दिल्ली प्रदूषण पर सरकार की क्या नीति?
दिल्ली सरकार ने प्रदूषण नियंत्रण के नाम पर दो स्थायी और कठोर नीतियाँ लागू की हैं: बिना वैध पीयूसीसी (Pollution Under Control Certificate) के ईंधन न मिलना और बाहरी वाहनों के लिए केवल बीएस-VI (BS6) मानक वाले वाहनों का ही दिल्ली में प्रवेश। ये नीतियाँ, जो सतही तौर पर पर्यावरण हितैषी लगती हैं, वास्तव में लाखों आम नागरिकों पर अन्यायपूर्ण दंड और वाहन निर्माता कंपनियों को अप्रत्यक्ष इनाम देने वाली साबित हो रही हैं।
इन नीतियों का सीधा असर दिल्ली-एनसीआर के करोड़ों लोगों पर पड़ रहा है। अनुमान है कि गुरुग्राम, गाज़ियाबाद, फरीदाबाद और नोएडा से रोज़ाना दिल्ली आने वाले लगभग 12 लाख वाहन प्रभावित हैं, क्योंकि इनमें बड़ी संख्या बीएस-IV और बीएस-V मानक वाले निजी वाहनों की है। कुल मिलाकर 20 से 30 लाख वाहन धारक अगले कुछ वर्षों में सीधे तौर पर प्रभावित होंगे। एक कार पर औसतन 4-6 सदस्यों वाले परिवार की निर्भरता को देखें तो एक करोड़ से अधिक लोग इस नीति की मार झेल रहे हैं।
सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि जिन बीएस-IV, V और VI मानक वाली कारों को खरीदते समय सरकार ने ही ‘पर्यावरण-अनुकूल’ और ‘कम प्रदूषण फैलाने वाला’ बताया था, उन्हीं कारों को आज "पुराना" या "प्रतिबंधित" घोषित किया जा रहा है। एक सवाल जो सरकार के सामने खड़ा है: अगर ये कारें प्रदूषण फैला रही हैं, तो कितनी कार निर्माता कंपनियों के खिलाफ दोषपूर्ण प्रौद्योगिकी या फर्ज़ी उत्सर्जन परीक्षण के लिए कड़ी कार्रवाई हुई है? जवाब नगण्य है। यह नीति स्पष्ट करती है कि गलती ग्राहक की है, न कि उत्पाद बनाने और प्रमाणित करने वाली कंपनियों की।
झूठे निशाने, असली अपराधी छुपे
दिल्ली का प्रदूषण दोष केवल वाहनों पर मढ़ना वैज्ञानिक आँकड़ों से मेल नहीं खाता। आखिरी बड़ा अध्ययन आईआईटी कानपुर (2015) और हाल के अनुमान बताते हैं कि प्रदूषण के मुख्य स्रोत सड़क/निर्माण धूल (PM10 में 35-66%), पराली जलाना एवं ट्रांसबाउंड्री धुआँ (सर्दियों में 30-40%) और उद्योग/बायोमास (10-30%) हैं। वहीं, सभी पेट्रोल कारों का कुल वायु प्रदूषण में योगदान मात्र 2% के आसपास है, और नाइट्रोजन ऑक्साइड/पार्टिकुलेट मैटर में भी यह 5-10% से अधिक नहीं है।साफ़ है कि कारें मुख्य दोषी नहीं हैं। फिर भी, पर्यावरण न्यायाधिकरण यानी एनजीटी के मामलों का एक बड़ा हिस्सा वाहनों पर केंद्रित है, क्योंकि यह आसान निशाना है।
दिसंबर 29 तक की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 24 घंटों में दिल्ली की सीमाओं पर 4803 ट्रकों की जाँच की गई और शहर के भीतर 430 हल्के मालवाहक वाहनों के चालान काटे गए, लेकिन एक भी वाहन निर्माता कंपनी के लाइसेंस रद्द होने की ख़बर नहीं है।
स्क्रैपिंग नीति: आँकड़ों का सच और मध्यम वर्ग पर मार
2024-25 की स्क्रैपिंग नीति के तहत दिल्ली में लगभग 5 लाख पुराने वाहन स्क्रैप हो चुके हैं, जिससे करीब 12 लाख लोग प्रभावित हुए हैं। यहाँ एक भ्रम की स्थिति है: दिल्ली में बीएस-IV/V कारों पर सीधा प्रतिबंध नहीं है, लेकिन डीजल कारों के लिए 10 साल और पेट्रोल कारों के लिए 15 साल की आयु सीमा के बाद उन्हें ईंधन नहीं मिलता। इसका वास्तविक प्रभाव यह है कि दिल्ली-एनसीआर के 20-30 लाख बीएस-IV/V कार मालिक अगले कुछ वर्षों में इस जाल में फँसेंगे।एक और विसंगति है। गाज़ियाबाद, नोएडा, गुड़गांव में बीएस-IV/V वाहन चल सकते हैं, लेकिन दिल्ली में प्रवेश केवल बीएस-VI वाहनों को ही है। यह दिल्ली-पंजीकृत और बाहरी वाहनों के बीच भेदभाव पैदा करता है। पर्याप्त सार्वजनिक परिवहन के विकल्प (मासिक 500 नई बसें अपर्याप्त) के अभाव में, मध्यम वर्ग को महँगी नई कार या इलेक्ट्रिक वाहन खरीदने के लिए मजबूर किया जा रहा है। यह नीति सीधे तौर पर वाहन कंपनियों और विक्रेताओं के लिए नए बाज़ार खोल रही है।
मंत्रियों के खोखले वादे और अलोकप्रियता का जोखिम
दिल्ली सरकार के मंत्री मनजिंदर सिंह सिरसा का कहना है कि "दिल्ली में वाहन प्रदूषण कम करने का एक तरीका है, सभी गाड़ियाँ इलेक्ट्रिक पर लाई जाएँ।" यह नारा तब और विडंबनापूर्ण लगता है जब गरीब-मध्यम वर्ग से पूछा जाए कि वे नई इलेक्ट्रिक कार का खर्च कहाँ से उठाएँ? अगर ईवी इतनी ही ज़रूरी है, तो सरकार को "मुफ्त विनिमय नीति" लानी चाहिए: पुरानी कार लो, नई ईवी दो। नारा होना चाहिए: "बसें लाखों के लिए, कारें मुफ्त दो सरकार!"ट्विटर पर लोगों ने कड़ी प्रतिक्रिया जताई है। एक ट्वीट में लिखा है- "पैसे खा रखे है, इलेक्ट्रिकल बसों की कंपनियों से। ना कोई लाइफ है, और ना कोई स्टैंडर्ड्स। और हां दिल्ली का पॉल्यूशन सिर्फ व्हीकुलर नहीं है। लेकिन इस दलाल सरकार को सिर्फ और सिर्फ आपदा में अवसर बनाना होता है। चाहे तो कहीं लिख लो, इस नौटंकी से सिर्फ जनता का पैसा बर्बाद होगा और कुछ नहीं।"
यह नीति केवल दिल्ली की ही नहीं, केंद्र सरकार की भी छवि को "जनता को दंडित करने वाली" और अलोकप्रिय बना रही है। असली समाधान वाहन मालिकों को निशाना बनाना नहीं, बल्कि प्रदूषण के प्रमुख स्रोतों पर कार्रवाई करना है। दिल्ली के 40% इलाकों में धूल भरी सड़कें (PM में 50%+ योगदान), आरावली का अवैध खनन, पड़ोसी राज्यों में पराली जलाना और उद्योगों के उत्सर्जन पर प्रभावी अंकुश लगाना ही वास्तविक समाधान है।
अन्यायपूर्ण नीति, विकल्पहीन जनता
संक्षेप में, दिल्ली सरकार की यह वाहन नीति प्रदूषण नियंत्रण के नाम पर एक अवैज्ञानिक, अतार्किक और जन-विरोधी कदम है। यह नीति एक ओर जहाँ मध्यम वर्ग और युवाओं (जिनमें जेन-जेड का बड़ा हिस्सा शामिल है) को आर्थिक रूप से कमज़ोर कर रही है, वहीं दूसरी ओर वाहन कंपनियों के लिए मुनाफे का नया द्वार खोल रही है। सरकार का ध्यान वाहनों पर प्रतिबंध लगाने की बजाय सड़कों की सफाई, हरियाली बढ़ाने, सार्वजनिक परिवहन को मज़बूत करने और पड़ोसी राज्यों के साथ समन्वय स्थापित करने पर केंद्रित होना चाहिए। जनता को सज़ा देकर नहीं, बल्कि असली प्रदूषण स्रोतों पर कार्रवाई करके ही दिल्ली की हवा वास्तव में साफ हो सकेगी।