लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गाँधी के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ख़िलाफ़ लगातार आक्रमण का असर उसके शताब्दी समारोह पर भी पड़ा है। 26 अगस्त को दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में सरसंघचालक मोहन भागवत को उन तमाम मुद्दों पर सफ़ाई देनी पड़ी जो संघ को लेकर उठते हैं। उन्होंने अपनी हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को समावेशी और समानतावादी करार दिया पर ये भी कहा कि यह पश्चिमी राष्ट्र राज्य की अवधारणा से अलग है। उन्होंने दावा किया कि संघ किसी को धार्मिक आधार पर पराया नहीं मानता और उसका सार ‘भारत माता की जय’ के नारे में है। लेकिन भागवत की इन सफ़ाइयों से कई सवाल और खड़े हो गये हैं।

इन दिनों बिहार में जारी वोट अधिकार यात्रा के ज़रिए काफ़ी हलचल मचा रहे राहुल गाँधी बीते कुछ दशकों में कांग्रेस के अकेले नेता हैं जो आरएसएस पर लगातार हमलावर हैं। वे बार-बार कहते हैं कि असली लड़ाई बीजेपी से नहीं, संघ से है। यह आरएसएस की आयडियोलॉजी ही है जो भारतीय संविधान में दर्ज मूल्यों को नष्ट करना चाहती है। संविधान ने दलितों, पिछड़ों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों को बराबर का नागरिक माना है जो संघ की मनुवादी सोच के ख़िलाफ़ है। यही नहीं, वे संघ को आरक्षण विरोधी भी करार देते हैं जो सामाजिक न्याय की राह का सबसे बड़ा रोड़ा है जो संविधान बदलना चाहता है। 2024 में बीजेपी के केंद्र में बहुमत के पीछे रह जाने के पीछे आरएसएस और बीजेपी के संविधान बदलने की इस कथित इच्छा को भी माना जाता है। बीजेपी के कुछ सांसदों और मंत्रियों के अनुसार 'संविधान बदलने के लिए चार सौ पार’ वाले बयान भी इसके लिए कम ज़िम्मेदार नहीं थे। 
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भागवत के दावे पर सवाल

ज़ाहिर है, राहुल गाँधी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के शताब्दी समारोह के रंग में भंग डाल दिया है। मोहन भागवत की सफ़ाई ने भी कई सवाल खड़े किये हैं। सवाल ये है कि यदि हिंदू राष्ट्र वास्तव में समावेशी है, तो अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों और ईसाइयों, पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ RSS की चुप्पी क्यों बनी रहती है? बीते दशक में लिंचिंग की घटनाएँ, मस्जिदों पर हमले और धार्मिक आधार पर हिंसा की तस्वीरें भारत की नई पहचान बनती जा रही हैं, क्या संघ की ओर से इसका सक्रिय विरोध किया गया। 31 जुलाई 2023 को जयपुर-मुंबई सेंट्रल सुपरफास्ट एक्सप्रेस में एक RPF जवान ने तीन मुस्लिम यात्रियों की गोली मारकर हत्या कर दी, सिर्फ इसलिए क्योंकि उनकी दाढ़ी थी। ऐसी घटनाओं पर RSS की ओर से कोई आधिकारिक निंदा या पीड़ितों के प्रति संवेदना व्यक्त नहीं की गई। यदि हिंदू राष्ट्र में कोई "पराया" नहीं है, जैसा कि भागवत दावा करते हैं, तो इन बेगुनाह लोगों के आँसू पोंछने के लिए संघ ने क्या किया?

संविधान विरोध का इतिहास

RSS की स्थापना 1925 में हुई थी और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान यह संगठन उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष से दूरी बनाए रहा। कई इतिहासकारों का मानना है कि RSS ने न केवल अंग्रेजों का विरोध नहीं किया, बल्कि कई बार उनके खेमे में खड़ा दिखाई दिया। स्वतंत्रता के बाद, जब भारत ने एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य के रूप में अपनी पहचान बनाई, जिसमें संविधान, तिरंगा और संसद जैसे प्रतीक शामिल थे, RSS ने इनका खुलकर विरोध किया। संविधान स्वीकार करने के चार दिन बाद 30 नवंबर 1949 को RSS के मुखपत्र ऑर्गनाइज़र में लिखा गया कि संविधान में प्राचीन भारत के संवैधानिक विकास, विशेषकर मनुस्मृति, का कोई उल्लेख नहीं है। 

मनुस्मृति को डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने 1927 में सार्वजनिक रूप से जलाया था, क्योंकि यह शूद्रों और महिलाओं की गुलामी को वैध ठहराती थी, RSS के लिए प्रशंसनीय थी।

महात्मा गांधी की हत्या में भी RSS की छाया रही। हत्यारा नाथूराम गोडसे, जो RSS का पूर्व स्वयंसेवक था, विनायक दामोदर सावरकर के प्रभाव में था, जिन्हें कपूर आयोग ने हत्या का मास्टरमाइंड माना। सरदार पटेल ने स्पष्ट कहा था कि गांधी की हत्या RSS द्वारा बनाए गए विषाक्त माहौल का परिणाम थी। आरएसएस ने गाँधी जी की हत्या के बाद मिठाई बाँटकर ख़ुशी जतायी। इसके बावजूद, भागवत ने अपने शताब्दी भाषण में सावरकर को स्वतंत्रता सेनानी के रूप में प्रस्तुत किया जो उसकी नीयत पर संदेह की पर्याप्त वजह है। यह संविधान बदलने की दबी  इच्छा का ही प्रकटीकरण है।

हिंदू कोड बिल

मोहन भागवत संघ के ‘समानतावादी' होने की बात कर रहे हैं लेकिन 1950 में जब डॉ. आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल के माध्यम से महिलाओं को तलाक, संपत्ति और विवाह में समान अधिकार देने की कोशिश की, तो RSS ने इसका पुरजोर विरोध किया। इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी किताब इंडिया आफ्टर गांधी में लिखते हैं कि RSS ने देशभर में प्रदर्शन आयोजित किए, आंबेडकर के पुतले जलाए और बिल को "हिंदू समाज पर एटम बम" करार दिया। यह विरोध उस मनुवादी सोच को दर्शाता है, जो सामाजिक समानता और न्याय के खिलाफ थी।

गुरु गोलवलकर के विचार

RSS के दूसरे सरसंघचालक गुरु गोलवलकर ने संगठन को वैचारिक आधार दिया। उनकी किताब बंच ऑफ थॉट्स में उन्होंने मुस्लिमों, ईसाइयों और कम्युनिस्टों को भारत का दुश्मन बताया। उनके अनुसार, इन समुदायों को हिंदू संस्कृति पूरी तरह अपनानी होगी, अन्यथा वे "द्वितीय श्रेणी के नागरिक" रहेंगे। उन्होंने कहा कि जिनकी पितृभूमि और पवित्रभूमि दोनों भारत में होंगे, वही असली भारती हैं। इस तर्क पर मुस्लिम और ईसाई कभी भारतीय नहीं हो सकते क्योंकि उनकी पुण्यभूमि मक्का और येरूशलम भारत में नहीं हैं। यह विचार आज भी NRC और CAA जैसे मुद्दों में झलकता है, जहाँ बांग्लादेश से आए हिंदुओं को शरणार्थी और मुस्लिमों को घुसपैठिया कहा जाता है। मोहन भागवत ने कभी इन विचारों की निंदा नहीं की, जो उनके समावेशी दावों पर सवाल उठाता है।

RSS और सत्ता

भागवत दावा करते हैं कि RSS का सत्ता या सरकार से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन हकीकत इससे उलट है। भारतीय जनता पार्टी (BJP) पर RSS का प्रभाव स्पष्ट है। 1951 में जनसंघ की स्थापना RSS ने ही की थी, ताकि वह राजनीति में प्रवेश कर सके। 1977 में जनसंघ ने जनता पार्टी में विलय कर दिया। लेकिन जनता पार्टी संघ की सदस्यता न छोड़ने  के कारण ही टूटी। आज BJP के संगठन और सरकार में RSS के लोग प्रमुख पदों पर हैं। हाल ही में BJP के अध्यक्ष पद को लेकर RSS और नरेंद्र मोदी के बीच मतभेद की खबरें सामने आई हैं, जो यह दर्शाता है कि RSS सत्ता पर नियंत्रण को अपना अधिकार मानता है। गोलवलकर ने कहा था कि जनसंघ "गाजर की पुंगी" है, जिसे बजा लें या खा लें। यह रणनीति आज भी BJP के माध्यम से दिखाई देती है।
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विश्वगुरु का सपना और हकीकत

मोहन भागवत ने भारत को विश्वगुरु बनाने का दावा किया, लेकिन यह तभी संभव है जब भारत ज्ञान-विज्ञान में प्रगति करे। इसके विपरीत, BJP नेताओं द्वारा हनुमान जी को पहला अंतरिक्ष यात्री बताने जैसे बयान और पौराणिक कथाओं को वैज्ञानिक तथ्यों से ऊपर रखने की प्रवृत्ति भारत को विश्वगुरु बनाने के बजाय पीछे ले जाती है। अगर अस्सी करोड़ लोग भोजन के लिए सरकार पर निर्भर हैं, तो क्या इसे "भारत माता की जय" कहा जा सकता है?

आंबेडकर की चेतावनी

डॉ. आंबेडकर ने कहा था, "यदि हिंदू राज स्थापित हो जाता है, तो यह देश के लिए सबसे बड़ी विपत्ति होगी। इसे हर कीमत पर रोका जाना चाहिए।" RSS के हिंदू राष्ट्र का दावा, जो मनुस्मृति और सावरकर के विचारों से प्रेरित है, भारतीय संविधान के समावेशी और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के साथ टकराव में दिखता है। मोहन भागवत के समावेशी बयानों के बावजूद, RSS का इतिहास और वर्तमान कार्यप्रणाली इस दावे को संदिग्ध बनाती है। भारत का भविष्य तब तक सुरक्षित रहेगा, जब तक संविधान और उसकी आत्मा— समानता, न्याय और विविधता— को संरक्षित रखा जाएगा।