महात्मा फुले पर आधारित फ़िल्म पर सेंसर बोर्ड की कैंची क्यों चली? जानिए इस फिल्म को लेकर उठे विवादों और सेंसर के फैसले के पीछे की असल वजह।
ब्राह्मण संगठनों के तीखे विरोध की वजह से महान समाज सुधारक ज्योतिबा फुले की ज़िंदगी पर बनी फ़िल्म ‘फुले’ आख़िरकार उनके जन्मदिन यानी 11 अप्रैल को तय तारीख़ पर रिलीज़ नहीं हो पाई। फ़िल्म को सेंसर बोर्ड ने तमाम आपत्तियाँ जताई हैं जिसकी वजह से यह फ़िल्म अब 21 अप्रैल को रिलीज होगी। सेंसर बोर्ड के इस रवैये पर बहुजन संगठनों ने तीखी प्रतिक्रिया जताई है। एक बार फिर साबित हुआ है कि देश की तमाम संस्थाएँ सवर्ण वर्चस्व के अधीन हैं। फ़िल्म में प्रसिद्ध अभिनेता प्रतीक गांधी महात्मा फुले और अभिनेत्री पत्रलेखा सावित्रीबाई फुले की भूमिका में हैं। ट्रेलर रिलीज होने के बाद ही इसका विरोध शुरू हो गया था। सेंसर बोर्ड ने फ़िल्म में लगभग बारह बदलाव सुझाए, जिसके बाद विवाद ने तूल पकड़ लिया।
सेंसर बोर्ड ने फिल्म के कुछ दृश्यों और संवादों पर आपत्ति जताई, जिनमें शामिल हैं: तीन हजार साल की गुलामी का ज़िक्र। जाति व्यवस्था और शूद्रों की दुर्दशा से संबंधित वॉइसओवर। महार, मांग, पेशवाई, मनुस्मृति और जाति व्यवस्था जैसे शब्दों का इस्तेमाल। एक दृश्य जिसमें ब्राह्मण बच्चा फुले दंपती पर कूड़ा फेंकता है।सेंसर बोर्ड की आपत्तियाँ
केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड यानी सीबीएफसी, जिसे आमतौर पर सेंसर बोर्ड कहा जाता है, का काम फिल्मों को आयु वर्ग के हिसाब से प्रमाणित करना है। लेकिन बोर्ड पर अक्सर काट-छांट का आरोप लगता है। यह सक्रियता तब सामने आई, जब महाराष्ट्र में कुछ संगठनों ने फिल्म का विरोध शुरू किया। अखिल भारतीय ब्राह्मण महासंघ, पुणे का कराड ब्राह्मण महासंघ और हिंदू महासभा ने दावा किया कि फिल्म ब्राह्मणों को नकारात्मक रूप में दिखाती है और जातिवाद को बढ़ावा देती है। इन संगठनों ने सड़कों पर प्रदर्शन किए और सेंसर बोर्ड को आपत्तिजनक दृश्य हटाने के लिए पत्र लिखे। आनंद दवे, अध्यक्ष, ब्राह्मण महासंघ ने कहा, “फिल्म जातिवाद को बढ़ावा देती है और ब्राह्मणों को नकारात्मक रोशनी में चित्रित करती है।” लेकिन महाराष्ट्र, जो फुले और आंबेडकर की भूमि है, वहां विरोध का जवाब भी उतना ही तीखा है। वंचित बहुजन आघाडी के नेता और डॉ. आंबेडकर के पौत्र प्रकाश आंबेडकर ने समर्थकों के साथ सड़कों पर उतरकर फ़िल्म विरोध का विरोध किया। 10 अप्रैल को हुए प्रदर्शन में प्रकाश आंबेडकर ने कहा, “फुले को दबाने की साजिश चल रही है। यह फिल्म बहुजन समाज की प्रेरणा है।” हैरानी की बात है कि जिस दिन फिल्म रिलीज होनी थी, उसी दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘एक्स’ पर महात्मा फुले के जन्मदिन पर उन्हें श्रद्धांजलि दी। उन्होंने लिखा,सेंसर बोर्ड की भूमिका पर सवाल
फ़िल्म के समर्थन में उतरे लोग
मानवता के सच्चे सेवक महात्मा फुले को उनकी जयंती पर सादर नमन। उन्होंने समाज के शोषित और वंचित वर्गों के कल्याण के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।
लेकिन सेंसर बोर्ड के रवैये से सवाल उठ रहे हैं कि क्या फुले की प्रेरणा को जनता तक पहुंचने से रोका जा रहा है? वर्तमान में सीबीएफ़सी के अध्यक्ष गीतकार प्रसून जोशी हैं, जिन्होंने बीजेपी के लिए चुनावी गीत भी लिखे हैं। ज्योतिबा फुले (1827-1890) और सावित्रीबाई फुले 19वीं सदी में सामाजिक सुधार की मशाल थे। पुणे के एक माली परिवार में जन्मे फुले ने जाति प्रथा और शूद्रों के शोषण के खिलाफ आवाज उठाई। 1848 में उन्होंने सावित्रीबाई के साथ मिलकर लड़कियों के लिए देश का पहला स्कूल खोला। बाल-विवाह का विरोध किया, विधवा पुनर्विवाह को समर्थन दिया और सत्यशोधक समाज की स्थापना की। उनकी किताब गुलामगीरी (1873) ने ब्राह्मणवाद और वर्ण व्यवस्था पर करारा प्रहार किया। उन्होंने लिखा, “ब्राह्मण कहते हैं वे ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए। तो क्या ब्रह्मा के मुख में गर्भ था?”ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले का योगदान
फुले ने पेशवाई काल की अमानवीय प्रथाओं, जैसे दलितों को झाड़ू और हांडी बांधकर चलने की मजबूरी की याद दिलाते हुए अंग्रेज़ी राज को राहत भरा बताया। उनके सवालों ने सवर्ण समाज की नींव हिला दी।
फिल्म के निर्देशक अनंत महादेवन, जो खुद ब्राह्मण हैं, ने विरोध पर कड़ा ऐतराज जताया। उन्होंने कहा, “हमने सिर्फ तथ्य दिखाए हैं। फिल्म में यह भी दिखाया गया कि ब्राह्मणों ने फुले को अस्पताल खोलने में मदद की। सत्यशोधक समाज में ब्राह्मण इसके स्तंभ थे। मैं क्यों अपने समुदाय को बदनाम करूंगा? यह कोई एजेंडा फिल्म नहीं।” महादेवन ने बताया कि फिल्म गहन शोध और ऐतिहासिक स्रोतों पर आधारित है। फ़िल्म का विरोध करने वाले अक्सर ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद के फर्क को नहीं समझते। ब्राह्मण एक समुदाय है, जबकि ब्राह्मणवाद एक विचारधारा है, जो वर्ण व्यवस्था को दैवीय और अपरिवर्तनीय मानती है। यह विचारधारा मनुस्मृति को संविधान से ऊपर रखती है। आज भी वैवाहिक विज्ञापनों में सवर्ण समाज का जातिगत दंभ देखा जा सकता है।फिल्म के निर्देशक का जवाब
ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद का फर्क
नेता प्रतिपक्ष राहुल गाँधी ने सेंसर बोर्ड के इस रवैये के लिए सीधे मोदी सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया। उन्होंने एक्स पर लिखा, बीजेपी-आरएसएस नेता एक तरफ़ फुले जी को दिखावटी नमन करते हैं और दूसरी तरफ़ उनके जीवन पर बनी फ़िल्म को सेंसर कर रहे हैं। ...“बीजेपी आरएसएस हर क़दम पर दलित-बहुजन इतिहास मिटाना चाहते हैं ताकि जातीय भेदभाव और अन्याय की असली सच्चाई सामने न आने पाये।” लेखक कांचा इलैया ने भी यही सवाल उठाया। उन्होंने पूछा, “सीबीएफसी फिल्म से जाति-संबंधी उल्लेखों को हटाने के लिए कैसे कह सकता है, जब फुले का संघर्ष जाति और उस समय की ब्राह्मण समुदायों की अमानवीय प्रथाओं के खिलाफ था?” फ़िल्म के विरोध और को देखते हुए साफ़ लगता है कि समाज में प्रभुत्वाली वर्ग जातिव्यवस्था को बरकरार रखना चाहता है। डॉ. आंबेडकर का कहना था, “जब तक जाति रहेगी, भारत एक राष्ट्र नहीं बन सकता।” यानी यह फ़िल्म का नहीं, राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया का विरोध है। फ़िल्म की काँट-छाँट करने वाली कैंची पर नाम सेंसर बोर्ड को है, लेकिन हाथ ब्राह्मणवाद का है।समाज और संविधान पर सवाल