अगस्त 1979 में उस वर्ष की स्नातकोत्तर हिंदी अध्यापकों की योग्यता सूची में प्रथम स्थान पर होने के पुरस्कार स्वरूप केंद्रीय विद्यालय, ( अब न. 1 ) पोर्ट ब्लेयर (अंडमान निकोबार द्वीपसमूह ) में पदस्थापन हुआ | सबसे छोटा बेटा बहुत खुश तो पिताजी परेशान और गली मोहल्ले के लोगों ने समझा मैं बाड़मेर जा रहा हूँ जो राजस्थान का काला पानी कहा जाता है | सब इलाकों के अपने-अपने काले पानी होते हैं|
जितना सत्ता और सुविधाओं से दूरी उतना काला पानी |आज जहाँ शहरों में शव को कन्धा देने के लिए चार जन बड़ी मुश्किल से, तो कभी किराये पर जुटाने पड़ते हों वहाँ पोर्ट ब्लेयर की जेट्टी पर जैसे ही एम.वी. हर्षवर्द्धन लगा तो अगवानी के लिए प्राचार्य और विद्यालय के चार-पाँच वरिष्ठ सदस्य एक छोटे ट्रक और एक जीप के साथ उपस्थित |
संबंधों का अभाव जीवन को राजधानी में भी काला पानी बना देता है तो आदमी अपनी उत्फुल्ल संवेदनाओं से काले पानी में भी एक नया परिवार बसा लेता है |उसी वर्ष पोर्टब्लेयर के सरकारी कॉलेज में शाम को हिंदी की स्नातकोत्तर कक्षाएँ प्रारंभ हुई |
कैम्प बेल बे निकोबार द्वीपसमूह का मुख्यालय, जहां पहुँचने के लिए दस डिग्री चैनल पार करना ज़रूरी है,जो बंगाल की खाड़ी का सर्वाधिक अशांत समुद्री क्षेत्र है, जहाँ पहुंचे बिना किसी को इन द्वीपों की यात्रा का पुण्य-लाभ नहीं होता; काले पानी के 'काला पानीत्त्व' की अनुभूति नहीं होती,जहां से कोई ४५-५० किलोमीटर दूर स्थित है भारत का सुदूरतम दक्षिणी छोर 'इंदिरा पॉइंट' जिसे पहले यशस्वी ब्रिटिश नेविगेटर पारसन के नाम पर 'पारसंस पिग्मिलियन पॉइंट' कहा जाता था |
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लेखक कहता है- अवश्य ही महर्षि अगस्त्य इंडोनेशिया जिस मार्ग से होकर गए थे वह यहीं से होकर गुजरता है |क्या इसका नाम 'अगस्त्य बिंदु' नहीं हो सकता था ? श्रीकांत उपाध्याय |हर शब्द के उच्चारण को उसको पूरा समय देते, शब्द-शब्द को अपने उतार-चढ़ाव और बलाघात से मूर्तिमंत करते हुए बोलने वाले |कम किन्तु सांगोपांग लिखने वाले |हम व्यंग्य लेखकों की तरह नहीं जो सामने वाले का वाक्य पूरा होने से पहले ही तलवार निकाल लेते हैं |
मुझे लगता था कि यह उपाध्याय की ओढ़ी अति नाटकीयता है |आज लगता है, चाहे ओढ़ी हुई ही थी लेकिन वह नाटकीयता पाठकों और श्रोताओं के लिए कुछ बेहतर दे जा रही है |उनकी द्वीपों के विरल चित्रों की संस्मरणात्मक कृति 'दस डिग्री चेनल' पढ़ते हुए यह सायास अर्जित शैली अनायास लगने लग जाती है |यही शैली लेखक को हजारी प्रसाद द्विवेदी, कुबेरनाथ राय, विद्यानिवास मिश्र के समकक्ष बैठा देती है |यह उक्ति पाठकों को अतिशयोक्ति पूर्ण लग सकती है क्योंकि उनका परिचय उन्हीं लेखकों से हो पाता है जिन्हें राजधानियों में रहकर मीडिया व संचार साधनों की कृपा प्राप्त हो जाती है अन्यथा जाने कितने अरण्य-कुसुम खिलते हैं, जाने कितने मयूर गहन कान्तारों में नर्तन करते रहते हैं |

वैसे लेखक को लिखकर अवश्य संतुष्टि मिल गई होगी लेकिन एक पाठक और साहित्यकार होने के नाते पाठकों का इस कृति से परिचय करवाना मुझे अपनी जिम्मेदारी अनुभव होती है |आज से पचास-चालीस वर्ष पहले मुख्यभूमि में बैठकर इन द्वीपों के बारे में सोचना और यहाँ आना एक बहुत बड़ा साहसिक काम माना जाता था |

लम्बी समुद्री यात्रा, आवागमन और संचार के अत्यंत सीमित साधन, कुछ भौतिक सुविधाओं का अभाव यहाँ अवश्य रहा, घर से दूरी का अहसास भी एक भिन्न प्रकार की उदासी से भरने वाली बात थी |आज की बात और हो गई है लेकिन उस समय इसी दूरी ने यहाँ एक प्रकार की अद्भुत एकता भी स्थापित कर दी जिसे आज जाति-धर्म, राजनीति में बंटा भारतीय समाज नहीं समझ सकता |
प्रायः मुख्यभूमि से यहाँ प्रतिनियुक्ति पर एक दो वर्ष के लिए आने वाले अधिकारियों ने सरलता से उपलब्ध सूचनाओं और  कुछ फोटो  के आधार पर यहीं पोर्ट ब्लेयर में अपने कार्यालय में बैठकर पुस्तकें लिख दीं और मुख्यभूमि में लेखक के रूप में दर्ज हो गए |कुछ एल.टी.सी, पर हवाई जहाज से एक दो दिन के लिए भ्रमण के लिए यहाँ आने वाले लेखक भी रहे हैं | उनमें से एक प्रसिद्ध कहानी लेखक और अब स्वर्गीय ने तो यहाँ की किसी ऐसी प्रजाति की युवती से अपने प्रेम की कथा लिख मारी जिससे अभी तक किसी भी शहरी समाज के व्यक्ति का संपर्क नहीं हुआ है |   द्वीप तुम्हारा नाम स्वयं ही...|
हाँ, द्वीपों के बारे में मेहनत करके, प्रमाणिक जानकारियाँ जुटाकर भी कुछ पुस्तकें लिखी गई | उनका सूचनात्मक महत्त्व भी है |लेकिन मैं एक वाक्य में साधिकार यह कह सकता हूँ कि 'दस डिग्री चैनल' द्वीपों पर लिखी गई अब तक की सर्वश्रेष्ठ और प्रामाणिक 'साहित्यिक कृति' है जो अपने बिम्ब विधान, चित्रात्मक और ध्वन्यात्मक शैली से बड़े-बड़े लेखकों और साहित्य रसिकों को चमत्कृत कर सकती है |
सबसे पहले मैं यह बताने के लिए विवश हूँ कि प्रकाशक ने इसका मूल्य इतना अधिक रखा है कि वह लेखक और पाठक के बीच की दूरी बढ़ा देता है |एक तो वैसे ही हिंदी में खरीदकर पुस्तक पढ़ने का चलन नहीं तिस पर इतना मूल्य !प्रकाशकों का यही लालच हिंदी के विकास में बाधक है जबकि कई प्रांतीय भारतीय भाषाओं में प्रकाशक हिंदी के प्रकाशकों की अपेक्षा मूल्य कम रखते हैं जिसके कारण उनके पाठकों की संख्या अधिक है और साहित्य भी सशक्त |इस पुस्तक को पेपर बैक में आना चाहिए और वह भी 125/-रु से अधिक मूल्य पर नहीं |
इन द्वीपों में नेग्रितो नस्ल के चार आदिवासी - ग्रेट अंदमानी,ओंगी, सेंटिनल और जारवा तथा मंगोल नस्ल के दो आदिवासी- निकोबारी और शोम्पेन की तरह मुख्यभूमि से आने वाले भारतीयों के भी कई स्तर और कारण रहे हैं | सबसे पहले दंडस्वरूप लाए गए वे लोग जिन्होंने ब्रिटिश शासन का सशस्त्र विरोध लिया व अन्य खूँख्वार अपराधी जिनमें से कुछ सजा पूरी होने पर मुख्यभूमि लौट गए और कुछ यहीं रह गए | ये लोकल कहलाए | यहाँ की व्यवस्था के लिए प्रतिनियुक्ति पर आने वाले सरकारी कर्मचारी अवधि पूरी होने पर वापिस चले जाते |अध्यापकों की कमी  होने के कारण उनकी पत्नियों को यहाँ प्रायः अध्यापिका की नौकरी सरलता से मिल जाती |
कुछ वर्षों बाद वे स्थायी हो जातीं और फिर वे भी मुख्य भूमि तबादला करवा लेतीं |स्थानीय प्रशासन के मुख्यभूमि से आए बहुत से कर्मचारी भी रिटायर होने के बाद यहीं बस गए |फिर १९६२ के युद्ध के बाद इस क्षेत्र की निगरानी के लिए ग्रेट निकोबार में भूतपूर्व सैनिक परिवार भी यहाँ बसाए गए जिन्हें सेटलर कहा जाता है |आबादी के इस वर्ग विभाजन के अतिरिक्त आज इन द्वीपों विशेषकर पोर्ट ब्लेयर का चरित्र बहुत बदल गया है |
पहले 15 दिन में एक जहाज मुख्य भूमि से आता था और सप्ताह में दो दिन हवाई जहाज कई दिनों के अखबार और चिट्ठियां एक साथ लेकर आता था |मुख्य भूमि से आने वाले यात्रियों की संख्या और आलू-प्याज की सूचना भी आल इण्डिया रेडियो का समाचार हुआ करता था |अब उसे भारत के किसी भी महंगे पर्यटन स्थल से भिन्न नहीं आंका जा सकता |
आज मोबाइल से कहीं भी, कभी भी बात कर लो जबकि उन दिनों किसी आपातकाल में सेना या प्रशासन का वायरलेस ही एक मात्र आसरा था जिस तक सबकी पहुँच नहीं होती थी |लेखक का  'दस डिग्री चैनल' अब कहीं सुदूर द्वीपों में ही मिल सकता है लेकिन क्या इतिहास का कोई महत्त्व नहीं होता ?और फिर प्रकृति तो नहीं बदलती |अंडमान निकोबार को दो भागों और जिलों में बांटा गया है- अंडमान और निकोबार |दोनों के अपने-अपने मुख्य-मुख्य द्वीप हैं |दस डिग्री चैनल  या दस डिग्री अक्षांस मोटे तौर पर इन दोनों जिलों के बीच से गुजरती है|
इन चित्रों को राजधानी पोर्ट ब्लेयर, सेल्यूलर जेल, यहाँ के आदिवासी, जापानी राज और उसकी क्रूरताओं के संकेतात्मक और सक्षिप्त चित्रों के अतिरिक्त लेखक के शब्द चित्रों को कई खण्डों में बांटा जा सकता है यथा लेखक का नेहरू जी के अस्थि-कलश के साथ पोर्टब्लेयर की जेट्टी पर अवतरण,पोर्ट ब्लेयर का जीवन, दस डिग्री चैनल के पार ग्रेट निकोबार की यात्रा जो कई पड़ावों से होकर पूरी होती है, ग्रेट निकोबार के जीवन और प्रकृति के अल्पज्ञात चित्रात्मक बिम्ब |और इन सब के बीच मानवीय संवेदनाएं, मानव की लघुता और विराटता, जीवन के छोटे-छोटे दुःख-सुख और जिजीविषा अपने अनाम रंगों में चित्रित हैं |
जीवन और यात्रा के चित्रों का पूरा-पूरा आनंद एक बार में नहीं आता जैसे कि रामचरित मानस व्यक्ति एक बार परीक्षा पास करने के लिए पढ़ता है, फिर अध्यापक के रूप में पढ़ाता है और फिर रिटायमेंट के बाद फुर्सत से आनंद के लिए पढ़ता है |सब स्थितियों में अलग-अलग अर्थ खुलते हैं |मेरे विचार से जिस स्थान में हम रह चुके हैं उसके शब्द चित्र हमें अधिक आनंदित करते हैं और फिर इच्छा होती है कि एक बार फिर उस स्थान को इस नई दृष्टि से देखें |
यदि आप अंडमान निकोबार में रह चुके है तो इसे अवश्य पढ़ें |आपको लगेगा, अरे, यह भी था क्या वहाँ ?  ऐसा भी था क्या ? काश, समुद्र यात्रा में रात को नहीं सोते और अमुक दृश्य को देखते |अजंता एलोरा की गुफाओं के चित्रों की तरह चित्रों की एक लम्बी शृंखला है यह पुस्तक |जैसे ये गुफा-चित्र मानव निर्मित नहीं लगते |लगता है चट्टानों और इसके आसपास के जंगलों की तरह आदिम काल से सब एक साथ ही उगे हैं | इस पुस्तक के अधिकांश चित्र प्राकृतिक हैं लेकिन उनके बीच-बीच में स्थित मानव निर्माण भी इस संवेदना के साथ चित्रित हैं कि सब एकाकार होकर अलौकिक बन गए हैं |
पोर्ट ब्लेयर के लिए कलकत्ता से पानी का जहाज लेना होता है |लेखक पंजाब मेल से जा रहा है |हावड़ा आने वाला है |एक पंक्ति-' मेल की गति अब वैसी नहीं रही |गंतव्य का आभास मिलते ही छंद के चरण मंदाक्रांता हो जाते हैं |''हावड़ा ब्रिज- अंडमान का प्रवेश द्वार |''स्ट्रैंड रोड़ स्थित भारतीय नौवहन निगम के दफ्तर में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई |लेकिन टिकट कब मिलेगा ? जब जहाज छूटेगा? जहाज कब छूटेगा? जब अंडमान भेजा जाने वाला पंडित नेहरू का भस्म-कलश दिल्ली से आएगा |एम. वी. अंडमान को इसी सेलिंग से पंडित नेहरू के भस्म-कलश को पोर्टब्लेयर पहुंचाने का गौरव प्राप्त होने जा रहा है |'पोर्ट ब्लेयर पहुंचकर -'24 जून 1964, को नेहरू जी के भस्म-कलश के आगमन पर सार्वजनिक अवकाश है |
सभी संस्थान, कार्यालय और बाजार बंद हैं |खुले हैं- टीस के द्वार, कसक के गवाक्ष, हूक के वातायन ' |बंदी बस्ती बसाने के लिए सर्वेयर आर्चीबाल्ड ब्लेयर ने जिस स्थान को चुना वह उसके नाम के पीछे कहलाया-पोर्ट ब्लेयर  |लेखक कहता है-लेफ्टिनेंट आर्चीबाल्ड ब्लेयर, तुम्हारा सर्वेक्षण प्रभु ईसा मसीह की करुणा के बिलकुल विरुद्ध है |यह द्वीप 'दंड-द्वीप' के योग्य नहीं है |अभिशप्त नहीं है कोई मानव, कोई मानवेतर |'द्वीपों की सबसे पुरानी हिंदीसेवी संस्था और आकाशवाणी के बारे में - 'हिंदी साहित्य कला परिषद् यहाँ की एकमात्र हिंदी संस्था है |एक अभिभावक राष्ट्रभाषा का, एक संरक्षक हिंदी अस्मिता का' |

'जब भी यहाँ की हिंदी का इतिहास लिखा जाए तो उसमें उस समय आल इण्डिया रेडियो में कार्यरत,पोर्टब्लेयर में हिंदी के साहित्यिक वातावरण के निर्माता 'राजनारायण बिसारिया का पोर्टब्लेयर' नाम से एक अध्याय अवश्य होना चाहिए' |

पोर्ट ब्लेयर से ग्रेट निकोबार के रास्ते में कोई पचास-साठ किलोमीटर दूर 'हट बे' से पहले रात्रि में समुद्र में डाल्फिनों का एक दृश्य देखें-'पानी के विस्तार पर डालफिन मछलियों का नृत्य हो रहा है |वे सब लोच ले-लेकर उछल भर रही हैं |उनकी देह की तिर्यकता आकाश में मेहराब बनाते हुए पानी में प्रवेश कर रही है |पानी के प्राचीर को तोड़कर आकाश में छलांग लगाना और फिर अथाह में समाहित हो जाना |यह बिम्ब महर्षि वाल्मीकि की रामायण में नहीं है, वेदव्यास के महाभारत में नहीं है, |कवि कुलगुरु कालिदास, तुम्हें भी यह दृश्य कहाँ देखने को मिला होगा' ?
इसी यात्रा में शाम को लेखक जहाज के डेक पर बच्चों और पत्नी के साथ लेटा हुआ है-'खुला समुद्र, खुला आकाश, तारागण, सप्तर्षि मंडल, आकाशगंगा |मस्तूल शेषनाग फणमंडल की छाया कर रहा है |प्रलय के पानी में खड़ा है बरगद और बरगद के पत्ते पर शयन कर रहा है शिशु युगल'|ग्रेट निकोबार के इंदिरा पॉइंट के लाईट हाउस के बिम्ब की प्रलायोपरांत उत्तुंग शिखर पर चिंतातुर बैठे मनु से तुलना करें-'कौन है वह,जो रात के सन्नाटे में, उस निर्जन एकांत में जोत जगाए एकाकी बैठा है ?
अपने गाँव से दूर, अपने घर परिवार से वियुक्त |जो न हमारी भाषा का है, न हमारी जाति का है, न हमारे धर्म का है, न हमारे देश का है | तथापि वह बस यही चाहता है जो जहाज भी इधर से गुजरे, वह सुरक्षित अपने गंतव्य की और निकल जाए |'कैम्बल बे में जिस मुहूर्त में भूतपूर्व भारतीय सैनिक परिवार की कुलवधू ने  गृहप्रवेश किया उसी मुहूर्त में वहाँ विधिवत भारतीयता का प्रवेश हुआ |इन सेटलरों  का एक बिम्ब-'हम यहाँ आदिम रात के अंधेरों में रुदन-महोत्सव मनाने नहीं आए हैं |अरणियों के भीतर पैठी आग को प्रज्वलित कौन करेगा ? गलतिया नदी के मगरमच्छ की तरह अपने मनोवांच्छित को दबोचते हुए पूंछ के बल पर पानी पर कौन खड़ा होगा ?माउंट थूलियर, पराहत होने के लिए नहीं आए हैं ये रणबाँकुरे |'इन्हीं का एक और जीवंत शब्द चित्र-'उनसे भी सुन्दर हैं- ग्रेट निकोबार में भू दृश्य, आरण्यक छवियाँ, वर्षावनों से आच्छादित पर्वत और मीठे पानी की नदियाँ |
उनसे भी सुन्दर है- उज्ज्वल नीलमणि समुद्र, प्रभात और संध्याएँ, एकांत और निस्तब्धताएं , आदिम सरीसृप, पशु-पक्षी, आदिम संस्कारों वाली वर्षा ऋतु, और वर्ष ऋतु की अमवस्याएं | लेकिन सबसे सुन्दर है- सेटलरों की पत्नियों का मौन समर्पण |गृहणियों के सपनों में तरंगित उनके परिवारों का गौरवशाली अनागत '|लेखक का कवि-मन इनके सौन्दर्य को और बढ़ा देता है |इन सुदूर इलाकों में पत्र का क्या महत्त्व है इसे कोई मेघदूत या यहाँ का घर से दूर प्राणी ही जान सकता है |जहाज से पोर्ट ब्लेयर होते हुए महीने में अधिक से अधिक दो बार ही पत्र आ पाते हैं |
यह जहाज नहीं, मुख्य भूमि के रामगिरि से चलकर आया मेघदूत है |जिस दिन पत्र आते हैं वह पत्र-दिन होता है, पत्रोन्माद का दिन  |पत्रों के अतिरिक्त कोई काम करने की बाध्यता नहीं |जैसे ही पत्र मिलता है उसका उत्तर भी तो इसी लौटते जहाज से  जाना है |और यदि वेतन मिला हुआ है तो मनीआर्डर भी तो इसी जहाज से घर जाएगा |नेताजी ने सबसे पहले यहाँ जापानी प्रभुत्त्व के समय स्वाधीन भारत का झंडा फहराया और इन द्वीपों को क्रमशः 'शहीद' और'स्वराज' नाम दिया लेकिन वे शब्द प्रचलित नहीं हो सके | लेखक  कहता है-'जिस प्रकार 'गंगा' शब्द में आशीर्वाद देती, कलकल निनाद करती देवापगा की छवि दिखाई देती है उसी प्रकार अंडमान-निकोबार शब्द से दोनों द्वीप समूह मानस में झिलमिलाने लगते हैं |इन दो शब्दों में अंडमान की  नीग्रोवासी तथा निकोबार की मंगोलवासी आदिम जनजातियाँ अपनी-अपनी आदिमता के साथ प्रतिबिंबित होती हैं |
विश्लेषण से और खबरें
अंडमान और निकोबार ये दो कालजयी शब्द-ब्रह्म हैं जिनका विकल्प ढूँढ़ना मूढ़ता है |अर्थ की खोज करना व्यर्थ है |निरर्थक हैं ये शब्द |लेकिन अपनी निर्रथकता में ही ये महान हैं' |कुल मिलाकर सभी शब्द चित्र पाठक को मंत्रबिद्ध कर देते हैं |कई दिनों तक लेखक की शैली और बिम्बों की खनक कानों में बजती रहती है |शेष तो यही कि मिठाई का वर्णन उसका असली स्वाद नहीं दिला सकता वैसे ही इस पुस्तक का असली आनंद तो एक बार द्वीपों की यात्रा करने के बाद ही आ सकता है |फिर भी मैं श्रेष्ठ हिंदी गद्य के पाठकों के लिए अपनी विशिष्ट शैली और भाषा के विशिष्ट तेवर वाली यह यह पुस्तक पढ़ने की अनुशंसा ज़रूर करूँगा |