरोधी बसपा, सम्प्रदायवाद-विरोधी कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस सहित तमाम दलों के बहुतेरे लोगों के लिए बीजेपी के दरवाजे खोल दिए गए और उनके गले में केसरिया दुपट्टे लटका दिए गए।